शनिवार, 1 अप्रैल 2023

अक्षरों के पार जाकर - सुधांशु उपाध्याय

 

सुधांशु उपाध्याय का यह चौथा नवगीत संग्रह अपने शीर्षक को पूरी तरह सार्थक करता हुआ इन नवगीतों को अक्षरों के पार जाकर देखने का आग्रह करता है। भाषा के अभिजात्य से मोह न रखते हुए जन साधारण की भाषा में आमजन की बात करने वाले सुधांशु अपने नवगीतों को सरलता, ग्राह्यता व भावनात्मकता प्रदान करते हैं। नवगीतों की इस अनूठी दुनिया में विचरण करते समय आप अनेक रसों, रंगों व भावनाओं से सराबोर होते चलते हैं। कभी ये आपको प्रकृति के मधुरिम आँगन में ले जाकर अनुपम आनंद का अनुभव कराते हैं तो कभी यथार्थ के कठोर धरातल पर लाकर पटक देते हैं। अक्सर पुरुष लेखकों/कवियों की दृष्टि नारी के रूप, सौंदर्य या अधिक से अधिक उसके त्याग व बलिदान को ही देख पाती है किंतु सुधांशु उन विरले कवियों में से हैं जिन्होंने नारी की न केवल व्यथा को समझा और जाना है बल्कि उसके सामान्य मानव रूप को स्वीकारने का आग्रह भी किया है। इस संग्रह के ५४ नवगीतों में सामाजिक सरोकार भी मुखर रूप से प्रकट होते हैं तो प्रेम व विरह की निजी अनुभूतियाँ भी स्थान पाती हैं। 

उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने कहा है,’अतीत चाहे जैसा भी हो, उसकी स्मृतियाँ प्राय: सुखद होती हैं।” यों तो जीवन के इस सफर में हम अक्सर पीछे मुडकर उन रास्तों और पड़ावों को निहारते ही रहते हैं जिन्हें कभी कठिनाई से और कभी मुस्कुराते हुए पार कर आए हैं, किंतु ज्यों-ज्यों जीवन संध्या निकट आती है जाने क्यों मन पीछे ही भागना चाहता है? नवगीतकार भी अपने अतीत की गलियों, दालानों को खोजते हुए पूछ उठते हैं—
“घर में इतनी चीज़ें हैं 
चीज़ों में घर कहाँ गया?” 

उम्र शरीर की बढ़ती है, किंतु मन की कोई उम्र थोड़े ही होती है। इसी भाव को वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं – 

“बूढे की आँखों में
कुछ है 
चेहरे से उसका मेल नहीं 
बादल हैं 
सुरमेदानी में 
वह खोज रहा है पानी में” 

समय के साथ बदलते समाज और गिरते मूल्यों व नैतिक पतन से भी कवि आहत हैं। धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर के भौतिक स्वरूप के साथ-साथ उसका सामाजिक चेहरा भी बदल गया। अपनी पीड़ा को शब्द देने का प्रयास करते हुए वे लिखते हैं – 

“झीलों से खास दिन 
वो शिकारे नहीं रहे 
खामोशियाँ हैं दूर तक 
पानी में तैरतीं 
लहरों को छेड़ते वो किनारे नहीं रहे।”

घर से दूर रहते हुए जब बहुत दिनों बाद घर से चिट्ठी आती है तो उस क्षण जो रोमांच हो आता है, वो आज के समय के तुरत-फुरत संवाद वाले माध्यमों में कहाँ? यह चिट्ठी केवल एक कागज़ का टुकडा भर नहीं है, यह तो वह खजाना है जिसमें भरी है घर के आँगन की धूप, जुड़ी छतों वाले छोटे-छोटे घर और अनेक मीठी अनमोल यादें—
“बहुत दिनों पर आँगन की
वह धूप याद में आई 
आँखों में आकर के कोई 
पिघल रही परछाईं
तस्वीरों के रंग सूखते 
रंगों में जल घोल रहा हूँ 
काँप रहा हूँ” 

