सोमवार, 1 अप्रैल 2024

कोशिशों के पुल- गरिमा सक्सेना

छंद कविता के रूप में हिंदी ग़ज़ल से अपने जुड़ाव के बीच मेरी दृष्टि जिन कुछ पुराने और समकालीन नवगीतकारों पर जाती रही है उनमें अवध बिहारी श्रीवास्तव, मयंक श्रीवास्तव, माहेश्वर तिवारी, विजय किशोर मानव, वीरेंद्र आस्तिक, यश मालवीय, देवेन्द्र आर्य, ओम निश्चल, राम नारायण रमण, जगदीश व्योम, रमेश गौतम, जगदीश पंकज जैसे कुछ नाम प्रमुख हैं। ठाकुर प्रसाद सिंह के साथ कितनी ही बार बैठने का सुयोग तो विद्यार्थी जीवन में प्राप्त होता रहा था। इसी प्रकार बाद की पीढ़ी बल्कि नई पीढ़ी के जिन लोगों पर मेरी नज़र टिकती रही है, उनमें अवनीश त्रिपाठी, राहुल शिवाय, शुभम श्रीवास्तव 'ओम' के साथ-साथ एक नाम गरिमा सक्सेना का भी है।

गरिमा सक्सेना बहुआयामी और बहुस्तरीय रचनाकार हैं। उनके नवगीतों में सरोकारों के इतने स्तर मिलते हैं कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। उनमें वे जो कुछ कहना चाहती हैं उसे ठीक उसी प्रकार अभिव्यक्त भी कर ले जाती हैं। वे अपनी रचनाओं में भावों का ऐसा कोई गुंजलक नहीं बनातीं, पाठक जिसमें फँसकर उलझा हुआ महसूस करे। उनकी निरंतर सक्रियता बताती है कि वे कविता को लेकर कितनी गंभीर और सचेष्ट हैं। यही कारण है कि मात्र तैंतीस वर्ष की उम्र में ही उनके चार संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं और इतने ही संपादन उनके नाम जुड़ गए हैं। उनकी रचनाओं को सुधीजनों और पाठकों द्वारा ख़ूब सराहा भी गया है। ऐसी गरिमा सक्सेना अपने नए नवगीत संग्रह 'कोशिशों के पुल' के माध्यम से एक बार फिर पाठकों से रूबरू होने जा रही हैं तो उनका उत्साह देखते ही बनता है।

गरिमा सक्सेना अपने उस लखनऊ को अपनी रचनाओं में करीने से सहेज कर जीती और प्रस्तुत करती दिखाई देती हैं, जो उनका पैतृक शहर है। उनके एक प्रेमगीत में अवध और लखनऊ की संस्कृति तरह-तरह से रची-बसी दिखाई देती है-

प्यारे लगते हो तुम जैसे/एक अवध की शाम
आँखें लगतीं भूलभुलैयाँ/बोल दशहरी आम

प्रेम जीवन की अनमोल निधि है। हर रचनाकार उसे अपने ढंग से जीता और अभिव्यक्त करता है। प्रेम गरिमा सक्सेना के नवगीतों का एक प्रमुख स्वर है। उनका प्रेम एकनिष्ठ प्रेम है जो नदी की उस ठंडी जलधारा जैसा है, जिसमें गति है, लहरें हैं, चंचलता है तथा और भी बहुत कुछ है जो मन को भिगोता और आनंदित करता है। गरिमा ने बहुत टटके अंदाज़ और टटकी भाषा में अपने प्रेम को अभिव्यक्ति दी है, जो मन को बाँध लेती है-

बातों में/अक्सर परोसना/मीठे सँग नमकीन
कितनी ख़ुशियाँ/भर देते हैं/फ्लैश बैक के सीन
मुस्कानों का/तुम बन जाते/हो अक्सर पर्याय
सारे दिन की/थकन मिटाते/तुम ज्यों मेरी चाय

सबसे नज़र बचा कर/कुल्हड़ की अदला-बदली
मगर होंठ की लाली ने भी/कर दी थी चुगली
और ताकना अगल-बगल/प्यारी चोरी के बाद
हाथों में फिर से कुल्हड़ है/और तुम्हारी याद

