रविवार, 1 अक्टूबर 2017

बस्ती के भीतर - अवध बिहारी श्रीवास्तव

अवध जी नवगीतकारों की अग्रगण्य पंक्ति के ऐसे रचनाकार हैं जो मात्रात्मक न रहकर गुणवत्ता को समर्पित होकर निरन्तर सर्जनारत हैं तथा आयु के बयासीवें साल में 'हल्दी के छापे' और 'मंडी चले कबीर' के बाद अपने तीसरे नवगीत संग्रह 'बस्ती के भीतर' को लेकर उपस्थित हुए हैं। उनके के ये गीत अपनी विशिष्ट भाषा और शिल्प के द्वारा समाज में फैली विसंगतियों और विद्रूपताओं के सूक्ष्म अनुवीक्षण से उद्भूत स्वाभाविक अनुभवजन्य यथार्थ को सहज-सरल शब्दों में पिरोकर युगबोध को शब्दांकित करने वाले रचनाकार की सर्जना ने प्रथमदृष्टया ही आकर्षित कर लेते हैं। 

अवध जी का प्रस्तुत नवगीत संग्रह 'बस्ती के भीतर' अपनी विविधतापूर्ण रचनाओं के द्वारा विशिष्ट है जिसमें मानवीय संवेदनाओं और  भावुक पारिवारिक रिश्तों की स्वाभाविक ऊर्जा को बड़ी सरलता से शब्दों में उकेरा गया है। इन गीतों में जहाँ निकटस्थ रिश्तों से जुड़े प्रसंग हैं वहीँ आमजन की अभावग्रस्त जिंदगी, समाज में दबंगों की दरिंदगी, परदेश में रहते हुए व्यक्ति की अपनी निजी भावुकता और  उससे जुड़े रिश्तों की मार्मिक संवेदनाएँ, युगबोध के विभिन्न आयाम तथा ध्यान-अध्यात्म की बारीक अनुभूतियों को भी गीत के माध्यम से सफलतापूर्वक व्यक्त किया गया है। इतनी गंभीर सर्जना के साथ ही अवध जी, वसंत के मौसम में तन-मन पर पड़ने वाले मादक छुअन के उत्फुल्लता भरे प्रभाव और फागुन की मस्त बयार से बूढ़े ज़िस्मों द्वारा उम्र  की  सीमाएँ तोड़कर युवा-सुलभ चेष्टाओं को भी सहजता से व्यक्त कर पाए हैं।
प्रस्तुत संग्रह  'बस्ती के भीतर' में अवध बिहारी श्रीवास्तव जी ने अपने बासठ नवगीतों को स्थान दिया है जिनमें जीवन के बहुमुखी अनुभवों को अपनी विशिष्ट शैली में गीतों में पिरोया है। भावुक पारिवारिक और मार्मिक रिश्तों के ताने-बाने को गीतों में इस तरह बुना है कि कथन की स्वाभाविकता स्वयं परकायाप्रवेश करती हुई पाठक की अपनी ही अभिव्यक्ति लगने लगती है। संबंधों की अंतरंगता के इन गीतों में प्रमुख हैं, 'बेटी होना' ,'बहू का बयान' ,'दादी', 'बेचैनी', 'कमासुत', 'तीसरी बेटी', 'माँ के न रहने पर', 'कन्यादान' और 'बँटवारा' आदि। परिवार की अभावग्रस्त परिस्थितियों में मानवीय चेतना के निर्माण की प्रक्रिया से गुजरते गीत संवेदना के बिंदुओं को इस प्रकार छूते हैं कि पूरा चित्र सामने आ जाता है और यही अवध जी की सर्जना का वैशिष्ट्य है जो संग्रह के नवगीतों में गुँथा हुआ है। 'बेटी होना' गीत की मार्मिक पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं जिसमें स्त्री का जीवन दूसरों के लिए ही स्वयं को ढालने में बीत जाता है और उसकी अपनी अस्मिता के लिए कभी समय और स्थान नहीं मिल पाता : 
'अच्छी 'पुत्री' अच्छी 'पत्नी'
अच्छी 'माँ' मुझको होना था 
सबके साँचे में ढलने से 
अपना ही साँचा खोना था 

मैं सबकी बनकर खड़ी रही 
कोई मेरा बनकर न मिला  
मैं तो जन्मी थी पंख लिए 
पर, उड़ने का अवसर न मिला' 
*
'बहू का बयान' गीत भारतीय परिवार की उस बहू का आत्मकथ्य है जो परिवार में संतुलन बनाती हुई स्वयं पति द्वारा प्रताड़ित होकर भी मौन रहकर सहन करती रहती है। गीतांश की पंक्तियाँ देखिये :
'खिड़की से जितना दिखता है 
उतना ही सावन मेरा है

