गुरुवार, 1 सितंबर 2022

शोक गीतों के समय में- शुभम श्रीवास्तव ओम

श्वेतवर्णा प्रकाशन से प्रकाशित 'शोकगीतों के समय में' शुभम श्रीवास्तव ओम का तीसरा नवगीत संग्रह है। मात्र २८ वर्ष की उम्र में उनका तीसरा नवगीत संग्रह प्रकाशित होना नवगीत के प्रति उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता का प्रतीक है। पुस्तक में कुल ७० नवगीत हैं।  वरिष्ठ नवगीतकारों के बीच उनका नवगीत संग्रह उन्हें अलग पहचान दे रहा है। नवगीत विधा जो मुख्यतः बिंबों पर आधारित होती है, उसके रचे अनोखे बिम्बों की प्रस्तुति विशिष्ट पहचान बना रही है। 

किसी भी पुस्तक में लेखक का दृष्टिकोण 'मेरी बात' आलेख से दृष्टिगत होता है। मेरी बात में नवगीत के प्रति शुभम जी का नजरिया बिल्कुल स्पष्ट है। कवि लिखते हैं कि इस संग्रह का उद्देश्य नवगीत को कोरी भावुकता में पिरोना नहीं बल्कि तर्क और बुद्धि की कसौटी पर जाँची-परखी गई संवेदना की गीतात्मक प्रस्तुति है। यह सुखद है कि इन दिनों एक साथ तीन पीढ़ियां नवगीत लेखन में सक्रिय है उनके द्वारा भाषा और शिल्प के स्तर पर लगातार प्रयोग व परिष्कार हो रहे हैं। इस संग्रह के गीतों में बदलती साहित्यिक आवश्यकताओं और उत्सवधर्मी लोकमन की त्रासद स्थितियों से, टकराहट से उपजे अंतर्द्वंद की अभिव्यक्ति की कोशिश की गई है। 

गीतों के कथ्य पर बात करें तो आज के त्रासद माहौल में जबकि साहित्य में समाज की विसंगतियों पर बात हो रही है, ऐसे समय में उत्सव गीत लिखना लेखक की विशाल सोच को दर्शाता है। कथन- भंगिमा एवं बिम्ब सटीक और आकर्षक है।

शोक गीतों के समय में
एक उत्सव गीत लिखकर
खुश हुआ मन

युद्ध गीतों के समय में
एक सहमति गीत लिखकर 
चुप हुआ मन

कवि का कहना है कि गीतों के लिखते समय शब्द चयन महत्वपूर्ण है। गीतों का सौंदर्य शब्दों के सौंदर्य पर निर्भर करता है गीतों में माधुर्य शब्दों के कारण ही आता है। कोई भी कथन सीधे सपाट शब्दों में उतना प्रभावित नहीं कर पाता जितना आभूषित शब्द करते हैं। शब्दों के दाने चुन चुनकर चिड़िया रूपी लेखनी चहकती है तो कर्णप्रिय होती है। उससे प्रेरणा लेकर एक नवकवि बिल्कुल दर्जी सा प्रतीत होता है जब वह शब्दों को नए प्रकार से सजाकर या कभी उन्हें काट-छाँटकर नया आकर्षक परिधान तैयार करता है। कवि के लेखन की बानगी देखें-
शब्द थोड़े और चुनकर गीत कोई गुनगुनाना
सीखती है एक चिड़िया जिस 
तरह से चहचहाना

हर तरफ छाया हुआ जब एक सा मौसम जिरह का 
है चुनौती इस समय अब गीत लिखना उस तरह का 
सीखता है एक लड़का जिस 
तरह कैंची चलाना।

कवि की उम्र अभी कम है और उन्होंने बचपने को खत्म किया है, वह इस नवगीत में बहुत अच्छी तरह से दृष्टिगोचर हो रहा है। किशोरवय तक आते-आते बच्चों की चंचलता कहीं विलुप्त हो जाती है। वे दुनिया को समझने की चेष्टा करने लगते हैं। कई बातों के लिए उसके मन में कई प्रश्न उपजने लगते हैं। उन प्रश्नों को वे किसी के सामने रखना भी नहीं चाहते। स्वयं मन ही मन चिंतन करके उनके हल पाना चाहते हैं। इस समय की उसकी मानसिक अवस्था उसे चुप कर देती है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे हर मनुष्य गुजरता है। इस कथ्य को लेना कवि की परिपक्वता दिखा रहा है जिसे कवि शानदार लेखन शैली में प्रस्तुत करते हैं- 
पल पल के मेमो रिमाइंडर
सिर्फ जरूरत भर मुस्काना 
प्ले ग्रुप से डे बोर्डिंग तक में 
बच्चे का चुप्पा हो जाना

