बुधवार, 1 मार्च 2023

जो कुछ हूँ बस गीत गीत हूँ- विनोद निगम

विनोद निगम की गीत पुस्तक ‘जो कुछ हूँ बस गीत गीत हूँ’ सत्य, शिव और सुंदर का उद्घोष करती है। जीवन के बीहड़ से भी वह रस तत्व को खोज कर लाने में समर्थ है, जहाँ कठोर जमीन से भी प्रेम की रस धार फूटती हों, ऐसी पीड़ा का मधुर गान करती, गीत गंगा निरंतर बहती रहती है। वे एक साधक हैं, गीत के, एक गायक हैं, गीत के, और एक योगी हैं, जिसने वास्तव में गीत को जिया है। गीत को मन की तपोभूमि में साधा है। ऐसे सातवें दशक के नवगीतकार जिनके गीत समकालीन गीतों की तरह ही, आज भी पूर्ण प्रासंगिक हैं। काव्य में आत्माभिव्यक्ति जब पाठक या भावक की आत्माभिव्यक्ति बन जाते हैं, तब यहाँ पर काव्य का रसात्मक पक्ष उद्भूत होता है, निगम जी के काव्य की यही विशेषता है, कि वे अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से उस काल का, उस मनोवृत्ति का, सम्पूर्ण आकलन करता है, जिस काल में भावोद्रेक के समय ये गीत रचे गये। आत्माभिव्यक्ति के, चरम संवेदना के, भावुकता के ये गीत आत्म विज्ञप्ति कदापि नहीं कहे जाएँगे। सहृदय पाठक जब इनसे तादात्म्य स्थापित करके, इनकी रसात्मकता में डूब जाता है, तभी ये गीत सिद्ध हो जाते हैं, और ऐसा कई दशकों से हो रहा है, वह दौर था, किशन सरोज का, नीरज का, नेपाली का, गीत पुरुष देवेंद्र शर्मा का, शिव कुमार भदौरिया का, और विनोद निगम का भी इसी पंक्ति में विशिष्ट स्थान है। शम्भु नाथ सिंह जी ने नवगीत तीन—में इनका उल्लेख किया है, कुमार रवींद्र जी ने लिखा था—

विनोद निगम जी ने, मानवीय मूल्यों को सहेजते हुए, अपनी विशिष्ट शैली के नवगीत लिखे, इन्होंने बहुत कोमल और बहुत भावना परक नवगीत लिखे, पर बहुत अधिक नवगीत नहीं लिखे, अपने विषय में इन्होंने स्वयं भी लिखा है, कि

दर्द जब इंतिहा से सहता हूँ 
तब कहीं एक शेर कहता हूँ

अपने नवगीतों में विनोद निगम जी कई बार कुछ भ्रमित से दिखते हैं—
अधेरें के चरण पक़डूँ, उजाले का तिलक कर दूँ, 
क्या दूँ शीश या फिर पाप के आगे नमन कर दूँ
बहुत चकरा गया हूँ मैं
जहाँ है बस यही दो पथ वहाँ पर आ गया हूँ मैं’

वे भौचक्के से राज पथ पर देख रहें हैं, और अपनी पीड़ा शब्दों में व्यक्त करते हुए भावुक मन से कहते हैं कि —
बस्ती बड़ी अजीब यहाँ की 
न्यारी है तहजीब यहाँ की 
जिनके सारे काम गलत हैं सुबह गलत है शाम गलत है 
उनको लोग नमन करते है।'

उन्होंने बहुत पहले ही दुनिया की चाल समझ ली थी, उनकी निराशा भी हद दर्जे की है, उम्र के सभी पड़ाव उनके लिए संघर्ष और रोजी रोटी के लिए अपने बचपन का घर छोड़ कर विवश होकर पराये शहरों में अजीब रहते रहे, बहुत बैचेन और निराश होकर ही उन्होंने कहा होगा—
‘कुछ भी नहीं बदलने वाला है
वही तमाशा चलने वाला है
वही पात्र संवाद वही अभिनय
वही दृश्य फिर खुलने वाला है
देश धँसेगा सबके यत्नों से 
कीचड़ सिर्फ़ उछलने वाला है।'

विनोद जी की गीत शैली मंत्र मुग्ध करती है। वे अपने समय के कुशल चितेरे है। नवगीत कार अपने समय को कितनी तीव्रता से, और भावुक शब्दावली से राष्ट्रीय, सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक चेतना का मोहक चित्र खींचता है! यह बहुत महत्वपूर्ण भी होता है। किसी भी रचनाकार को अमरत्व प्रदान करने वाला भी होता है। विनोद जी के नवगीतों में संवेदना की तीव्रता के साथ ही लोकजीवन भी अपने मूर्त रूप में उपस्थित है। और पारिवारिक संघर्ष, मनुष्य के अमानुष बनने की भी कथा है—