श्रृंगार किये गहने पहने 
जिस दिन से घर में उतरी हूँ 
पायल बजती ही रहती है 
कमरों-कमरों में बिखरी हूँ 

कमरों से 'चौके' तक फैला 
बस इतना आँगन मेरा है 
*
हैं जहाँ नहीं 'नीले निशान'
बस उतना ही तन मेरा है 
खिड़की से जितना दिखता है 
उतना ही सावन मेरा है'

परदेश में कमाने गए घर के बेटे के आने की सूचना भर से पूरा घर उसकी पसंद का ध्यान रखते हुए तैयारी में जुटा हुआ है। बहन भाई के आने से भौजी की मगन मानसिकता तथा सारे घर के सदस्यों के मन में हुई हलचल को व्यक्त  करते हुए  कहती है-
'भइया आने वाले ही हैं 
भौजी हुई मगन 
भौजी गाढ़ महावर रचकर 
पियरी में सोहें
भइया के आने का रस्ता 
खड़ी-खड़ी जोहें 
कल थी 'व्रत की तीज' आज है 
उनका भी पारन'

तीसरी बेटी होने पर उसे एक अभिशाप की तरह माना जाता है। उसे बेटों की तरह का प्यार नहीं मिल पाता  और कदम-कदम पर उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। जहाँ 'तीसरी बेटी' शीर्षक के गीत में इसी व्यथा को व्यक्त किया है वहीँ 'कामवाली' गीत में हाड कँपाऊ जाड़े में कामवाली लड़की के न आने पर घर में उठती प्रतिक्रिया को शब्द दिए हैं। पुश्तैनी संपत्ति के बँटवारे के फलस्वरूप परिवार के सदस्यों में बने वैमनस्य का चित्र 'बँटवारा' गीत में दादी के रुदन को प्रकट करते हुए व्यक्त किया है :
'पाँच भाइयों में बँटवारा 
पुरखों की दी हुई धरोहर 
बाबा नहीं चाहते थे इन 
बच्चों का ऐसा बँटवारा 
जीते जी ही मरे हुए थे 
बेटों ने गोली से मारा 
बर्बादी की यही कहानी 
बाँच रही है 'दादी' रोकर'

अभावग्रस्त जीवन की त्रासदी भोगते लोग, दबंगों की मनमानी और पीड़ितों द्वारा प्रतिरोध के लिए केवल पुरुष ही आक्रोशित नहीं होते लडकियाँ भी अपने ढंग से प्रतिवाद के तरीके अपनाती हैं। संग्रह के गीत ,'कच्ची दीवारें' ,'विषकन्या' ,'बलात्कार', 'कूड़ा चुनती लडकियाँ', 'तब आये बादल', 'मूडी गाड़े बैठी लड़की', 'जारी है परिपत्र', 'नून-तेल लकड़ी' आदि शीर्षक के गीतों में अवध जी ने अपनी जनपक्षधरता को बनाये रखते हुए सफलतापूर्वक शब्दांकन किया है। 'कूड़ा चुनती लडकियाँ' गीत की पंक्तियाँ देखिये जिनमे दादी को अपना बचपन याद आ जाता है कि पोती के समय तक आकर भी कुछ भी नहीं बदला और निर्धन लोगों के सामने भूख की विभीषिका ज्यों की त्यों है-
'' 'दस' की 'बारह' की दो बहनें
रोज जुटाती हैं 
घर के लिए रोटियाँ दिनभर 
कूड़े से चुनकर 
**
कुछ भी बदला नहीं, भूख है 
'घर' की ज्यों-की-त्यों
बीन रही हैं कूड़ा 'दादी' 
फिर पोती बनकर"  

