संवेदनाओं को अनुभव कर, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की कला और विज्ञान जानकर प्रयोग करने ने ही मनुष्य को अन्य जीवों की तुलना में अधिक उन्नत और मानवीय सभ्यता को अधिक समृद्ध किया है। सभ्यता और संस्कृति के उन्नयन में साहित्य की महती भूमिका होती है। साहित्य वह विधा है जिसमें सबका हित समाहित होता है। जब साहित्य किसी वर्ग विशेष या विचारधारा विशेष के हित को लक्ष्यकर रचा जाता है तब वह अकाल काल कवलित होने लगता है। इतिहास साक्षी है कि ऐसा साहित्य खुद ही नष्ट नहीं होता, जिस सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा होता है उसके पराभव का कारण भी बनता है। विविध पंथों, धर्मों, सम्प्रदायों, राजनैतिक दलों का उत्थान तभी तक होता है जब तक वे सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को लक्ष्य मानते हैं। जैसे ही वे व्यक्ति या वर्ग के हित को साध्य मानने लगते हैं, नष्ट होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाते है। इस सनातन सत्य का सम-सामयिक उदाहरण हिंदी साहित्य में प्रगतिशील कविता का उद्भव और पराभव है।
मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यक्ति गद्य की तुलना में पद्य अधिक सहजता, सरलता और सरसता से कर पाता है। प्रकृति पुत्र मानव ने कलकल, कलरव, नाद, गर्जन आदि ध्वनियों का श्रवण और उनके प्रभावों का आकलन कर उन्हें स्मृति में संचित किया। समान परिस्थितियों में समान ध्वनियों का उच्चारण कर, साथियों को सजग-सचेत करने की क्रिया ने वाचिक साहित्य तथा अंकन ने लिखित साहित्य परंपरा को जन्म दिया जो भाषा, व्याकरण और पिंगल से समृद्ध होकर वर्तमान स्वरूप ग्रहण कर सकी। गीति साहित्य केंद्र में एक विचार को रखकर मुखड़े और अंतरे के क्रमिक प्रयोग के विविध प्रयोग करते हुए वर्तमान में गीत-नवगीत के माध्यम से जनानुभूतियों को जन-जन तक पहुँचा रही हैं।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी में शोधोपाधि प्राप्त, शिक्षा जगत से जुड़े और वर्मन में प्राचार्य के रूप में कार्यरत डॉ. अशोक अज्ञानी के गीत-नवगीत संग्रह 'अपने शब्द गढ़ो' का पारायण एक सुखद अनुभव है। संकलन का शीर्षक ही रचनाकार और रचनाओं के उद्देश्य का संकेत करता है कि 'हुए' का अंधानुकरण न कर 'होना चाहिए' की दिशा में रचना कर्म को बढ़ना होगा। पुरातनता की आधारशिला पर नवीनता का भवन निर्मित किये बिना विकास नहीं होता। 'गीत' नवता का वरण कर जब 'नवगीत' का बाना धारण करता है तो समय के साथ उसे परिवर्तित भी करता रहता है। यह परिवर्तन कथ्य और शिल्प दोनों में होता है। अशोक जी दोनों आयामों में परिवर्तन के पक्षधर होते हुए भी 'कल' को नष्ट कर 'कल' बनाने की नासमझी से दूर रहकर 'कल' के साथ समायोजन कर 'कल' का निर्माण कर 'कल' प्राप्ति को साहित्य का लक्ष्य मानते हैं, वे मानव के 'कल' बनने के खतरे से चिंतित हैं। इन नवगीतों में यह चिंता यत्र-तत्र अन्तर्निहित है। 'सत्य की समीक्षा में' गीतकार कहता है-
झूठे का सर ऊँचा / कितने दिन रह पाया।
पुष्प कंटकों के ही / मध्य सदा मुस्काया।
प्रातिभ ही करते हैं / प्रतिभा का अभिनंदन
खुशियाँ है हड़ताली / निश्चित किरदार नहीं।
सामाजिक मंचों को / समता स्वीकार नहीं।
विकट परिस्थितियों का प्रक्षालन।
नवगीत को जन्म के तुरंत बाद से है 'वैचारिक प्रतिबद्धता' के असुर से जूझना पड़ रहा है। सतत तक न पहुँच सका साम्यवादी विचारधारा समर्थक वर्ग पहले कविता और फिर नवगीत के माध्यम से विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण द्वारा जनअसंतोष को भड़काने का असफल प्रयास करता रहा है। अशोक जी संकेतों में कहते हैं- 'इस नदी में नीर कम / कीचड़ बहुत है।' वे चेताते हुए कहते हैं-
स्वार्थ के पन्ने पलटकर देख लेना
शीर्षक हरदम रहे है हाशिये पर।
पंथ पर दिनमान उसको मिले, जिसने
कर लिया विश्वास माटी के दिए पर...
