रविवार, 1 दिसंबर 2019

चुप्पियों को तोड़ते हैं- योगेन्द्र प्रताप मौर्य

हिन्दी नवगीत का वर्तमान असहमतियों का वर्तमान है। प्रतिपल जटिल होती संवदेना और उससे जनित संवदेनात्मक यथार्थ की जटिलता का स्तर शब्दों की शक्लों में ढलकर आना अब शायद उतना सरल नहीं रह गया जहाँ कवि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उसे अभिव्यक्त कर सके। कुल मिलाकर अब कविकर्म वायवीय या काल्पनिक वृत्ति न होकर श्रम पूर्वक किए जाने वाले निर्माण का पर्याय हो चुका है। अतः कविता और कवि द्वारा किए गये श्रम में समानुपातिक सम्बन्ध है, ऐसा कहा जा सकता है। नवगीतकार अनिरूद्ध नीरव के शब्दों में-
हाँफ-हाँफ जाता हूँ
चार पंक्ति जोड़कर
जैसे चट्टान कोई तोड़कर!

अपनी झीनी-बीनी ओढ़ना
हर में ही पाँवों को मोड़ना
संख्यायें ऋण चिह्नों पर खड़ी
सबको संचित धन है जोड़ना
स्वेद-स्वेद होता हूँ
स्वप्न को निचोड़कर
जैसे चट्टान कोई तोड़कर! (एक धार मोड़कर)
उपरोक्त पंक्तियाँ कविकर्म में लगने वाले श्रम और जटिलता की सटीक अभिव्यक्ति में व्यय होने वाली रचान ऊर्जा का सहज परिचय/परिभाषा देती प्रतीत होती हैं। आज यदि कविता की किसी भी विधा को जीवन जटिलतम स्थितियों को शब्द देना है तो उस विधा के रचनाकार में भी उसी स्तर की कर्मठता, चिन्तनशीलता व रचानात्मक श्रम से विरत कोई भी रचना करेंगे तो कहीं न कहीं विधागत मूल स्वरूप व चारित्रिकता से पृथक प्रेरित रचना ही मानी जानी चाहिए न कि मौलिक। यहाँ पाश्चात्य विद्वान ब्लादीमीर मयाकोवस्की का यह कथन उल्लेखनीय है-
‘‘ अगर कविता को उच्च गुण विशिष्टता प्राप्त करनी है, अगर उसे भविष्य में पनपना है तो हमें चाहिए कि उसे (कविता को) हल्का-फुल्का समझकर अन्य सभी प्रकार के मानवीय श्रम से अलग करना छोड़ दें।‘‘

नवगीत का वर्तमान आलोचकीय विमर्श सर्वत्र एक विशेष प्रकार की चिन्ता प्रकट करता दिखाई देता है। हाल-फिलहाल के प्रकाशित नवगीत आलेखों के अध्ययन से स्पष्ट होता जाता है कि वर्तमान में लिखे जा रहे नवगीतों में एक प्रकार की जड़ता, शुष्कता और वैचारिक विपन्नता व्याप्त है। यहाँ यह अस्पष्ट नहीं रह जाता कि यह जड़ता, शुष्कता व वैचारिका विपन्नता क्यों और किस माध्यम से व्याप्त हुई है! आलोचकीय आलेखों की गर्मागर्म बहसें प्रश्नगत विषय पर एक कटघरा बनाती तो अवश्य दिखायी देती हैं किन्तु उस कटघरे में कौन-कौन आने चाहिए इसपर संकेत करने का भी नहीं सोचतीं। ऐसे में क्या कटघरे के भीतर और क्या कटघरे के बाहर होना चाहिए इसपर निष्कर्ष के बजाय एक वैचारिक विभ्रम व्याप्त है। इसी वैचारिक विभ्रम की अंतिम व भयावह स्थिति है वैचारिक चुप्पी। आज की ‘सुविधानुसार-व्याख्या-पद्धति‘ जैसे अतार्किक ध्वंशक उपकरणों से लैस रचनाधर्मिता न तो इस वैचारिक चुप्पी को रेखांकित कर पा रही है और न ही इसे तोड़ने के लिए संघर्षरत दिख रही है।