बहुत ही स्पष्ट अभिव्यक्ति के साथ उनके नवगीत आगे बढ़ते हैं। आज जबकि चारों ओर दिल को दहलाने वाली खबरों की भरमार है, ऐसे में चंद शब्दों में उस स्थिति को समेट लेना कवि की कलम का कमाल है। कथ्य, बिंब, शिल्प और भाषा शैली से एक संवेदनात्मक स्थिति को नए रंग रूप में ढाल देना बिल्कुल वैसा ही है जैसे एक कुंभकार मृत्तिका को घट जैसे शीतल पात्र में ढाल देता है। आतंकवाद और महामारी से हो रही मौतों पर लोगों की संवेदनहीनता को लेकर सजग करती पंक्तियाँ मन के भीतर तक जा पहुँचती हैं। कवि की लेखनी ने कथ्य के साथ भाषा शैली के साथ भी पूरा न्याय किया है।
देह की सहमति नहीं कंकाल से 
लोग नाखुश भी नहीं इस हाल से
पीठ में खंजर चुप हुई चाल से 
लौट आए लोग फिर हड़ताल से 

चेतना पर जम गई मोटी बरफ है
आत्महंता दृश्य ही चारों तरफ है 
क्या सबक लेना है पिछले साल से

कई सामाजिक परिस्थितियाँ अनचाहे ही पैदा हो जाती हैं। २०२०-२१ में महामारी के रूप में कोविड ने पाँव फैलाना आरंभ किया। उस वक्त अपना घर और अपने रिश्तों की याद आना स्वाभाविक था। कोरोना काल में अपने गाँव की ओर लौट आये भाई बन्धु किस तरह लौट आए। लौट आना तो अच्छी बात रही, पर बंधु-बाँधवों द्वारा स्वागत भी क्या दिल खोलकर हो सका ? परिचितों के बीच चिन्ता और भय का माहौल बन गया। संक्रमण की भयावहता इतनी थी कि सोच भी संक्रमित होने लगी। कवि ने कथ्य को सुन्दर शैली में नवगीत में उतारा है-
गाँव में कुछ लोग लौटे हैं शहर से!
कौन जाने, कौन- क्या लाया कहाँ से
सोचने का हर सिरा 
गुजरा यहाँ से

पर्यावरण की अशुद्धता से उत्पन्न मुश्किलों से तो संसार त्रस्त था ही, साथ में कोरोना रूपी जैव आयुध का वार कब किसे उस लोक की ओर रवाना कर दे, इस भय ने एक अजीब सी स्थिति पैदा की। बुखार पहले भी होते थे, संक्रमण के प्रति भी जागरूकता थी। पर इस विश्वमारी में अदृश्य शत्रु ने मानव मन को सुन्न कर दिया। कई सतर्कताओं के बाद भी चुपके से कब कौन किसे यह विद्रुप सौगात दे जाए, इसपर सभी सशंकित थे। अनिश्चितता से भरे जनजीवन में बीमार होना एक अपराध की तरह महसूस होने लगा। किसी ने भीड़ में खाँस दिया और सबकी डरी हुई तिर्यक नजरें उधर घूम जाएँ तो जो ग्लानि का भाव उत्पन्न हुआ वह तो खाँसने वाला ही समझ सका। कवि की भाषा शैली देख वाह की अनुभूति होती है।

रोज के बढ़ते गले से फेफड़े तक 
क्रूर, शातिर सोच के अदृश्य हमले 
खून का बस एक कतरा साथ कफ के 
एक डर सा बो गया है 
खाँस लेना!