... द्वन्द के पूजाघरों में मत भटकना
पूजने को एक ही कंकर बहुत है।
द्वन्द वाद के प्रणेताओं को अशोक जी का संदेश बहुत स्पष्ट है-
इस डगर से उस डगर तक / गाँव से लेकर शहर तक
छक रहे हैं लोग जी भरकर / चल रहे हैं प्यार के लंगर
आस्था की पूड़ियाँ हैं, रायता विश्वास का है।
ख्वाब सारे हैं पुलावी और गहि एहसास का है।
कामनाओं का है छोला, भावनाओं की मिठाई।
प्रेम के है प्लेट जिस पर कपट की कुछ है खटाई।
अशोक जी के नवगीतों में उनका 'शिक्षक' सामने न होकर भी अपना काम करता है। 'तनो बंधु' में कवि समाज को राह दिखाता है-
वीणा के सुर मधुरिम होंगे / तुम तारों सा तो तनो बंधु!
ज्ञापन-विज्ञापन का युग है / नूतन उद्घाटन का युग है
हर और खड़े हैं यक्ष प्रश्न / सच के सत्यापन का युग है
जनहित में जारी होने से पहले / खुद के तो बनो बंधु!
शिक्षक की दृष्टि समष्टिपरक होती है, वह एक विद्यार्थी को नहीं पूरी कक्षा को अध्ययन कराता है। यह समष्टिपरक चिंतन अशोक जी के नवगीतों में सर्वत्र व्याप्त है. वे श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित 'कर्मवाद' को अपने नवगीत में पिरोते हैं-
मन किसान जब लड़ा अकाल से / अकाल से
क्यारियाँ सँवर गयीं, कर्म की कुदाल से
फ़र्ज़ का न फावड़ा डरा / खेत हो गया हरा-भरा
विसंगतियों के अतिरेकी-छद्म चित्रण के खतरे के प्रति सजग अशोक जी इस विडंबना को बखूबी पहचानकर उसको चिन्हित करते हैं-
दोष दृश्य में है अथवा खुद दोष दृष्टि का है
गर्मी का मौसम, मौसम लग रहा वृष्टि का है
अर्थ देखकर अर्थ बदल डाले हैं शब्दों ने
विघटन लिए हुए यह कैसा सृजन सृष्टि का है
रोते हैं कामवर, नामवर मौज उड़ाते हैं
पोखर को सागर, सागर को पोखर कहते हैं
अशोक जी छंद को नवगीत का अपरिहार्य तत्व मानते हैं। साक्षी उनके नवगीत हैं। वे किसी छंद विशेष में गीत न रचकर, मात्रिक छंदों की जाती के विविध छंदों का प्रयोग विविध पंक्तियों में करते हैं। इससे कल बाँट भिन्न होने पर भी गीतों में छंद भंग नहीं होता। गीतकार समस्याओं का सम्यक समाधान निकलने का पक्षधर है-
समाधान कब निकल सके हैं / विधि-विधान उलझाने से
सीमित संसाधन हैं फिर भी / छोटा सही निदान लिखें
वह अतीतजीवी भी नहीं है-
आखिर कब तक धनिया-होरी / के किस्से दोहरायेंगे
कलम कह रही वर्तमान का / कोई नव गोदान लिखें।
फ़ारसी अशआर की तरह अशोक जी के नवगीतों के मुखड़े अपना मुहावरा आप बनाते हैं। उन्हें गीत से अलग स्वतंत्र रूप से भी पढ़कर अर्थ ग्रहण किया जा -
किसी परिधि में जिसे बाँधना / संभव नहीं हुआ
उस उन्मुक्त प्रेम को ढाई / अक्षर कहते लोग।
खुली खिड़कियाँ, खुले झरोखे / खुले हैं दरवाज़े
आम आदमी की किस्मत का / ताला नहीं खुला
आ गए जब से किलोमीटर / खो गए हैं मील पत्थर
अनुप्रास, उपमा, रूपक, विरोधाभास, यमक आदि अलंकारों का यथास्थान उपयोग इन नवगीतों को समृद्ध करता है। मौलिक बिम्ब, प्रतीक यत्र-तत्र शोभित हैं। अशोक जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य उनकी लयात्मक कहन है-
