बुधवार, 1 जून 2022

कुछ ठहर ले और मेरी जिंदगी- गिरिजा कुलश्रेष्ठ

गिरिजा कुलश्रेष्ठ के गीत संग्रह कुछ ठहर ले और मेरी ज़िन्दगी” जीवन में चलने वाले उथल- पुथल की प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। संग्रह के १११ पृष्ठों में ६९ गीतों को सहेजा गया है। ये गीत वर्ष १९७५ से २०१४ के बीच लिखे गए हैं। गीतकार ने अपनी बात में लिखा है-
काँटों को मैं अपना लूँ, या
मृदु कलियों को प्यार करूँ
ये दोनों जीवन के पहलू
किसको मैं स्वीकार करूँ

संग्रह का शीर्षक,  उनकी प्रथम कविता है। जीवन में आए झंझावातों से थकी ज़िन्दगी को सांत्वना देकर, बहला फुसलाकर कुछ दिन और रुकने का आग्रह करती लेखिका की सकारात्मक लेखनी पाठकों में आशा की किरन जगाती है। वे कहती हैं-  काँटो की चुभन से अधिक पुष्प का खिलना भाया।

एक गीत १९८७ का है जिसका शीर्षक है ‘सूर्य गीत’।  दिनकर का आगमन होता है तो जग अपनी गति पकड़ता है।

तुम उगे तो
जग हुआ लयमान
तुम भले दिनमान

कवयित्री का गीत गीत बनकर गूँज मार्मिक है। यहाँ दर्द का आह्वान किया है। जीवन की व्यस्तता और समाज की असंवेदनशीलता का वर्णन है-
आह भरने सिसकने की है मुझे फुरसत कहाँ
बोझ इतना बाँटने को कौन आता है यहाँ

गिरिजा जी ने शहरी जीवन की विसंगतियों पर भी बहुत ही सटीक प्रकाश डाला है। यह जीवन बाहर से जितना भी भरमाए किंतु नजदीक जाने पर जो त्रासदी समझ में आती है वह लेखिका ने इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त किया है-

कितना विचारें, कि किसको पुकारें

अजब मुँह चिढ़ाती हैं मन की दरारें
अकेले ही सहते हैं हम हर कहर
कि साँसों में घुलता है हर पल जहर

'तुम भी जानो' गीत में लेखिका ने सर्वव्यापी परमेश्वर का आह्वान किया है। अंतर्मन की पीड़ा को या तो अपना ही मन समझ पाता है या फिर वह ईश्वर जिसने हमें यहाँ भेजा है। इस गीत का प्रथम अंतरा ही मंच मन को उद्वेलित करता है।

इस आकुल अंतर की बातें मैं जानूँ तुम भी जानो
निर्जन में कितनी बरसातें मैं जानूँ  तुम भी जानो
...

कैसे आहत करती रातें मैं जानूँ तुम भी जानो।
...

दुर्लभ हैं सच्ची सौगातें मैं जानूँ तुम भी जानो।

लेखिका का परमपिता के प्रेम पर अगाध विश्वास इस गीत में छलक रहा है। यही विश्वास हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। जब जब निराशा गहराती है, कोई तो है जो हाथ थाम दिलासा दे जाता है।

जब दर्द कोई गहराया अंतर मेरा घबराया
था कौन निकट जो आया मुझको आश्वस्त बनाया
जब जाना मैंने पाया वे तेरे दो अक्षर थे।

'वह बात' गीत में अनकहे प्यारे सन्देश को लेखिका ने प्रकृति के माध्यम से बहुत माधुर्य के साथ प्रेषित किया है।

कह दी हवाओं ने जो बात मेघों से,
हुए पानी-पानी फुहारें सुहानी।
फूँकी जो मौसम ने टहनी के कानों में
पल्लव मुस्काये और अमुआ बौराये।

'अहसास' गीत उस अनदेखी शक्ति को समर्पित है जो हर पल अपना अस्तित्व स्वीकार करवाने की क्षमता रखती है। सृष्टि के कण कण में रमी वह शक्ति जीवन के कठिन पलों में सभी को संभाल लेती है और इस तरह बार बार अपनी उपस्थिति का सहज अहसास करवाती है। प्रकृति के जीवनदायी सौंदर्य में भी वे इस शक्ति को देखती हैं।

तुझको इतना पहचानूँ दृग ओझल क्यों कर मानूँ
पल्लव की कोमलता में स्पर्श तेरा अनुमानूँ
उगते रवि की लाली में सुरभित मधुमय प्याली में
स्नेह पीयूष पिया तेरा अहसास जिया।