प्रेम में विछोह और वियोग स्वाभाविक प्रक्रिया है। वियोग प्रेम की अनुभूतियों को तीव्रता और तीक्ष्णता से आप्लावित करने का काम करता है। ऐसे वियोग को भी गरिमा ने अपने गीतों में जगह दी है-

बिना नमक की सब्जी-सा था/फीका-फीका दिन
मीत तुम्हारे बिन

मन का मानसरोवर गुमसुम/चुप-चुप था ठहरा
लहरों की आवाजाही पर/नींदों का पहरा
नहीं चली पुरवाई कोई/पेड़ नहीं झूमा
बिना तुम्हारे मुस्कानों ने/ज्यों पारा चूमा
घड़ियों की भी चाल हुई थी/किसी दुल्हन जैसी
बढ़ती सुइयाँ आगे हौले-हौले/पग गिन-गिन
मीत तुम्हारे बिन

गरिमा के नवगीत उस समकालीन यथार्थ पर अपनी नज़र गड़ा कर रखते हैं, जो हिंदी कविता का प्रमुख स्वर ही नहीं, उसकी पहचान भी है। कहना न होगा कि यथार्थ गरिमा सक्सेना के नवगीतों का सबसे प्रबल, प्रमुख और गहरा स्वर है। यथार्थ पर उनकी पैनी दृष्टि उनके सरोकारों को भी बयान करने वाली है-

रच रहे हैं आग का संसार हम/दे रहे गृहयुद्ध को विस्तार हम
सीरिया, ईराक या अफ़गान बन/जी रहे हैं एक हाहाकार हम
फैलती ही जा रही हैं आग बन/हर तरफ़ जलतीं सियासी तीलियाँ
शांति का पथ अब अकेला पड़ गया/जी रहे हैं आज कैसी संधियाँ

विडंबनाओं और अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति के माध्यम से भी गरिमा  यथार्थ को पकड़ने और समझने का निरंतर उद्यम अपनी रचनाओं में करती दिखाई देती हैं। वे अपने रचनाकर्म में यथार्थ को छिटककर दूर नहीं जाने देतीं, बल्कि उसे निरंतर गूँथती-माड़ती रहती हैं। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है-

आरोहों के पथ आरक्षित/मानक हैं उत्कोची
जूते सिलने के बदले में/पैर काटते मोची
सिर के बल आख़िर कैसे हम/सोपानों पर चढ़ते
पढ़े हुए अख़बारों को हम/बार-बार हैं पढ़ते

           •

पत्तों पर जल के फव्वारे/मगर जड़ें हैं प्यासी
दीमक जैसी चाट रही है/मन को एक उदासी
बिना जड़ों तक पोषण पहुँचे/होगा कहाँ विकास

'सोजे-वतन' देखकर रोता/आज देश की हालत
पूँजी है जन की अधिनायक/करती कलम वकालत
छुई-मुई सब हो जाते हैं/सत्य-मर्म को छूते
आज तलक भी फटे हुए हैं/प्रेमचंद के जूते

यथार्थ की बहुस्तरीयता, सघनता और व्यापकता तथा उसका विस्तार किसी भी रचनाकार के लिए चुनौती की तरह होता है। प्रत्येक रचनाकार इस चुनौती को अपनी तरह स्वीकार करके आगे बढ़ता है। गरिमा भी इस चुनौती को अपनी तरह से स्वीकार करती हैं-

राजघाट पर चढ़ा रहे हैं/हम श्रद्धा के फूल
पर बापू को हम जीवन में/कब कर सके क़ुबूल
बापू के आगे नत हो बस/फोटो खिंचवाते
बापू के चश्मे से हमसब/देख नहीं पाते
बापू ऐसा ब्रांड बने जो/बापू के प्रतिकूल

गरिमा विद्रूपों के माध्यम से भी अपने यथार्थ को और धार ही नहीं देतीं बल्कि समाज को आईना दिखाकर उसे झिंझोड़ने का भी उपक्रम करती दिखाई देती हैं-

काग़ज़ों औ' फाइलों ने/मूँद ली हैं आँख अपनी
कलम गूँगी, प्रश्न गूँगे/उत्तरों की मौन कथनी
जो दिखाता है निदेशक/देख लो वैसा सनीमा
देश में चलता यही है/काग़ज़ों पर सब सही है