सुधांशु जी के नवगीतों की मुख्य विशेषता है भावप्रवणता और बिम्बविधान। वे अपने शब्दों के रथ पर बिठाकर पाठक को समय के आर-पार की सैर कराते हुए उसे विभिन्न भावों की सरिता में भिगो देते हैं। इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता, जो इस संग्रह की शीर्षक ही नहीं बनी बल्कि भारतीय इतिहास में आक्रांताओं द्वारा किए गए दमन को सशरीर अपने बिम्ब-विन्यास द्वारा ला खड़ा करती हैं। कवि इतिहास को पेज-दर-पेज पढे जाने का आग्रह करते हैं – 
“पेज-दर-पेज 
पढ़ते हुए 
अक्षरों के पार जाकर देखना 
चीख से होकर --- 
गुजरना 
रक्त में डूबी हुई तलवार जाकर देखना 
खेत में हैं जली फसलें 
हैं नगर उजड़े हुए 
बस्तियों की ओर हैं 
सेनाएँ अभी बिल्कुल गईं।”

शब्द यदि कविता का शरीर है, भाव उसकी आत्मा है तो विराम चिह्न उस आत्मा के साक्षात का सशक्त माध्यम। विराम चिह्नों का अनुचित प्रयोग अर्थ का अनर्थ कर सकता है यह सर्वविदित है ही। सुधांशु जी इस क्षेत्र में विशेष ध्यान देते हैं। जैसे उपरोक्त पंक्तियों में “चीख से होकर----” में निर्देशक चिह्न चीख की तीव्रता व स्थिति की भयावहता को इंगित कर रहा है। इसी प्रकार “खेत में हैं जली फसलें” के बाद अल्पविराम न लगाकर इसे एक स्वतंत्र पंक्ति के रूप में लिखकर वे गाँव व नगर दोनों के विनाश पर एक जैसा ध्यानाकर्षण लाने में सफल होते हैं। 

बचपन की यादों का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है-- माँ, जो जीवनभर हमारी संकटमोचन होती हैं। माँ की खुशबू जिसे माँ के जाने के बाद हर बच्चा खोजता है, वो कवि को मिल जाती है, माँ की संतान यानि बहन के रूप में, जो माँ न होते हुए भी उनकी खुशबू का अंश समेटे हुए है—

“एक नदी 
फसलों तक आई 
फसलों को संदेश दे गई 
माँ की अंगुली गुड़िया को ज्यों 
लंबे-काले केश दे गई 
माँ से 
मिलती-जुलती 
उसकी संतानों की खुशबू है! 

सुधांशु लयात्मकता का निर्वाह करते हुए पंक्तियों को तोड़-तोड कर लिखते हैं जिससे जिन शब्दों पर अधिक ज़ोर देना हो, वो स्पष्ट हो जाएँ। वे अनावश्यक क्लिष्ट शब्दों का मोह नहीं पालते, जनसाधारण की भाषा में लोक-तत्व का निर्वाह करते हुए अपनी बात कहते हैं। “सरौता, पान-गिलौरी, कुट्टी और पुलिया जैसे ग्रामीण परिवेश के शब्दों का प्रयोग इनके नवगीतों को एक अनोखी सी मिठास व अपनापन देता है।

प्रकृति व प्राकृतिक उपादानों से इनका जुड़ाव ऐसा दिखाई देता है जैसे किसी परम मित्र या साथी से। प्रकृति के सान्निध्य में ये प्रफुल्लित हो उठते हैं और इसके दोहन पर चिंतित। एक खूबसूरत नए प्रकार का बिम्ब देखिए, ऐसा लगता है कि खेत में काम करता हुआ नवयुवा किसान स्वयं धान की बालियों के साथ एकाकार हो उठा है – 
 “कभी खेत से 
  होकर गुजरो 
  खिलता हुआ पसीना होगा 
  तनी बालियाँ खनक पड़ें तो 
  समझो वहीं नगीना होगा 
  बढ़ते धानों के --- 
  चेहरों पर
  उगती हल्की रेख दिखेगी।”

 प्रकृति सदा ही साहित्यकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है। सुधांशु जी भी इससे अछूते नहीं हैं। पिंजरे से उड जाने पर केवल तोता ही नहीं कवि का हृदय भी मुक्ति का अनुभव करता है—

“अपने भीतर भी 
मुक्त बहुत कुछ होता है 
पिंजरे से बाहर – 
जब आकर उडता तोता है!” 