कवि के कथ्य में सकारात्मकता तो है ही, शिल्प भी शानदार है, बिंब सुंदर हैं।

एक सपना तुम सजाओ, एक सपना हम
लोकमन पर मौन के ताले जड़े इन सांकलों से
हम खड़े हैं हम लड़ेंगे एकजुट होकर कठिन होते पलों से

नवगीत चिंतन का अवसर देता है। प्रबुद्ध सुधिजन उसपर मनन करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। नवगीत प्रश्नवाचक भी होते हैं। मन के शिथिल सिंधु पर हलचल मचाने वाली एक कंकरी के समान होते हैं। सत्य का दर्शन करवाने वाले नवगीत सत्य के साथ-साथ कवि की बुद्धिमत्ता के भी कायल हो जाते हैं। इससे पाठक समाज पर कवि की बारीक दृष्टि एवं सामाजिक सरोकार से भी अवगत होते हैं।
चर्च- मस्जिद या शिवालों के लिए हम 
कब लड़े हैं अस्पतालों के लिए हम
इस तरफ शव उस तरफ शव 
किस किनारे ज़िन्दगी ठहरे

इस संग्रह के नवगीतों में कवि शुभम जी के कथ्य, शिल्प, भाषा शैली सभी सुंदर हैं, साथ ही बहुत कुछ अलग हटकर भी कहने की कोशिश की गई है। कोरोना काल में जब कि एक-एक साँस के लिए लोग संघर्षरत थे और अस्पतालों में बेड की कमी पड़ गई थी, उसकी अभिव्यक्ति सुंदर बन पड़ी है-
स्टैंडबॉय पर चुकती साँसें ढूँढ रही हर ओर बेड हैं 
अपनी स्थितियाँ सेल्फ मेड हैं
इस कठिन होते समय को
गीत में कर लें सुरक्षित

कोरोना-काल में घटी हर घटना को कवि ने सार्थक बिंबों के साथ नवगीत को सँजोया है। लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही सहम गए देश के एक-एक बदलाव को लेखनीबद्ध करना कवि को अलग पहचान देता है। नदियाँ सूनी, सड़क भी सूने, साँय साँय करते घरों का सुन्दर चित्र पेश किया गया है। 

काली-सर्पिल/ ताजा ताजा/ केंचुल छोड़ी सी
दूर सड़क पर/ चहल-पहल/ अब भी है थोड़ी सी
नैतिकता से/ कतराना/ नैतिक-स्वभाव है
कमरे-कमरे/ असमंजस का/ जलजमाव है
विदा-पुष्प देने को/ सँकुचाते हाथ
मन ही मन साल रहा/ छूट रहा साथ

तत्कालीन सामाजिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक पर सटीक अभिव्यक्ति वाकई अद्भुत है। गुणों से परे जाकर चापलूसी और मठाधीशी पर करारी लेखनी चली है। नवगीत के हर नियम का पालन करते हुए सृजन किया गया है जो पाठकों को अवश्य पसंद आएगा। यह नवगीत मैं पूरा दे रही हूँ। उसे पढ़कर पाठकगण उनके अन्य नवगीत पढ़ने के लिए अवश्य उत्सुक हो जाएँगे। 

तुम मुझे प्रस्तुत करो, मैं तुम्हें प्रस्तुत कर रहा
इसी ‘मैं-तुम” में हमारे दौर का 
सच मर रहा।

मैं तुम्हारे लिए लाऊँ 
शब्द कुछ कहवाघरों से गर्म ताजी छौंक वाले 
और लाओ तुम पुराने शिलालेखों,  सभ्यताओं से टँके बौद्धिक निवाले
क्या अभी तक की पड़ी है, क्या अभी का 
डर रहा।

हमें अपने मंच-तम्बू
दरी जाजिम पंचलाइट साथ मिलकर हैं लगाने 
बड़े मठ के गर्भगृह में बैठकी होगी, लगेंगे कहकहे आओ फलाने!
कौन आया पैर छूने, कौन छूकर 
तर रहा।

शुभम श्रीवास्तव ओम जी को कई पुरस्कार, सम्मान मिल चुके हैं। उनकी लेखनी अनवरत चलती रहे और साहित्य जगत उनकी रचनाओं से समृद्ध होता रहे इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएँ

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नवगीत संग्रह- शोक गीतों के समय में, रचनाकार- शुभम श्रीवास्तव ओम, प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०२१, मूल्य- रु. २००, पृष्ठ- १०८, परिचय- ऋताशेखर मधु, आईएसबीएन क्रमांक- 978-93-92617-31-7

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