अपने आरम्भ से लेकर आज तक नवगीत का मूल संकल्प सदैव अभारतीयता, असांस्कृतिकता व अवैचारिकता से संघर्ष रहा है। साथ ही साथ नवगीत के इतिहास व कृतियों का क्रमबद्ध अध्ययन यह स्थापित भी करता है कि किसी विशेष समयावधि में रचे गीतों में अन्य समयावधियों में रचे गीतों के सापेक्ष कुछ न कुछ शिल्पगत, भाषागत व अभिव्यक्तिगत अंतर अवश्य रहा है और यह अस्वाभाविक भी नहीं है। नवगीत की प्रत्येक पीढ़ी के रचानाकारों ने अपने समय की काव्य-आवश्यकताओं को जाँचा-परखा और इस वैचारिक विपन्नता से जनित चुप्पी से संघर्ष का संकल्प और दृृढ़ किया। अतः यह आवश्यक है कि वर्तमान में मजबूत स्वरूप पा चुकी नवगीत की नई पीढ़ी इसे अपना नैतिक दायित्व समझे और इसी नैतिक दायित्व के निर्वहन के क्रम की एक वैचारिक प्रतिश्रुति योगेन्द्र प्रताप मौर्य के भारतीय संस्कृति के अनुरक्षण की चिन्ता से भरे गीत संग्रह ‘चुप्पियों को तोड़ते हैं‘ के रूप में हमारे सामने है।

संग्रह की भूमिका में विभिन्न स्थानों पर नवगीतकार एवं चिंतक अवनीश त्रिपाठी ने नवगीतों के पीढ़ीगत अभिव्यक्ति स्वरूप के अंतर को विभिन्न उद्धरणों के माध्यम से रेखांकित करते हुए नई पीढ़ी के रचनाकर्म, भाषिक-प्रयोग, बिम्ब-योजना आदि अवयवों पर तार्किक विमर्श प्रस्तुत किया है। संग्रह के गीतों का अध्ययन इसकी सत्यता को प्रमाणित भी करता है। संग्रह का शीर्षक गीत ही वैचारिक चुप्पी के विरूद्ध निर्णायक युद्ध का शंखनाद करने में सक्षम है जहाँ गीतकार स्वाभिमान की पुनर्जागृति के प्रति कृतसंकल्प दिखता है। वास्तव में पुनर्जागृति की प्रेरणा को ही संग्रह का केन्द्रीय भाव कहा जाना उचित होगा और पूरे संग्रह को अवैचारिक मौन के विरोध का मुखपत्र! पंक्तियों की ऊर्जा व मुखरता स्पष्ट देखी जा सकती है-
हम नहीं हैं मूक मानव
चुप्पियों को तोड़ते हैं।

वेदना मन में जगी है
किन्तु कब ये नैन रोते
हम धधकती भट्ठियों में
हैं सृजन के बीज बोते

बादलों की मटकियों को
कंकड़ों से फोड़ते हैं।
साथ ही शब्दों की जागृति की निकटतम अनुभूति कराने में कवि का सामथ्र्य भी उल्लेखनीय है-
फड़फड़ाते पंख पिजड़ों में
भला अब क्यों रहेंगे
समय सागर की अतल
गहराईयों के तल थहेंगे
एक गहरी साँस भरते हैं
लहर को ओढ़ते हैं! (पृष्ठ-३५)

कुंल ५५ गीतों के प्रस्तुत संग्रह में योगेन्द्र प्रताप मौर्य लोक जीवन के विभिन्न क्षणों को एक कोलाज की भाँति कम्पोज करते चलते हैं। ग्रामीण संस्कृति की गहरी थाह इनके गीतों की एक प्रमुख विशेषता है। तीव्र नगरीकरण के मध्य गाँव के भीतर का गाँव बचा पाना भी रचानाकार के लिए एक चुनौती ही है। खाँटी ग्रामीण पृष्ठभूमि को जीने वाले कवि योगेन्द्र प्रताप के गीत इस कसौटी पर खरे उतरने का गुण-शील रखते हैं। परिवर्तित स्वरूप में भी ग्रामीण समस्यायें कमोबेश उसी तरह की हैं, संग्रह से ग्रामीण संवेदना तारल्य के कुछ शब्द-क्षण प्रस्तुत हैं-
लगी पटखनी फिर सूखे से
धान हुए फिर पाई
एक बार फिर से बिटिया की
टाली गई सगाई

गला घोंटती यहाँ निराशा
टूट रहे अरमान। (पृष्ठ-९३)
या-
आए दिन ही प्रकट हो रहीं
देवी यहाँ भगौती
आखिर कब तक पूरी होगी
माँगी गई मनौती

थाल सजाकर करे आरती
बुद्धू की महतारी। (पृष्ठ-२२)
या फिर-
अब तो घर के भीतों मे ही
थोड़ी दया बची है
ओसारे की थून सहारे
इज़्ज़ज आज ढकी है

एक डाह ले छानी चूती
माँगे रोज भरौने। (पृष्ठ-२४)

