सोमवार, 4 नवंबर 2013

सभाध्यक्ष हँस रहा है- सत्यनारायण

’सभाध्यक्ष हँस रहा है‘ की कविताएँ तीन खंडों में विभाजित हैं। ये खंड हैं- ’जलतरंग आठ पहर का !‘, ’जंगल मुंतजिर है‘ तथा ’लोकतंत्र में‘, जिसमें क्रमशः चवालिस गीत, उन्नीस छंद-मुक्त कविताएँ तथा छः नुक्कड़ कविताएँ संग्रहीत हैं।
नवगीत अपने समय के मनुष्य के साथ छाया की तरह लगा रह कर भी अँधेरे में भी उसका साथ नहीं छोड़ रहा है। खेत में खटता किसान, कल-कारखानों का मजदूर, भेद-संहिता की शिकार नारी, स्नेहवंचित शैशव और ऐसे ही और-और संदर्भ अंततः एक समूह के पर्याय हो जाते हैं। जिनका एकमात्र सार्थक नाम है-’जन‘। इस ’जन‘ के सारे सपने, सारी आकांक्षाएँ और सारे सुख जिसके पास गिरवी हैं, उसके भले से नाम हैं ’व्यवस्था‘ और ’सत्ता‘ की निरंकुशता की कहानी ही अधिक कहते हैं।
क्योंकि आज पूरी शोषण-प्रक्रिया भी जटिल और परोक्ष हो गई है, इसलिए कवि का, विसंगतियों पर प्रहार उपहासपरक अधिक है, सपाट नारेबाजी उसका अंदाज-बयाँ नहीं है बल्कि इनका स्वर कुछ ऐसा है;

सुनो कबीर कहत है साधो !
हम माटी के खेल खिलौने
बिकते आए औने-पौने
हम ठहरे भोले भंडारी
खूँटे से बाँधो या नाधो !...

यह बहुत साफ है कि आज हम एक अंधी दौड़ में हैं। सपनों का एक तिलिस्म समय ने हम सबके हाथ में पकड़ा दिया है। जीवन के सारे सत्यों का निर्धारण विज्ञापन के अपुष्ट तथ्यों से हो रहा है। यह रंगीन समय लगता है, हमारे सारे सुकून के पलों को छीन ले जाएगा। भविष्य यदि संकटग्रस्त होता है तो मनुष्यता के लिए यह सबसे अधिक चिंता की बात होती है। हमारा भविष्य ’बचपन‘ में प्रतीकित होता है। सत्यनारायण आने वाले समय की भयावहता को रेखांकित करते हुए अपनी नन्हीं पोती ’एका‘ को सम्बोधित करते हुए सम्पूर्ण शैशव की मनुष्यत्व के भविष्य की संकटग्रस्तता को इस प्रकार रेखांकित करते हैं:
एका, आनेवाला है कल समय कठिन !
दांत समय के होंगे ज्यादा ही पैने
बिखरे होंगे तोते मैनों के डैने
नहीं रहेंगे कथा-कहानी वाले दिन !

सत्यनारायण ने अपने समय की विसंगतियों को ’बोधगया‘ ’पाटलिपुत्र‘ ’वैशाली‘ तथा ’अयोध्या‘ जैसी रचनाओं में नये मिथक गढ़ कर व्यक्त किया हैं। एक समय निराला ने साधारण जन से नामों को उठाकर उन्हें कविता में मिथक के रूप में असाधारणीकृत किया था, जिस शैली को आगे चलकर रघुवीर सहाय ने भी अपनाया था ! श्रीकान्त वर्मा के ’मगध‘ के साथ इतिहास के मिथकीरण की शैली एक नये रूप में हमारे सामने आती है परन्तु सत्यनारायण ने इतिहास और संस्कृति के इन केन्द्रों को जिस रूप में अर्थवत्ता दी है, वह अद्भुत है। उनकी निजता उनकी व्यंग्यात्मकता में है। वर्तमान में मूल्यों का विपर्याय सत्ता केन्द्रों के साथ जुड़ी अवधारणाओं की सम्पूर्ण मूल्यवत्ता को खंडित कर देता है। उसी विसंगत और विद्रूप का रेखांकन कब से वैशाली‘ की मार्मिक व्यंजना हो या नहीं पाटलिपुत्र नहीं हम केवल ’कुम्हरार‘ की जन-संवेदना हो, अथवा ’बोधगया में अब उलटी आ रही हवाएँ की विडम्बना हो कवि के पास भाषा की वह ऊर्जा है जो कथ्य हो रागदीप्त करती है। सफल मिथक वर्तमान से जुड़ कर सार्थक होता है। निम्न पंक्तियाँ ऐसी सफलता का मानक कही जा सकती हैं:
गणाध्यक्ष गणतंत्र, सभासद
सबके मेले हैं वैशाली में
साथ तथागत अब तो लगता है
नगरवधू होकर जीने को विवश आम्रपाली !

