'सुनो मुझे भी' कवि -गीतकार जगदीश पंकज का प्रथम नवगीत संग्रह था, जिसने अपार लोकप्रियता प्राप्त की। प्रथम संग्रह में पंकज जी ने अपने कवि धर्म का लक्ष्य और उद्देश्य स्पष्ट कर दिया था। अपने गीतों में कवि पीढ़ियों से शोषित समाज को कथ्य के रूप में चुनता है और उनका स्वर बनता है। शोषक वर्ग पर कड़ा प्रहार करता है और उसे समय-समय पर सचेत भी करता है। यही बानगी और तेवर पंकज जी के दूसरे नवगीत संग्रह 'निषिद्धों की गली का नागरिक' में भी और अधिक मुखर और प्रखर होकर कायम है। इन दिनों विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भिन्न-भिन्न विमर्शों पर आलेख, गीत-नवगीत, कहानियाँ इत्यादि प्रकाशित होती रहती हैं।
मुख्य विषय जो सामान्यतः देखने में आते हैं वो दो ही हैं -एक दलित विमर्श और दूसरा स्त्री विमर्श। निश्चित और आवश्यक रूप से जब तक समाज में पूर्ण समानता स्थापित न हो, तब तक इन विषयों पर प्रत्येक संवेदनशील रचनाकार को, चाहे वह किसी भी वर्ग का क्यों न हो अपनी भावनाओं को निष्पक्ष होकर प्रस्तुत करते रहना चाहिए। संतोष की बात यह है कि ऐसा कुछ समर्पित और समर्थ साहित्यकार निरंतर कर भी रहे हैं और उनका इन विषयों पर लिखना सिर्फ रस्मी नहीं है, अपितु इसके पीछे उनकी सात्विक सोद्देश्यता भी झलकती है। दुःख तब होता है जब कभी बहुत उत्तेजक रचनाएँ अतीत में हुए दमन का बदला उस समय के शोषक वर्ग के वंशजों से लेने का आह्वान करती सी दिखाई देती है। उन रचनाओं में विध्वंसक प्रतिशोध दिखाई पड़ता है। पंकज जी के यहाँ आक्रोश है, प्रतिकार है पर समानता और समरसता का स्थायी भाव लिए हुए। यही कारण है कि आज जब चारों ओर समाज में एक अजीब सी अस्थिरता व्याप्त है, मूल्यों का पतन हो रहा है, सद्भाव, सहिष्णुता का निरंतर ह्रास हो रहा है, पूरी दुनिया मानो बारूद के ढेर पर बैठी कभी भी भस्म होने को है तब पंकज जी का कवि कहता है -
'सब कुछ ख़त्म नहीं है अब भी
बहुत शेष है उसे सँवारो।
खिलते फूलों पर मँडराती
तितली के पंखों के रंगों-
की झिलमिल जिन्दा है।
नभ में उड़ते हुए परिंदों-
की लंबी उड़ती बतियाती
महफ़िल भी ज़िंदा है।
गौरैया की चहक अभी भी
नहीं ख़त्म है, उसे पुकारो
अभी बहुत आँखों में पानी
ज़िंदा है, जीवित है
मन में करुणा संवेदन भी जीवित है
ममता, वत्सल, अनुराग प्रेम
अभी शेष लज्जा सत्कार
निवेदन भी जीवित है।
सौजन्य नम्रता
ज़िंदा है उसे दुलारो।'
आज के इस आपाधापी के युग में संग्रह के आरम्भ में आशाओं से भरा यह गीत क्या मंगलाचरण से कम है?