बाहरी आवाजों के घेरे ध्वनियों के छोड़ कर अधेरे
गीतों के गैंग चले आये, हम नंगे पाँव चले आये
भीतर इक सूखती नदी है बाहर यह रोगिणी सदी है
साँसों की मोम मछलियों को यह जलती रेत ही बदी है 
अनवरत धुएँ की यात्रायें छोड़ सभ्यता की कक्षाएँ 
छंदों के द्वार चले आये हम बेघरबार चले आये’

विनोद निगम जी ने अपनी पीड़ा की पर्तों को बारंबार अपने नवगीत में उधेड़ा है, और समष्टि के दर्द से तादात्म्य स्थापित किया है—-
‘याद तुम्हारी ऐसी बसी हुई, एक अकेला गाँव पहाड़ों में
दृष्टि तुम्हारी हो बंदी ग्रह में जैसे दो सूराख दीवारों में
पथरीले पर्तों के भीतर भी बूँद बूँद तुम बहते रहते हो
बियाबान घाटी की चुप्पी में कुछ मनभावन कहते रहते हो‘

गाँवों को छोड़ कर मनुष्य के अपना नया ठिकाना शहरों को बनाया, पर गाँव मन से कभी नहीं गया। मन में गाँव बसा कर शहर में, आजीवन रहने की यह व्यथा एक कवि ही समझ सकता है, या फिर एक कवि ही उसे शब्दों में दर्ज कर सकता है—
अपनी पगडंडी को छोड़ जाने मैं कहाँ चला आया, 
वे फसलें खेत वे सिवान, महुओं के तन छुई हवा 
खुले हुए जूड़े गंधों के शिराओं में तैरता नशा 
बूढ़े बरगद की मेहमान चंदन क्षण भोगती थकान 
नीम तले जमुँहाती धूप गन्नों के रस पीते कोल्हू 
अँधियारा फाँकते मकान छूटा सब छूटा वह गाँव 
बचपन मैं जहाँ गला आया
यहाँ सर्फ धुआँ सिर्फ़ धुआँ दौड़ती व्यस्तता 
मंदिर का दीपक था यौवन सिगरेट की तरह जला पाया’

पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी सोच बदलती है, संस्कार बदलते हैं, और जीवन शैली भी बदल जाती है, समय के संघर्ष और विसंगतियाँ भी अलग आकार प्रकार ग्रहण कर लेती हैं, लेकिन विनोद निगम जी की रचनात्मकता अभी तक प्रासंगिक है, वे वरिष्ठ नवगीत कार हैं, उनके नवगीतों में पीड़ा का एक हाहाकार छुपा है, वह दर्द, वह दुःख उनके बोलते नवगीतों में बार बार चुगली करता नजर आता है—-

‘मुट्ठी भर धूप दालान भर अंधेरे 
यह ही कुल पास बचा मेरे 
पत्थर सा वर्तमान पाँवों में बाँध कर, 
मोड़ो पर छोड़ गईं लाकर घटनाएँ
अधरों पर सिटकनी चढ़ा गईं हवाएँ 
आँखों में ख़ालीपन भर गये उजेरे’

जीवन का अनंत विस्तार अब कष्ट देने लगा है, क्या मनुष्य में ही मात्र जीवन है ? इस जटिल प्रश्न की त्रासदी ने, अबोले सभी प्राणियों का हक़ छीना है, हर जगह, हर नगर, हर गाँव, मानव दल टिड्डियों की मानिंद पसर गया है। न जंगल बचे, न हरियाली, न पशु पक्षी, न ताल तलैया, न नदी की सुकुमारिता ! 
सुबह शाम और दोपहर , चलता है भीड़ में शहर
थकी हुई सड़कों पर लोग सिर्फ़ एक संक्रामक रोग
चेहरों पर समय के कटाव जीवन से दूर तक हटाव
जीते हैं केवल संयोग 
सिर्फ़ मक़बरें हैं ये भवन सात मंजिलें ये बँगले ये घर 
रहता है भीड़ में शहर’