किसी कवि की मूल चिंताएँ उसकी कविताओं में आवर्त्ती बिम्बों में व्यक्त हुआ करती हैं। सत्यनारायण ने इस संग्रह में आधा-दर्जन कविताएँ बच्चों को लेकर, उनके भविष्य को लेकर संकलित की हैं। बच्चों की संत्रणा को चित्रित करने वाली ये कविताएँ संवेदना के धरातल पर उन सूचीबद्ध कविताओं से अलग हैं, जो नौंवे दशक में चिड़िया पर आठ कविताएँ, लड़की पर दस कविताएँ और पेड़ पर बारह कविताएँ जैसे शीर्षकों से फैशन के रूप में लिखी गई थीं। दरअसल, फैशन से नहीं, पैशन से प्रभावपूर्ण बनती हैं। बच्चों से सम्बन्धित पैशेनेट् कविता-अंश देखा जा सकता है।
बच्चे-अक्सर चुप रहते हैं !
कौन चुरा कर ले जाता है
इनके होंठों की फुलझड़ियाँ
बिखरी-बिखरी-सी लगती क्यों
मानिक-मोती की ये लड़ियों
इनकी डरी-डरी आँखों में
किन दहशतों के नाम पते हैं ?

सत्यनारायण के पास गीत रचने की जितनी तरल संवेदनात्मक हार्दिकता है, मुक्त छंद में बौद्धिक प्रखरता से सम्पन्न उतनी दीप्त और वैचारिक भी है। एक विवश छटपटाहट उनकी कविताओं में विशेषतः उपलब्ध होती है, जिसका मूल कारण आम आदमी की यंत्रणा के सिलसिले का टूट न पाना है। ’जंगल मुंतजिर है‘ की उन्नीस कविताएँ कवि के एक दूसरे सशक्त पक्ष का उद्घाटन करती हैं। शब्द की सही शक्ति का अन्वेषण ये कविताएँ एक व्यापक फलक का उद्घाटन करती है।

कवि यह भी मानता है कि ’अकेला‘ शब्द निहत्था होता है। उसके हाथ में और शब्दों के हाथ दे दो... वह हर मौसम में खड़ा रहेगा तनकर।‘ ’माँ की याद‘ और ’बाबूजी‘ यदि नये समय की परिवारों पर पड़ती चोट को व्यक्त करती कविताएँ हैं तो ’यक्ष-प्रश्न‘ फिर पौराणिकता में लौट कर नये सवालों को हल करने का प्रयास है। कवि को सबसे अधिक कष्ट यथा स्थितिवाद से है। इसीलिए वह सवाल करता है:

आखिर कब तक यों ही चलेगा
और तुम लगातार बर्दाश्त
करते रहोगे ?
मत भूलो,
खेत में खड़ी बेजुबान फसल की तरह
वह तुम हो
जिसे बार-बार मौसम का पाला मार जाता है।


पाठक और श्रोता तक पहुँचने के लिए कविता आज अँधेरे में कुछ टटोलते व्यक्ति का बिम्ब नजर आती है। न धूमिल का अक्षरों के बीच गिरा आदमी आज कविता के साथ जुड़ा है और न कोई मोचीराम उस तक पहुँच पा रहा है। कविता से समाज की इतनी अजनबीयत है शायद ही किसी दौर में रही हो। आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि कविता के युग-नायक अपनी गजदंती मीनारों की ऊँचाइयों में बैठ यह देख नहीं रहे हैं कि उन्हें पढ़ा भी जा रहा या नहीं। सत्यनारायण ने तीन दशक पहले ही इस खम्बे से टकराकर जो रास्ता निकाला था, वह आम आदमी के कविता से जुड़ने का सही मार्ग है। उनकी नुक्कड़ कविताएँ जे.पी. आंदोलन में यदि लाखों की भीड़ में सुनीं, समझी और सराही जा सकती थीं, तो इससे बड़ कर कविता की सम्प्रेषणीयता क्या हो सकती है ! ’सभाध्यक्ष हँस रहा है‘ के लोकतंत्र खंड की रचनाओं की यही सबसे बड़ी शक्ति और सार्थकता है। विदूषक परिवेश में भाषा का यह रूप ही सत्य को अनावृत्त कर पाता है।

राजा रहे सलामत, परजा
झुक-झुक दुआ करे !
पाँच बरस पर राजा जाए
परजा के घर-द्वार
गद्गद् परजा किया करे
राजा की जय-जयकार

यह संग्रह समय की भयावहता और अँधेरों को चिन्हित तो करता है पर यह निराशा की कविता नहीं है। जब कविता इतने-इतने रंगों में जीवित है; पसीने से लथपथ होकर भी आम आदमी के पास खड़ी है, संस्कृति का नया अध्याय रच रही है, तब हम यह नहीं कह सकते कि सब कुछ नष्ट हो गया है, हमारे हाथों में कुछ बचाया नहीं हैं। जिस युग में कवि के भीतर हँसते सभाध्यक्ष पर व्यंग्य के कोड़े बरसाने का साहस जिंदा है, उस युग से निराश नहीं हुआ जा सकता !
सत्यनारायण की पाठक से गुपचुप संवाद करती ये कविताएँ हमारे पास यही संकेत छोड़ती हैं।
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गीत- नवगीत संग्रह - सभाध्यक्ष हँस रहा है, रचनाकार- सत्यनारायण, प्रकाशक- अभिरुचि प्रकाशन, ३/१४ कर्ण गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण- २०१२, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- १००, समीक्षा लेखक- डॉ. राजेन्द्र गौतम 

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