योगेन्द्र प्रताप का लोक वास्तव में ग्रामीण अधिक है किन्तु वह साम्प्रतिक विषयों पर भी चुप्पी तोड़ते दिखाई देते हैं। वैश्विक परिदृश्यों पर मुखरता भी है। वर्तमान परिवेश की महत्वपूर्ण चिंताओं पर उनकी पैनी दृष्टि है। ‘तीन तलाक‘, ‘रिश्वतखोरी‘, ‘अवसादग्रस्त युवा पीढ़ी‘, ‘श्रम का अवमूल्यन‘ आदि विषयों के चाक्षुष बिम्बों से संग्रह के गीत संवेदना के उच्च स्तर का स्पर्श कर पाठक को उसके समकाल से परिचित कराते हैं। गीतकार पर्यावरण संरक्षण के लिए सार्थक संदेश देने का भी कार्य करता है यथा-
प्रगतिवाद की इस आँधी में
नीड़ पंख सब बेघर
कंक्रीट के सघन भयावह
जंगल पनप रहा डर

क्षत-विक्षत कर इस धरती को
मानवता ठुकराई। (पृष्ठ-६८)
या फिर-
जा चुका है डार्क में जल
है तड़पती प्यास
हो गई मूर्छित यहाँ पर
यूँ अचानक आस

हम जियें कैसे भला
सबकुछ लगाकर दाँव में।
.............................................
चुभ रहे अंगार बनकर
रेत अब तो पाँव में। (पृष्ठ-८६)
इन सबके बावजूद गीतकार जीवन-बीज ढूढ़ने की कोशिश में भी है। यथा-
पग-पग पर
धरती है बंज़र
जीवन बीज
दबे हैं अंदर। (पृष्ठ-७१)

गीतकार का लोकसंवेदी मन उत्सवधर्मी है तो सत्यान्वेषी भी। वह शुभकामना देने के साथ-साथ शुभकामनाओं की प्रासंगिकता की भी जाँच करता चलता है। परस्पर विरोधाभासी उत्सव-दृश्यों की शब्द-प्रस्तुति उल्लेखनीय है-
फिर आई है विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर कागज का रावण
एक ओर इतिहास

एक बार फिर सच्चाई की
होगी झूठी जीत! (पृष्ठ-१०८)
या फिर-
नए साल तुम
सच-सच बोलो
क्या-क्या लेकर आये हो!

भूखों की रोटी ले आये
या चिड़ियों का दाना
क्या बेघर के हिस्से लेकर
आये ठौर-ठिकाना

बढ़ता हुआ
अँधेरा हरने
क्या उजियारे लाये हो! (पृष्ठ-८१)

गीतकार के भीतर गहरी भारतीय चेतना है। अतः वह पाश्चात्य के अंधानुकरण के दुष्परिणामों को उकेरने में पूर्णतः सफल है, ऐसा कहा जा सकता है। भारतीयता, भारतीय संस्कृति व अपनी भाषा के प्रति गहरी आस्था रखने वाले गीतकार को इनका विकृत स्वरूप कतई स्वीकार नहीं है। वह लिखते हैं-
लोई की लालच के आगे,
बिछा हुआ है जाल
नई तरह का स्वाद ढूँढ़ती
भूख भटकती माॅल

जंकफूड के पीछे पागल
आती हुई नसल। (पृष्ठ-५७)
एक और प्रासंगिक उद्धरण इस तथ्य के प्रमाणन हेतु-
लील गये हैं अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो मार रही है
भोजपुरी को ताने

ए0बी0सी0डी0, रंग-बिरंगी
चली बाँधकर टाई।
...............................
नन्हें अक्षर भूल चुके हैं
जिद, मनुहार, ढिठाई! (पृष्ठ-११७)
इसी क्रम में ‘पश्चिम का व्यवहार‘, ‘कंकरीट की फर्श‘ आदि गीत भी उल्लेखनीय हैं।

वस्तुतः योगेन्द्र प्रताप मौर्य का यह संग्रह अनकी रचनात्मक ऊर्जा के विभिन्न स्थानान्तरित रूपों के दृश्य-क्षण समेटे है। सहजता और वैचारिक ताज़गी इन गीतों की विशिष्टता है। गीतों की बिम्ब-योजना पाठक को मुग्ध करने में समर्थ है। इन गीतों से गुजरते हुए पाठक एक सहज आत्मीयता का अनुभव करेगा। यद्यपि भाषा की नव्यता, शिल्प व शैलीगत प्रयोग आदि बिन्दुओं पर गीतकार से अभी और सतर्कता व परिपक्वता की अपेक्षा अवश्य होगी किन्तु प्रस्तुत संग्रह अपने समकाल में व्याप्त वैचारिक चुप्पियों को तोड़ने में सफल होगा ऐसा मेरा विश्वास है।

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गीत नवगीत संग्रह- चुप्पियों को तोड़ते हैं, रचनाकार- योगेन्द्र प्रताप मौर्य, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर। प्रथम संस्करण- २०१९, मूल्य- रुपये १५०/-,  पृष्ठ- १२४, आलेख - शुभम श्रीवास्तव ओम, ISBN-९७८-९३-८९१७७-८७-९

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