आज हर घर में दीवार खड़ी है, रिश्ते नाजुकियत के मोड़ पर भौचक्के से खड़े हैं। अब पैसा ही भगवान है भाई, बहन, माँ, बाप, चाचा, ताऊ सब रिश्ते समय के कूड़े दान में डाले जा रहें हैं। हम मनुष्य नहीं है, मात्र व्यवसायी हैं। स्वार्थ की पराकाष्ठा में, आज हम सब कुछ भूल चुके हैं। शर्म और तमीज भी, शिक्षा और संस्कार भी , करुणा भी प्रेम भी—
असर नहीं करती अब लम्बी चौड़ी बड़ी दलीलें
दीवारें बन गईं दरों पर चस्पा हुईं अपीलें
जख्मों के बयान चेहरों में नजरों में मत पढ़िए
दिखती भले नहीं हों गहरी गड़ती तो है ये कीलें’

बहुत करुणा होती है, किसी कवि के मन में, तभी वह तवारीख़ों पर जिंदगी के गीत लिख पाता हैं, कवि की दृष्टि से देखने के लिए बहुत बहुत बड़ा ह्रदय चाहिए। विनोद निगम जी ने अपनी सुकुमार दृष्टि को जी भर विस्तार दिया, और ख़ूबसूरत गीत, नवगीत लिखते गये। अधिक नहीं पर जो भी लिखा बेनजीर है—
‘खून फिर हवाओं में छलका है 
मौसम दुष्यंत की गजल का है 
रोटी की बात भी करेंगे हम 
अभी तो हर हाथ में मुचलका है 
हिंसक अधियारों से निकले पर
दृश्य यहाँ पर भी जंगल का है ‘

विनोद निगम जी की उच्च कोटि की संवेदनात्मकता उनके हर गीत में लक्षित होती है, मन की निराशा और आशा दोनों संवेगों का धारदार वर्णन कवि की रचनाओं में मिलता है, ज्यों ज्यों मनुष्य की आयु बढ़ती है त्यों त्यों उसकी मनोवृत्ति बदलती है, जीवन की क्षणभंगुरता की अनुभूति प्रबल होती है, भौतिक आकर्षण विकर्षण में बदलने लगता है। जीवन व्यर्थ लगने लगता है, निष्प्रह मन कह उठता है—
‘जा रहा हूँ लौट कर आऊँ न आऊँ 
सूर्य की पहली किरण संग याद रखना
तुम अभी स्वर सुन रहे हो बाँसुरी के 
और कोलाहल बँधा है साथ मेरे
जो तुम्हारे लिए ढोती है सुरभि को 
वह हवा अब बाँधती है हाथ मेरे
आज सुन लो फिर कभी गाऊँ न गाऊँ 
क की पहली तपन संग याद रखना’
 और 
‘खिड़की के भीतर मन मेरा अविराम
बाहर फिर डूब रही एक और शाम
सिंदूरी हुए स्वर्ण किरणों के पाँव 
संकरे हो गये उजेरे के आयाम’

मन वियोगी मथ रहा है, प्राण अब छटपटा रहा है विपन्न ह्रदय अब कितनी आस बँधाये ? जीवन थक चला है , बसेरे उजड़ने को हैं। नीर नदियों का भी थमने लगा है ऐसे में मनुष्य वीतरागी वीणा के तार झंकृत करते हुए एक मौन रुदन करने लगता है—-
‘हो गये गुनाह पुण्य है इस सरस धुँधलके में
रूप से लिखी भाषा पाठ यह पढ़ाती है 
 और 
‘सिमटे आकृतियों के घेरे 
और घने हो गये अंधेरे
अधरों को छू रहे निमंत्रण 
बाँहों को कस रही हवाएँ
क्षितिजों तक टूट सा रहा सब 
गतियों में डूब गये बंधन ‘

गीत पुरुष माहेश्वर तिवारी जी ने भी इस संग्रह के फ़्लैप पर लिखा है कि—‘विनोद निगम के गीतों में कविता भी है और संगीत भी, जो उन्हें अपने कई समकालीन कवियों से अलग खड़ा करता है, मौसम की मोहकता में भी उन्हें रोटी की धार, उसकी दरकार नहीं भूलती—
‘मौसम है खूब ख़ुशनुमा 
मौसम के रंग तो खिले हजार हैं
छोड़ गई मौसम से काट कर हमें
रोटी में भी कितनी तेज धार है

विनोद निगम, समकालीन गीत को समझने के लिए पढ़े जाने वाले एक जरूरी कवि हैं, उनके गीतों को पढ़ते हुए अपना अनुभव यदि लिखूँ, तो उनके पास गीतों की आमद होती है, उतरते हैं , लिखे नहीं जाते। भाषा का वह तेवर और कहन का वह सलीक़ा कितनों के पास है, विनोद निगम के प्रतिनिधि गीतों से गुजरना, आत्मीय जीवन प्रसंगों से जुड़ा एक सुखद अनुभव तो होगा ही, विगत पाँच दशकों का देश और समाज भी हमारे सामने होगा।’ प्रौढ़ आयु सपने बुनने की नहीं, अनुभव बाँटने की होती है, एक लंबी उम्र गुजार कर भी कवि मन निराश है, वह अपने आसपास एक हाहाकार देखता है, और विवशता में उसी को निहारने के सिवा और कुछ नहीं कर पाता—
‘अँधियारा आँखों में भरे हुए शाम
आँगन दालानों में उतर रही राम
बिखरे ज्यों नावों के पाल
मुड़ मुड़ कर देख रही धूप
---
अधरों पर टाँक दिये अनचाहे नाम’