          •

संदर्भों का पता नहीं पर/अर्थों का विस्तार खोजते
अपने ही ख़ूनी पंजों से/ख़ुद ही अपनी देह नोंचते
आग लगाकर चाह रहे हैं/जमा रहे हिमखंड न पिघले
घर के अंदर कलह मचाकर/शांतिपाठ सिखलाने निकले

गरिमा का कवि-मन केवल अपने देश- समाज के यथार्थ से ही नहीं टकराता, अपितु देश की सीमाओं के बाहर भी जाकर विस्तार पाता और आकार ग्रहण करता है-
थोड़ी ही तो सुधर सकी थी/काबुल की तस्वीर
तालिबान तब तक ले आया/वही पुरानी पीर
भग्न हुईं मूर्तियाँ बुद्ध की/धम्म रह गया मूक
मौन तथागत देख रहे हैं/काँधे पर बंदूक
शांति, न्याय, सद्भाव सभी को/जकड़े है जंज़ीर

वस्तुतः जीवन और संघर्ष का अंतर्सम्बन्ध बहुत जटिल और पेंचीदा है। रचनाकार इस जटिल रिश्ते के भीतर तक पहुँचना चाहता है जो उसके रचनाकर्म को भी संघर्ष से जोड़ देता है। इस क्रम में ही गरिमा जीवन की आपाधापी को भी शब्दों में बाँधने की कोशिश करती दिखाई देती हैं-

दौड़ रही हैं सड़कें/सपनों से आगे
कितना तेज़ चले/कोई कितना भागे
भ्रमित करें चौराहे/सिग्नल बंद कहीं
चलती रहतीं सड़कें/इनका अंत नहीं
जीवन की राहें जितनी/टेड़ी-मेड़ी
उतनी ही सड़कों पर/घिसते हम एड़ी
चौबिस घंटे भी/जैसे कम लगते हैं
दौड़ रहे आधे सोये/आधे-जागे

कोई भी रचनाकार अपने आसपास की ही चीज़ों को देखता है। फिर उन्हें अपने मन-मस्तिष्क में पकाकर समाज को वापस करता है। लेकिन एक रचनाकार का देखना किसी सामान्य व्यक्ति के देखने से बिल्कुल अलग होता है।  वह जिस तरह और जहाँ  तक देखता है, वही उसमें काव्य-शक्ति का संचार कर देती है। 'कोशिशों के पुल' में 'ऑब्ज़र्वेशन' के भी कई उदाहरण हैं।

नई पीढ़ी जो गरिमा की भी पीढ़ी है, उसकी मुश्किलें और चुनौतियाँ उन्हें ख़ासा परेशान और बेचैन करती हैं। यहाँ वे युवा-विमर्श के मोड में नज़र आती हैं, जिसकी इस समय बहुत ज़रूरत है। क्योंकि जिस युवा में आत्मविश्वास और भविष्य के सपनों का पूरा संसार होना चाहिए, वह आत्मघात की शरण में जा रहा है। वह  तब वे अपनी कचोट और छटपटाहट को शब्दों में कुछ यूँ बाँधती हैं-
उम्मीदों की ज़ंजीरों का/बढ़ता रोज़ दबाव
डरकर साँसें छोड़ रही हैं/अब जीने का ख़्वाब
नये परिंदों की ख़ातिर अब/ऊँचे मानक तय हैं
मानक से कम उड़ पाने पर/उपहासों के भय हैं
घायल मन ले दौड़ रहे हैं/अनचाही सी दौड़ें
वापस मुड़ना भी कब संभव/कैसे रस्ता छोड़ें
छूट रहे हैं कोरे पन्ने/लेकर काला अंत
रोज़ हो रही है साँसों की/असमय बंद किताब

इस दारुण स्थिति में वे जिजीविषा और जीवट के संबल से ओतप्रोत नवगीत लेकर उपस्थित होती हैं। ये नवगीत निराशा से उबारकर जीने का उत्साह तो देते ही हैं, जीवन में सकारात्मकता की आवश्यकता भी प्रतिपादित करते हैं। यह सकारात्मकता गरिमा के यहाँ एक मूल्य की तरह आती है और उनकी रचनाओं को भी मूल्यवान बना देती है-

रास्ते बेशक कठिन हैं/पर असंभव हैं नहीं
सूर्य स्वर्णिम-सी सफलता/का उगेगा हाँ यहीं
कल हमारे साथ होंगीं/गूँजतीं उपलब्धियाँ