पंकज जी जीवन में सतत पारदर्शिता के पक्षधर हैं। कृत्रिमता, झूठे आश्वासन से उनको घोर आपत्ति है। सच्चाई को स्वीकार कर लेना ही नहीं, अपितु भ्रामक उपदेशों, रसविहीन नाटक, भ्रष्ट आचरण और कर्महीन जीवन को नकार देना भी वह धर्म मानते हैं। वह गंधहीन पुष्पों के चयन से अच्छा कंटकों को पसार देना मानते हैं-
'अर्थहीन स्वीकृतियों से
अच्छा है खुलकर तुम
सब कुछ नकार दो
आश्वासन झूठ से सने
भ्रामक उपदेश दे रहे
क्रंदन जो मूक फूटता
तुम उसको विघ्न कह रहे
गंधहीन पुष्पों से अच्छा है
चुनकर तुम
काँटे पसार दो।'
पंकज जी कहते हैं-
''मेरी रचनाओं में आक्रोश केवल दलित के लिए ही नहीं बल्कि शोषण पर आधारित व्यवस्था में न्यायपूर्ण अधिकार के लिए समान परिस्थितियों में जीने वाले सभी शोषित, पीड़ित, तिरस्कृत और बहिष्कृत आम नागरिकों के लिए है।'' निम्नलिखित पद्यांश इसके प्रमाण के लिए कितना सटीक है।
'जो तुम कहो, बस वह सही
यह किस महाजन की बही
जो कर्ज ही ढोते रहें
हम उम्रभर।
प्रतिबन्ध पीड़ित पक्ष पर
प्रतिवाद का अवसर नहीं
कैसी संहिता न्याय का भी
हो जहाँ भी स्वर नहीं
अभियुक्त का भयमुक्त का
सब साधनों से युक्त का
प्रतिकार अब बोते रहें
हम उम्रभर।'
पंकज जी के नवगीतों में यथातथ्यता उनके परिवर्तनकामी मन पर कहीं भी भारी पड़ती दिखाई नहीं देती। उनकी रचनाएँ जनता के भावों को स्वर तो देती ही हैं, साथ ही जनता में उस व्यवस्था को बदलने की इच्छा भी पैदा करती हैं, जो जनविरोधी हैं और जिनसे जनता के हिस्से निराशा, हताशा के सिवाय कुछ नहीं मिलता। पंकज जी का कवि हार नहीं मानता, वह सजग है और पूरी शक्ति और ऊर्जा के साथ गाता है-
'एक स्वर अपना मिलाएँ
उन स्वरों में
जो अँधेरे से, धुएँ से
लड़ रहे हैं।
आलमारी में सजे
सन्दर्भ-ग्रंथों का सुशोभित
संचयन भी जब हमारे
रिक्त जीवन सा
तिरस्कृत हो रहा है
दम्भ की उद्घोषणाओं
से सजा जो झूठ तनकर
मंच प्रायोजित करा
हुंकार भर-भर कर
पुरस्कृत हो रहा है
तानकर कर मुट्ठी मिलाएँ
हाथ उनसे
जो प्रबल प्रतिकार करते
बढ़ रहे हैं।'
जगदीश पंकज जी की विशेषता यह है की वे भोगे हुए यथार्थ को बहुत ही कुशलता से चित्रित करते हैं और उसको अत्यंत तीखी और मारक अभिव्यंजना देते हैं, इसके लिए कृत्रिम भाषा की आवश्यकता नहीं पड़ती। बिम्ब, लय, प्रतीक, छंद मानो स्वयं ही उस सत्य को स्वर देने लगते हैं-
'कौन हैं, क्यों कर रहे हैं
भंग निजता को हमारी
झोंपड़ी में झाँक
छेदों से दरारों से
सोचता हूँ, हम
कहाँ स्वायत्त
हमको घूरती अनजान सी
आँखें निरंतर
कौन मेरे साथ
पीछा कर रहा
बचकर, गड़ाकर दृष्टि
मेरे हर कदम पर
कौन है भयभीत
किसको चढ़ रहा ज्वर
देख मेरे मौन के
निश्चित विचारों से।
'पेड़ पर लटके हुए शव लड़कियों के' संग्रह की अत्यधिक मार्मिक और झकझोर देने वाली रचना है। कवि के अपने ही प्रदेश के एक शहर में दो युवतियों के साथ मन से नपुंसक कुछ युवक सामूहिक बलात्कार के बाद नृशंस ह्त्या करके शवों को पेड़ पर लटका दें और संवेदनशील कवि मौन रह जाए ऐसा संभव नहीं। पूरी मानव जाति पर कलंक बनी इन घटनाओं से कवि उद्वेलित हो उठता है-