उनसे बोलो / पर इतना सच है
अपनी बोली-बानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
बँधी पांडुलिपियाँ हों जैसे / फटही गठरी में
वैसे पड़ी हुई हैं दादी / गिरही कोठरी में
वैसे ही बेकार हो गयी / दादा की काठी
घर के कोने पड़ी हुई हो / ज्यों टुटही लाठी
सुनो-ना सुनो, गुनो-ना गुनो / मन की मर्जी है
किस्सा और कहानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' नवगीत संग्रहों में मैंने लोकगीतों छंदो के आधार पर नवगीत कहे हैं। अशोक जी भी इसी राह के राही हैं। वे लोकोक्तियों और मुहावरों को कच्ची मिट्टी की तरह उपयोग कर अपने गीतों में ढाल लेते हैं। लोकमंच का कालजयी खेल 'कठपुतली' अशोक जी के लिए मानवीय संवेदनाओं का जीवंत दस्तावेज बन जाता है -
बीत गए दिन लालटेन के / रहा न नौ मन तेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
नेता बन बैठा दलगंजन / जमा रहा है धाक
गाजर खां ने भी दे डाली / हमको तीन तलाक
गौरैया सा जीवन अपना / सबके हाथ गुलेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
शिव प्रसाद लाल जी ने ठीक ही आकलन किया है कि अशोक जी की काव्य प्रतिभा शास्त्रों की परिचारिका नहीं, खेत-खलिहानों से होकर निकली है। अशोक जी अपने गीतों में प्रयुक्त भाषा के शाहकार हैं। 'रट्टू तोता बहुत बने / अब अपने गढ़ो, शोध की इतिश्री नहीं करना / कुछ अभी संदर्भ छूटे हैं, तुम हमारे गाँव आकर क्या करोगे? / अब अहल्या सी शिलायें भी नहीं हैं, प्यार की छिछली नदी में मत उतरना / इस नदी में नीर कम कीचड़ बहुत है' जैसी पंक्तियाँ पाठक की जुबान पर चढ़ने का माद्दा रखती हैं।
'अनपढ़ रामकली' अशोक जी की पहचान स्थापित करनेवाला नवगीत है-
रूप-राशि की हुई अचानक / चर्चा गली-गली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
चाँदी लुढ़की, सोना लुढ़का / लुढ़क गया बाज़ार
रामकली की एक अदा पर / उछल पड़ा व्यापार
एकाएक बन गयी काजू / घर की मूँगफली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
धरम भूलने लगीं कंठियाँ / गये जनेऊ टूट
पान लिए मुस्कान मिली तो / मची प्रेम की लूट
ऊँची दूकानों को छोटी / गुमटी बहुत खली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
नवगीतों के कथ्याधारित विविध प्रकार इस संकलन में देखे जा सकते हैं। लक्षणा, व्यंजना तथा अमिधा तीनों अशोक जी के द्वारा यथास्थान प्रयोग की गयी हैं। 'अपने शब्द गढ़ो' का रचयिता गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान नहीं, गंगा-जमुना मानता है। इन नवगीतों में पाठक के मन तक पहुँचने की काबलियत है।
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गीत- नवगीत संग्रह - अपने शब्द गढ़ो, रचनाकार- डॉ. अशोक अज्ञानी, प्रकाशक- न्यू आस्था प्रकाशन, लखनऊ। प्रथम संस्करण- २०१९, मूल्य रूपये १५०/- , पृष्ठ- १३८, आलेख - आचार्य संजीव सलिल, ISBN- ९७८-८१-९२२९४४-०-७
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