चाहे कितनी भी विसंगतियाँ मिलें, जीवन मे आगे बढ़ते जाना ही मुख्य उद्द्येश्य होना चाहिए। थक हार कर बैठ जाना जीवन के प्रति अन्याय है। इसे गीतकार गिरिजा जी ने 'आकांक्षा' शीर्षक के गीत में बहुत सुंदर शब्दों में पिरोया है।

तुम केवल उनको सुनना अंतर की भाषा गुनना
पग कितने शूल चुभे हैं मन कितने दर्द छुपे हैं
अब तो उल्लास भरूँगी
मेरे संग होगी प्रीति।

'माँ' पर रचा गया उनका गीत वात्सल्य का सम्पूर्ण कलश है। माँ पर जितना भी लिखा जाए वह कम है। गिरिजा जी ने जो लिखा वह बेहद हृदयस्पर्शी है। बिम्बों की प्रस्तुति ग्राह्य और मनोरम हैं।

छलका है वात्सल्य सूर के छंदों में इसका
गिरधर की कुण्डलिया तुलसी की चौपाई माँ
'हरि' की मोहक मधुर बाँसुरी
'रवि' का सरस सितार
पावन अनुपम 'बिस्मिल्लाह खाँ' की
शहनाई माँ।

हर वक़्त जिंदगी की रफ्तार एक सी रहे यह सम्भव नहीं। तेज भागती हुई कभी मंथर चाल से चलने लगती है। यों लगता है कि सब कुछ ठहर सा गया है। न कदम बढ़ते हैं न बढ़ने की चाह ही शेष रहती है। कवयित्री की अभिव्यक्ति देखें-

आसमां पर शाम का पहरा हुआ-सा है
वक्त जाने किसलिए ठहरा हुआ-सा है
रुक गई है जिंदगी उस मोड़ पर जाकर
खुद से ही अनजान यह चेहरा हुआ सा है

पाठक इन गीतों को पढ़ते हुए, गिरिजा जी की सकारात्मक सोच को आत्मसात करता जाता है। यही इन कविताओं की सबसे बड़ी सफलता है। जीवन की हर उलझन में प्यार को बचाये रखना बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह प्यार ही है जो सदा आगे बढ़ने को प्रेरित करता है, मझधार में पतवार बनता है, उपवन की खुशबू बन जाता है।

रहने दो कुछ प्यार
हृदय में रहने दो कुछ प्यार

नफरत के बदले नफरत तो हम भी दे सकते हैं
समझो इसका अर्थ तुम्हारे आगे जो झुकते हैं
क्योंकि जहाँ पर सुरभि नहीं
वह उपवन है बेकार
रहने दो प्यार
हृदय में रहने दो कुछ प्यार

गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की संवेदनशीलता इस बात से झलकती है कि एक गीत उन्होंने ११ सितंबर १९८७ को रचा जो सुश्री महादेवी वर्मा जी का प्रयाण दिवस था। साहित्य, कविता, कवयित्री और लेखन के प्रति उनका समर्पण महादेवी जी के लिए समर्पित कविता में अद्भुत रूप से दिख रहा। महादेवी जी की कविताओं के प्रति अपने उद्गार प्रदर्शित करते हुए अपनी व्यथा इस प्रकार लिखती हैं-

तुमने करुणा-जल जलपूरित जो काव्य- तरंगिणी लहराई
विगलित भावों से जैसे मरु में हरीतिमा मुस्काई
छू लेता है मर्म व्यथा से अक्षर अक्षर गुम्फित है
आज तुम्हारे लिये।

चली गई हो देवी अलौकिक राहों को तुम महकाने
जीवन भर पीड़ा में जिसको ढूँढा उस प्रिय को पाने
नीर भरी दुख की बदली का
जल कण-कण से अर्जित है
आज तुम्हारे लिये।

'किसलिये' गीत में कवयित्री ने जीवन के अनसुलझे पहलुओं की व्यथा का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। जब जीवन के संताप अभिशाप से नजर आते हैं और और आगे कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। जब जीवन पथ कंकडों से भर जाता है, उन कठिन पलों की अनुभूति कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई है-

बीहड़ों की कंकरीली राह सी हुई
जिंदगी यों किसलिये गुनाह सी हुई

यह जो संताप है किसका अभिशाप है
गीत बन सका न दर्द बन गया प्रलाप है
सौतेले रिश्तो के डाह सी हुई
जिंदगी यू किस लिए गुनाह सी हुई