'पेड़ पर लटके हुए
शव लड़कियों के
सिर्फ मादा जिस्म
या कुछ और हैं
कौन हैं ये लड़कियाँ
रौंदी गयी है देह जिनकी
क्यों प्रताड़ित हैं दलित
अपमान को पीते हुए भी
कौन हैं वे गर्व जिनके
लाडलों की क्रूरता पर
क्यों समय निर्लज्ज बैठा
मौन को जीते हुए भी
सांत्वना के शब्द भी
हमदर्द होकर
गालियों के बन रहे
सिरमौर हैं
यह दबंगों की सबल
संपन्न, सत्ता-अंध क्रीड़ा
जब तुम्हारे बीच से
उठकर तुम्हें धिक्कार देगी
आज के असहाय जन की
कसमसाहट मुखर होकर
संगठित हो एक दिन
संघर्षमय प्रतिकार लेगी
रोक सकते क्रूरता
तो रोक लो यह
आ रहे बदलाव के
अब दौर हैं।'
रचनाकार की संवेदना सिर्फ अपने प्रदेश तक ही सीमित नहीं रहती। कवि का मन अपने देश की युवतियों पर हो रहे अत्याचार को देखकर विह्वल होता हैं तो शत्रु देश के एक विद्यालय में हुए भोले मासूम बच्चों के सामूहिक क़त्ल पर भी कराह उठता है। प्राकृतिक आपदाएँ चाहे उत्तराखंड में विनाश करें या नेपाल में तबाही मचाएँ, पंकज जी जैसे भावुक और संवेदनशील कवि को विचलित कर जाती हैं, उनके अंतर में एक चीख घुमड़ती है जो गीत बनकर जन-जन तक पहुँचती है।
इस सदी में जहां यांत्रिक निकटता बढ़ी है वहीँ हार्दिक दूरियाँ विस्तार पा रही हैं। संबंधों में मसृण औपचारिकता पसर गई है। पंकज जी यह सब देखकर आहत तो होते हैं तथापि एक आशा उनके मन में सुहाने अतीत के लौट आने की भी अभी शेष है
'कैसा होगा
फिर से जब रिश्ते महकेंगे
अपनेपन से
दूर -दूर ही सही मगर
अकुलाहट होगी
कलियों फूलों को मिलने-
की चाहत होगी
गलबहियों में नहीं
औपचारिकता होगी
झूठे मन से जब संबंधों में
सच्ची गर्माहट होगी
एक दूसरे को पीड़ा-
की आहट होगी
कैसा होगा
जब निश्छल करुणा फूटेगी
संवेदन से आशीर्वाद झरेंगे
मन की गहराई से
आदर, वत्सल, नेह मिलेंगे
तरुणाई से
कैसा होगा
जब साझी सी गंध बहेगी हर उपवन
संग्रह में अनेक शेड्स के नवगीत हैं। पंकज जी के गीतों में कहीं नागरिक जीवन की विसंगतियाँ ध्वनित हुई हैं तो कहीं जीवन में अनायास ही आ गई उदासी प्रतिध्वनित हुई है। कवि ने जहाँ सामाजिक सरोकारों को व्यापकता से ग्रहण किया है वहीँ सांस्कृतिक और राजनीतिक पतन पर भी व्यंग्य किया है परंतु उनके नवगीतों में आक्रोश, व्यथा और करुणा शोषित, दमित और दलित वर्ग के पक्ष में मुख्य रूप से अभिव्यंजना पाते हैं। कवि बिना किसी संकोच के, लाग-लपेट के चुनौतीपूर्ण शैली में स्पष्ट कर देते है कि मैं वंचितों का दमन देख चुप न रहूँगा-
'चुप रहूँ, कुछ न कहूँ
संभव नहीं है
देखकर विद्रूपताएँ
इस समय की
जब अभावों ने मुझे
पाला सँवारा
बेबसी की धुप ने
बनकर सहोदर
छाँव की हर चाह में
चलता रहा
अवमानना के दंश खाकर
खिन्न होकर
वंचितों का मैं
प्रवक्ता ही रहूँगा
आरती संभव नहीं
मुझसे अनय की।'