एक समय घर-घर में सहजता पूर्वक नज़र आने वाली, बल्कि घर की ही सदस्या-सी चिड़िया आज जैसे गुम-सी हो गई है। शहरों में तो इसका नज़र आना दुष्कर ही हो गया है। मानव के प्रकृति के प्रति कुकृत्यों के कारण न जाने कितने जीव-जंतु विलुप्त होने की कगार पर हैं। कवि की नायिका इस सोनचिरैया को खोज रही हैं जो – 
“तुम पीहर की पाती लाती 
सखियाँ संग-संघाती लाती 
दिन भर भटके 
तुम्हें तलाशा पूरे दिन
तुम्हें तलाशा रात-रात में 
सोनचिरैया कहाँ गई तू?”

स्त्री की दशा पर इनकी कलम खूब चली है। ये स्त्री के सभी रूपों को अपने नवगीतों द्वारा सौम्य रूप में प्रस्तुत करते हैं। फिर भले ही वह माँ हो, बहन हो, प्रेमिका हो, पत्नी हो या फिर बड़ी होती हुई पुत्री ही क्यों न हो। एक उदाहरण प्रस्तुत है – 
“घर में आती चिड़िया तो वह 
चिड़िया-सी बन जाती 
छोटा वाला शीशा लेकर 
आँखों पर चमकाती 
कभी अचानक 
छत पर जाती 
फिर नीचे आ जाती
बादल-राग सरीखी है
मैं बिजली कहता हूँ!” 

एक अन्य नवगीत “तोता-मैना” में वे नारी के प्रेमिका रूप के दर्शन कराते हैं जो प्रेम में पगी तो है किंतु इसके लिए भी अपनी स्वतंत्रता का बलिदान नहीं कर सकती। प्रेम वह जो बंधनमुक्त करे न कि जकड कर रखे। एक अन्य नवगीत “बताओ क्या करती!” के द्वारा एक मजबूर माँ के दर्द का बयान किया गया है जो अपनी भूख तो बर्दाश्त कर सकती है किंतु अपनी गोदी में नन्ही सी जान की जान की खातिर कुछ भी कर सकती है। वह भी जिसे समाज के ठेकेदार अनैतिक तो बताते हैं किंतु उसका कारण भी वही होते हैं। इस नवगीत की प्रारंभिक पंक्तियाँ ही अत्यंत मार्मिक हैं—
“खाली घर था 
रात उतरती 
और खड़ा शैतान 
बताओ क्या करती!” 

“कथा-कहें” नवगीत में तो वे सीधे-सीधे वाल्मीकि को ही संबोधित करते हुए इस बार फिर सीता की व्यथा-कथा कहने का आग्रह करते हुए कहते हैं—
“हर युग में निर्वासित सीता 
उस युग में 
मिथिलेश कुमारी 
इस युग में शबनम, संगीता 
यही कथा सीतायन है 
सत्य कहें या वृथा कहें!” 

केवल स्त्रियाँ ही नहीं बल्कि समाज के सभी शोषित वर्ग उनकी सहानुभूति का आधार पाते हैं। पानी की कमी और किसानों की आत्महत्या जैसी ज्वलंत समस्या को अपने नवगीत का विषय बनाकर वे नवप्रयोग करते हैं— 
“खाली घर हैं
मेघों के अब 
उड़ती बातें प्यास की 
और किसानों की खातिर है 
गोली बस सल्फास की!” 
और निकम्मी राजनीति इन वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने को हमें जाति-धर्म की राजनीति में धकेल देती है। 

“लेकिन मुद्दे 
गरम यहाँ पर 
दिल्ली, मथुरा, काशी हैं” 
कवि परेशान है कि इस निराशा के वातावरण में वह क्या लिखे और क्या कहे? 