एक अन्य गीत 'बसंत का गीत',  में प्रकृति का मनोहारी वर्णन है। वसंत ऋतु के आते ही रजाई का छूट जाना, कोयल की कूक का आरंभ होना, सरसों का खेतों में बिखर जाना, गुलमोहर का लालित्य आँखों में समा जाना, अमराई की खुशबू से प्रीत का बौरा जाना, इन सारे सारे स्थितियों को बिम्बों के माध्यम से रच देना उनकी विशेषता है। एक बंद देखें-
भोर ने उतारी कुहासे की शाल
किंशुक कपोलों पर मलता गुलाल
सरसों ने खोले हैं अपने किवाड़
भर लाया गुलमोहर
कुमकुम के थाल

'चाँदनी' शीर्षक के गीत ने लेखिका ने चाँदनी को अति सुंदर सुरम्य मनोहारी शब्द दिए हैं।

धूप मानो गर्व है अभिमान है, चाँदनी स्नेहमय मुस्कान है
चंद कवि ने लिख दिए हैं ज्यों रूपहले छंद।
मौन कोई पढ़ रहा है, प्रीति के अनुबंध
नेह आकुल मालिनी का मान है
चाँदनी स्नेहमय मुस्कान है।

गिरिजा जी की एक गीत है' राज'। उसमें उन्होंने एक निश्चल और एक छली के बीच तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए सुंदर रचना की है।

लगे हादसे भी अपने
उनको अफ़साने हैं

जीवन के कुछ राज रहे अब तक अनजाने हैं
झूठ बोलकर भी वह सच्चे, हम झूठे सच कह कर भी
सदा हाशिए पर ही हैं हम मुख्य कथानक होकर भी
उनके दुख तो दुख
हमारे सिर्फ बहाने हैं

गजलनुमा गीत ‘क्या करें’ में बहुत बेबसी है। एक बंद देखें-
वोटों की भीख माँगी, कितने करार करके
भूले जो जीतकर वो, आवाम क्या करे

आधुनिक समाज में बच्चे जब बड़े होने लगते हैं तो जीवन में क्या क्या बदलाव आता है, किस तरह समय के साथ बदलते हुए बच्चे जेनेरेशन गैप का शिकार होकर माता पिता से दूर हो जाते हैं, किस प्रकार पीढ़ियों की दूरी परिवार पर असर डालती है इस पर भी गिरिजा जी ने बड़े ही सधे हुए शब्दों में गीत की संरचना की है। इसका सटीक वर्णन देखें-

अब उसके अपने दिन हैं अपनी ही रातें हैं
अपने तर्क विरोध बहस अपनी ही बातें हैं
माँ की उँगली छोड़ पाँव खुद खड़ा हो रहा है
बेटा बड़ा हो रहा है

अपने गीत ‘आग’ में गिरिजा जी ने किसी भी वस्तु या भावना के सदुपयोग या दुरुपयोग पर सार्थक प्रकाश डाला है। भावनाओं और संवेदनाओं के सही-गलत प्रयोग का क्या असर समाज पर हो सकता है यह हम सब जानते हैं। अगर संवेदनाओं और भावनाओं को गलत दिशा मिल जाए तो वे देश और समाज के लिये घातक सिद्ध हो सकता है। वे कहती हैं-

आग तेरे पास भी है
आग मेरे पास भी है
करना क्या उपयोग आग का बात यही है खास।

गिरिजा जी प्रकृति से प्रेरणा लेती हैं, ईश्वर पर विश्वास रखती हैं और समाज के प्रति जागरूक हैं। वे हर प्रकार के दुखों से जूझती हैं और आशावादी बनी रहती हैं। वे देश की अनेक घटनाओं को अपनी कलम से छूती हैं और अनेक समस्याओं के समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह पाठक को साहित्यक दृष्टि समृद्ध बनाता है, समस्याओं के प्रति जगाता है और जीवन संग्राम के हल खोजने को प्ररित करता है।
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गीत- नवगीत संग्रह - कुछ ठहर ले और मेरी जिंदगी, रचनाकार- गिरिजा कुलश्रेष्ठ, ज्योतिपर्व प्रकाशन, ९९ ज्ञानखंड-३, इंदिरापुरम, गाजियाबाद। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य सजिल्द- रूपये १९९/- ,  पृष्ठ- १११, आलेख - ऋता शेखर मधु

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