जंगल हो या/कंकरीट वन
उपवन या फिर/कोई निर्जन
कोई पाँव/उखाड़े चाहें
जिजीविषा से/हम जाते तन
बिना खाद/पानी के उगकर/जीवटता से लहरायेंगे
हम पीपल हैं/वनतुलसी है/बार-बार उग ही आयेंगे

है कमी माना मगर हैं/हिम्मतें भी कम नहीं
हार को मानें नियति जो/वो पराजित हम नहीं
कौन है जिसमें नहीं हैं/कुछ न कुछ कमज़ोरियाँ

पार करनी है हमें/विद्रूपताओं की नदी
हम नए बदलाव का/संकल्प ले/आगे बढें
कोशिशों के पुल गढ़ें

गरिमा सक्सेना की रचनाएँ संवेदना और अभिव्यक्ति के परिपक्व धरातल पर अपनी ताकत से खड़ी दिखाई देती हैं। कदाचित इसीलिए गाँव की वे मुश्किलें भी गरिमा देख पाती हैं, जिनमें महिला रचनाकारों की रुचि अपेक्षाकृत कम होती है-

लाडो की बारात इसी में/बेटे का एडमीशन है
गिरवी गहनों की लागत है/इसमें कर्ज, कमीशन है
सोच रहा है/खड़ा मेड़ पर/इसमें कितना अपना है
केवल फ़सल नहीं खेतों में/यह रामू का सपना है

गरिमा स्वाभिमान और आत्मसम्मान के जीवन-मूल्यों को भी अपने नवगीतों में पूरी सजगता और उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से सहेजती हैं, जो पाठक को भी जागृत और प्रकाशमान करते चलते हैं-

अभिनंदन के लंबे-चौड़े/छंद न हम गा पाये
इसीलिये आँखों में हम/तिनके-सा खलते आये

इतना ही नहीं, गरिमा सकारात्मकता के मूल्यों को बार-बार अपनी रचनाओं के केन्द्र में लेकर आती हैं और एक रचनाकार-सुलभ दृष्टि-गांभीर्य का परिचय देती हैं। वे दुख के अहर्निश रोदन की अपेक्षा उस सुख के गायन का आह्वान करती हैं, जो अंततः मनुष्य में आनंद का संचार करता है-

हरपल बस पीड़ा गायन से/जीवन में अवसाद बढ़ेगा
आँसू की बहती नदिया में/सुख का तिनका कहाँ बचेगा
गीतों को मरहम-सा कर दो/ज़ख्मों की जो बनें दवाई
जीवन में क्या दुख ही दुख है/सुख को भी तो गाओ भाई

समकालीन कविता में माँ को लेकर बेहद गहरी संवेदनशीलता रचनाकारों में देखने को मिलती है। जो स्वाभाविक भी है। क्योंकि एक बच्चे को आकार देने में माँ का जो योगदान है, वह अप्रतिम है। लेकिन परिवार में पिता की भूमिका की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। एक पिता माँ तो नहीं बन सकता है लेकिन वह माँ से बहुत कमतर भी नहीं होता। ऐसे पिता पर एक बहुत महत्वपूर्ण नवगीत गरिमा ने अपने इस संग्रह में शामिल किया है-

जुड़-जुड़ कई इकाई नित वे/मुझे सैकड़ा करते आये
मेरा दृढ़ विश्वास पिता हैं/मुझमें संबल भरते आये
प्रथम स्लेट पर आड़ी-तिरछी/मैंने जो खींची रेखायें
हाथ पकड़ उन रेखाओं में/स्वर्णिम अक्षर गढ़ते आये
मेरे तो ब्रह्माण्ड पिता हैं/अंश उन्हीं का, मैं सविता हूँ
अडिग हिमालय सदृश पिता हैं/मैं उनसे निकली सरिता हूँ
जिसे यत्न से लिखा उन्होंने/मैं उनकी पहली कविता हूँ

यह स्वाभाविक है कि गरिमा की रचनाओं में स्त्री - विमर्श भी परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप में मौजूद हो। क्योंकि एक स्त्री के सुख-दुख को स्त्री से ज़्यादा और कोई नहीं समझ सकता है। समझने को तो पुरुष भी समझ सकता है, समझता ही है, परन्तु दूर से। वह स्त्री होकर स्त्री के अंतर्मन तक नहीं पहुँच बना सकता। स्त्री अपने दुःख स्वयं भोगती, सहन करती और फिर भी आगे बढ़ती रहती है-