“आसमान तक 
फैले डर हों 
झुक जाने को---
आतुर सर हों 
ऐसे में क्या कहूँ, लिखूँ क्या?” 

इसी बीच वे प्रेम व विरह की भावनाओं को बल देते गीत भी लिखते हैं जहाँ वे नए समय के नए बिम्ब प्रस्तुत करते हैं—
“थके हुए दिन आखिर 
कैसे चंचल 
सुबहें ढोएँ 
शहतूतों पर पाले 
जाते हैं रेशम के कोए 
तेज़ हवा में 
पत्थर जैसा 
रहा ठहरता मौन!” 

सुधांशु जी अनेक विषयों के साथ-साथ साहित्य में बनावटीपन का भी मखौल उड़ाने से नहीं चूकते। आज भी कविता अपने आस-पास की असुंदर चीज़ों को नज़रअंदाज़ करते हुए केवल सुंदर का ही वर्णन कर रही है, दुख-दर्द तकलीफ न लिख कर सब अच्छा-अच्छा ही लिख रही है--- 
“कटी उँगलियाँ 
उखड़े बाजू 
लेकिन हम तलवार लिख रहे।” 

कवि अपने कवि-धर्म से विमुख होकर दरबारी कवि में रूपांतरित हो रहा है, कीचड को ढकने के लिए मखमल का फर्श बिछाया जा रहा है। समस्याओं का हल खोजने की बजाय उन्हें नकारा जा रहा है। 

अपने नवगीतों द्वारा वे संदेश देते हैं कि हमें सपनों की दुनिया से निकलकर यथार्थ के कठोर धरातल पर पैर रखना ही होगा। तभी हम मानव होने का सच्चा धर्म निभा सकेंगे। उनके शब्दों में – 
“चलो दिलदार चलो 
मगर चाँद के पार नहीं,
रंगहीन चट्टानों में है 
इस पानी की धार नहीं!” 

नवगीतकार के गीतों का बिम्ब-विधान एकदम नया व अनूठा है। आमजन के शब्दों का प्रयोग करते हुए वे ऐसा शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हैं कि पाठक एकदम से स्वयं को उसी स्थान व परिस्थिति में होने का  अनुभव करता है। उदाहरण के लिए प्रस्तुत हैं कुछ पंक्तियाँ – 
चलती ट्रेनें 
भीड़ निगलती 
भीड़ उगलती हैं! 
लोहे के घर 
भाग रहे हैं 
घुटनों में सिर जाग रहे हैं 
पुल के नीचे 
लेटी लहरें 
देख मचलती हैं” 
उपरोक्त पंक्तियाँ आँखों के सामने हमारी ठसाठस भरी रेलों का दृश्य प्रस्तुत कर देती हैं। 

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सुधांशु जी ने अपने नवगीतों में नवीन प्रयोग किए हैं। उनके ग़ीतों के विषयों का आकाश बहुत विस्तृत है। वे भाषा के नए प्रयोग करते हैं, लोकभाषा के शब्दों से परिचित करवा कर भाषा को समृद्धि प्रदान करते हैं। गेयता इनके नवगीतों की विशेषता है ही। इस संग्रह का पाठक कभी निराश नहीं होगा।, बल्कि उसे अच्छा साहित्य पढ़ पाने की सुखद अनुभूति होगी। 

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नवगीत संग्रह- अक्षरों के पार जाकर, रचनाकार- सुधांशु उपाध्याय, प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद,  प्रथम संस्करण-२०१३, मूल्य-२१० रु. , पृष्ठ-११२ , परिचय- डॉ. मंजु सिंह

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