उपर्युक्त पद्यांश यह स्पष्ट कर देता है कि पंकज जी के नवगीत सर्वहारा के मित्र हैं। उनका उपेक्षितों के प्रति आत्मीय लगाव संग्रह की केंद्रीय धुरी है। कवि ने अपने पहले नवगीत संग्रह का शीर्षक दिया 'सुनो मुझे भी'। लगता है जैसे कवि ने पाठकों, श्रोताओं का अपनी ओर, अपने स्वर की ओर तथा अपने उद्देश्य की ओर ध्यानाकर्षित करने के लिए धीर, गंभीर पुकार लगाई हो। निःसंदेह कवि को इसमें सफलता भी मिली। सुधि साहित्य प्रेमी इस नए, सार्थक स्वर की ओर खिंचते चले गए। उनके पहले संग्रह को अपना अपार प्यार और समर्थन तो दिया ही, साथ ही इस बात की प्रतीक्षा भी करने लगे कि कवि आगे और क्या कहना चाहता है। पंकज जी ने लोगों की जिज्ञासा को मानो शांत करते हुए ही अपना दूसरा नवगीत संग्रह उन तक पहुँचाया है- 'निषिद्धों की गली का नागरिक '। पहले संग्रह का शीर्षक तथा दूसरे संग्रह के शीर्षक गीत की ध्रुव पंक्तियों को जोड़कर अगर पढ़ा जाये तो वाक्य बनता है 'सुनो मुझे भी, मैं निषिद्धों की गली का नागरिक हूँ'। इस पूरे गीत की सुगठित, सुरछित पदावलियों में क्षोभ और आक्रोश को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से, पूरी ऊर्जा और शक्ति के साथ कवि ने प्रस्तुत किया है। अपने जीवनानुभव को अपने जैसे असंख्य लोगों से जोड़ते हुए अभिव्यक्त किया है। गीत में सत्यता रोष के साथ प्रस्तुत की गयी है। सच्चाई रचना को जहाँ धारदार बनाती है वहीँ रोष उसे एक नुकीलापन प्रदान करता है। यह गीत की नोक घायल करने के लिए नहीं अपितु हृदय में धीरे-धीरे एक चुभन सी देती रहती है और विवश करती है यह सोचने के लिए कि कवि ने ऐसा क्यों कहा _
''भीड़ में भी तुम
मुझे पहचान लोगे
मैं निषिद्धों की गली का
नागरिक हूँ''
गीत की अंतिम पंक्तियाँ कवि के सात्विक संकल्प और उद्देश्य की पुष्टि करती हैं, कवि धर्म का इससे अधिक और क्या पालन होगा। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि 'निषिद्धों की गली का नागरिक' नवगीत संग्रह प्रत्येक दृष्टि से अपने उद्देश्य में सफल हुआ है। कथ्य और शिल्प की नव्यता देखते ही बनती है। वायवीय विषयों पर कवि ने अपना समय और दिमाग नहीं खपाया है। धरती-पुत्र की रचनाओं में धरती की ही गंध व्याप्त है। भाषा अत्यंत सरल, सरस और प्रभावशाली है। भाषा, पाठक और कविता के बीच बाधा नहीं बनती, बल्कि उसे सीधे कथ्य से जोड़ती है और अपने प्रवाह में बहा ले जाती है। सेवानिवृत्ति के पश्चात श्री जगदीश पंकज जी की साहित्यिक सक्रियता प्रणम्य है। पाठकों और श्रोताओं की बड़ी संख्या उनकी सर्जना की प्रशंसक है तथा उनसे और संग्रहों की अपेक्षा करती है। मुझे पूरा विश्वास है वे साहित्य प्रेमियों को निराश नहीं करेंगे।
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गीत- नवगीत संग्रह - निषिद्धों की गली का नागरिक, रचनाकार- जगदीश पंकज, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- १२८ रुपये, पृष्ठ-१५०, समीक्षा- संजय शुक्ल।
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