कई उलझनें खोंप रखी हैं/जूड़े में पिन से
कब उजियारा आयेगा/वह पूछ रही दिन से
तेज़ आँच पर रोज़/उफनते भाव पतीले से
रस्सी पर अरमान पड़े हैं/गीले-सीले से
जली रोटियाँ भारी पड़तीं/जलते जख्मों पर
घर तो रखा सँजोकर/लेकिन मन बिखरा भीतर
काजल, बिंदी, लाली, पल्लू/घाव छिपाते हैं
अभिनय करते होंठ/बिना मतलब मुस्काते हैं
कई झूठ बोले जाते हैं/सखी पड़ोसिन से

पर्यावरण की चिंता आज की प्रमुख वैश्विक चिंता है। विडंबना यह कि ऐसी चिंता के बावजूद उसका निरंतर क्षरण ज़ारी है। यह देखकर अच्छा लगता है और आश्वस्ति भी मिलती है कि गरिमा के नवगीतों में पर्यावरण की चिंताएँ भी अनुस्यूत हैं-

जंगल के ऊँचे पेड़ों में/थे हरियाली के ही मानक
जंगल ने देखा था कब यह/ऊँचाई का रूप भयानक
उसको डर है/कहीं पाँव तक/बढ़ कर आ जाए न मरुस्थल
'कंकरीट हम/तक बढ़ आये'/आज बहुत चिल्लाए जंगल

कैसे/चीख़ों में/तब्दील हुई हैं तानें
कैसे आग बनीं/धरती की/सफल उड़ानें
इस विकास का/वह अंधापन दिखलाएगी
जिसके अंधकार में मानव/हुआ लापता
नदी बची तो/कल सबको यह बतलाएगी
हर दिन यहाँ असभ्य हुई/किस तरह सभ्यता

व्यर्थ इनसे ज़िंदगी की/आस अब रखना
ये हवाएँ आस की/हर श्वास छीनेंगी

भाषा किसी रचनाकार की सबसे बड़ी ताकत होती है। ऐसी ताकत के लिए अंग्रेजी के  ऐसे शब्दों का जो हमारी बोलचाल की भाषा के अंग बन चुके हैं, उनका  गरिमा ने भरपूर उपयोग किया है अपने नवगीतों में। वे इन शब्दों का अपनी भाषा में निवेश करती देखी जा सकती हैं। 'नाम तुम्हारे ही आरक्षित/दिल की विंडो सीट सदा से'(यादों की ट्रेन), 'जितनी देर खींचते सेल्फ़ी/बस उतना ही मुस्काते हैं' (लेमिनेटेड मन), 'हम अपने कंफ़र्ट ज़ोन को/त्यागें कैसे' ( डर लगता है), 'कब हुआ माइक सहारा/सिर्फ़ ब्रेकिंग न्यूज़ की/चाहत रही है/फ़ेम का है गेम सारा' ( शोकगायन पर बधाई), 'फ़ोर लेन पर घायल सपने/

खोजें कहाँ पड़ाव' (सच कितना विद्रूप) जैसे कितने ही पद-बंध इस संग्रह में कवयित्री की भाषा की ताक़त बने हैं।

कहने का आशय यह कि गरिमा सक्सेना के नवगीतों के इस संग्रह में अभिव्यक्ति और सरोकार और काव्यात्मकता तथा रचनात्मकता के इतने सारे पक्ष समाहित हैं कि उन सब पर एक साथ बात इस भूमिका में किया जाना संभव नहीं है। कहना न होगा कि अपने इस दूसरे संग्रह के माध्यम से गरिमा सक्सेना एक महत्वपूर्ण नवगीतकार के रूप में विकसित होती दिखाई देती हैं। 

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नवगीत संग्रह- कोशिशों के पुल, नवगीतकार- गरिमा सक्सेना, समीक्षक- कमलेश भट्ट कमल, प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, श्वेतवर्णा प्रकाशन, २१२-ए, सुपर एम आई जी, एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेंट, सेक्टर १९, नोयडा, उत्तर प्रदेश, कवर- हार्डबाउन्ड, पृष्ठ- १४४, मूल्य- रु. २४९, ISBN- 978-81-970289-9-1

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