कवि कहना चाहता है, कि अब दिये का नन्हा उजियारा तम की सघनता कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है, इसे लाक्षणिक रूप से इस प्रकार समझा जा सकता है, कि दुनिया की जटिलताएँ, वैषम्य अब मामूली प्रयासों से नहीं घटने वाले, एक क्रांति चाहिए, जो सब कुछ, ऊबड़ खाबड़ जो भी है, बराबर कर दे, और जमीन की सोंधी नमी को फिर से हरे भरे वन में तब्दील कर दें, ताकि ख़ुशियों के मंगल गीत पुनः सबके अधरों पर मचलने लगे, 
‘दीप का अपमान होता है सरासर 
वक्ष पर तम के जलाओ अब मशालें
हाथ होते जा रहे लम्बे तिमिर के
किंतु हैं चुपचाप फिर भी लोग घर के
चोर को अपनी हवेली में छुपाये
कह रहें है किस तरफ़ उँगली उठाएँ’

विनोद निगम की ने अपनी मानवीयता के चरम से, आज को आवाज लगाई है, पर कोई भी प्रतिध्वनि नहीं आती, थके हुए पाँव फिर भी उम्मीद की ओर लौट जाना चाहते हैं, लेकिन सच्चाई की कठोर जमीन से टकरा कर हर बार लहुलुहान हो जाते हैं—
‘सारी मुस्कराहटें गायब कंठ सूखते आँख नम है
रंग बिरंगे इश्तिहार हैं फिर भी जाने कैसा गम है
निकले थे सपनों की बस्ती पहुँचे बंद अंधेरी गलियों 
गयी चाकरी दाना पानी ठण्डे चूल्हे आग खतम है’

कवि की संवेदना की धार कहीं भी भोथरी नहीं होने पाती, वह चाय को, तख़्त को, मौसम को, अपने क़स्बे को, पगडंडी, आँगन, कमरे और दालनों को अपनी रचना का कथ्य बनाता है, मुड़ मुड़ के देखने की आदत न होने पर भी विवश मन अतीत जीवी होने लगता है, क्योंकि अति संवेदना ही व्यक्ति को अतीत जीवी बनाती है, परिवर्तन की कठोरता उससे सहन नहीं होती, मनुष्यता की दिनों दिन गिरती गरिमा, उससे उसकी कोमलता नहीं छीन पाती, पाँच दशकों की यह रचना धर्मिता विनोद निगम जी को बहुत कड़े संघर्षों के बाद ही मिली है, अनुभूत और अनुभूतियों से गुँथा हुआ, ये बहुरंगी जीवन उनका विनोद प्रियता को भी प्रश्रय देता है, वे लिखते हैं—

‘बहुत फ़जीहत झेल चुके जग की नौटंकी में 
चलो रहें कुछ दिन सुकून से बाराबंकी में ‘
और 
‘मूल्य है रसा तल में दाम है कंगूरों पर
समझदार चुप हैं सब भार है लंगूरों पर
यक्ष प्रश्न कैसे यह बड़ी उमर जी जाये
छोड़ो उलझन सारी चलो चाय पी जाये’
कविता संगीत कला सृजन से हुए व्यापार 
कीर्ति यश अलंकरण बने सिर्फ़ धनाधार
तेल बेचते बच्चन सचिन बाँटते कोला 
भरमाते विज्ञापन बुद्धि हुई तार तार 
मीडिया बिकाऊ है सिनेमा उबाऊ है 
खाद्यों में मिक्सिंग है मैचों में फ़िक्सिंग है
समाधान क्या हो किससे सलाह ली जाये 
छोड़ो भ्रम भटकावे चलो चाय पी जाय’
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नवगीत संग्रह- जो कुछ हूँ बस गीत गीत हूँ, रचनाकार- विनोद निगम, प्रकाशक- पहले पहल प्रकाशन, २५ ए प्रेस काम्पलेक्स, एम. पी. नगर, भोपाल,  प्रथम संस्करण-२०२२, मूल्य-४०० रु. , पृष्ठ-२२६ , परिचय- डॉ. रंजना गुप्ता


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