अवध जी किसी 'वाद' या दलीय वैचारिकी से बँधकर नहीं चलते। एक मानवीय संवेदनात्मक सोच के साथ वे जीवन के कटु यथार्थ को भोगते हुए अपने पात्रों के माध्यम से वास्तविक प्रतिक्रया के रूप में स्वयं को व्यक्त करते हैं।  इनके पात्र उनकी सामान्य जन के प्रति प्रतिबद्धता को न केवल व्यक्त करते हैं बल्कि उसे जी रहे होते हैं। कहीं अभिधात्मक, कहीं लाक्षणिक और कहीं व्यंजना के द्वारा युगीन यथार्थ को सफल गीतात्मक शिल्प में इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि पाठक या श्रोता को सहज स्वाभाविक अनुभूति होती है। अवध जी अपने समय और समाज पर बड़ी पैनी दृष्टि रखते हुए गीतों के माध्यम से सार्थक और प्रहारक टिप्पणी करते हैं और अन्याय का प्रतिकार करते हुए मानवीयता के पक्ष में पूरी सामर्थ्य से खड़े होकर स्वयं को जोड़ते हैं। समकालीनता और युगबोध को गीतात्मक प्रतिक्रिया देते हुए अवध जी ने अपनी रचनाओं में समय के यथार्थ को अभिव्यक्त किया है जिनमें, 'ख़बरें', 'अफीम', 'यह समय', 'चींटियाँ', 'गठबंधन', 'हीरा मोती', 'राजपुरुष', 'बूढा कैलेंडर', 'नया साल', 'वर्तमान काल', 'राजा बहुत ध्यान से देखे' आदि गीत मुख्य हैं। 'अफीम' गीत की पंक्तियाँ देखिये-
'राजा का कुनबा बैठा है 
जिनके कंधों पर 
सौ-सौ खून माफ़ हैं उनके 
पगड़ी उनके सर 
*
पुरखों की समाधि पर लगते 
रोज-रोज मेले 
चले आ रहे भूख-प्यास के 
बड़े-बड़े रेले   
हिंसा और घृणा की 'घुट्टी'
राजा पिला रहा
यह 'अफीम' का नशा, भरोसा 
राजा को इस पर'

'ख़बरें' शीर्षक के गीत में समाचार-पत्रों में छपी ख़बरों के शीर्षकों के माध्यम से व्यंजना निर्मित करते हुए अवध जी समय-सत्य को उद्घाटित करते हैं। 'यह समय' एक उत्कृष्ट रचना है जिसमें शोषक वर्ग द्वारा चन्द  सुविधाएँ फेंककर संघर्षशील जनता के प्रतिरोध की धार कुन्द कर दी जाती है तथा संघर्ष को समर्पित वामपंथ से प्रेरित कुछ लोग भी इन सुविधा की जंजीरों में बँध जाते हैं तब आम जन को अपने विकल्पों की तलाश करना जरूरी हो जाता है। पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं  :
'कोई तलवारों से बाँधे 
कोई बाँधे सुख-सुविधा से 
ज़ंजीरें तो ज़ंजीरें हैं 
लोहे की हों या सोने की 

लोहे से ज्यादा खतरनाक 
कंचन जंजीरें होती हैं 
ये गहनों का भ्रम देती हैं 
अभिशापित कौमें ढोती हैं 
तलवारों से जो घाव लगे 
विद्रोह करे इंकार करे 
वह बंधन कैसे टूटेगा 
जो बंधन मन स्वीकार करे

कोई कबीर ही तोड़ेगा 
इसको अपने इनकारों से
ऐसी 'विरोध' की 'कविता' की 
यात्रा है 'साखी' होने की 
*
सोने के निब वाली कलमें 
अब बाँये हाथों में भी हैं 
कविताओं तक में चर्चा है 
कुछ पाने की कुछ खोने की'

अवध जी का सृजन ग्राम्य केन्द्रित अनुभूतियों का शब्दांकन है। उन्होंने ग्राम के अभावग्रस्त जीवन के अनेक पक्षों का बड़े मार्मिक ढंग से चित्र उकेरा है। कहीं दीवाली के माध्यम से विपन्नता की बेबसी का चित्रण है तो कहीं फागुन की मस्ती की उमंग। कभी उन्हें गाँव की याद आती है, कभी अपने शहर कानपुर की याद आती है। कभी प्रेमचन्द  की कहानी 'ठाकुर  का कुआँ'  और 'कफ़न' की याद दिलाती है लेकिन इस बार उस दलित स्त्री को उसी की बेटी आक्रोश ,स्वाभिमान और विद्रोह का पाठ पढ़ाती हुई माँ से गुस्से को व्यक्त करने की सीख देती है। 'कुआँ' गीत में इसी प्रतिकार को वाणी  दी है-
'पानी लेने जब जाती हो माँ 
तुम इतना डरती क्यों हो 
*
भीतर गुस्सा है यदि माँ तो
ओठों पर ले आना सीखो 
आँख दिखाना, बाँध तोडना 
और बाढ़ हो जाना सीखो 
मैं बाघिन हूँ, क्या कर लेंगे 
माँ ,
पाँवों पर गिरती क्यों हो? 

अवध जी के इस संग्रह में उनकी आध्यात्मिक निष्ठा के गीत बहुतायत में हैं। बाह्य कर्मकांड से अलग हटकर ध्यान और सहज योग के अपने व्यक्तिगत अनुभूति के क्षणों को गीत की विषयवस्तु बना कर सहज रूप में प्रस्तुत किया है। प्रथमदृष्टि में गीत साधारण शब्द-समुच्चय लगता है किन्तु अंत तक आते-आते मर्म और तत्वबोध के अर्थ प्रकट होने लगते हैं। आयु के जिस वर्ग में अवध जी चल रहे हैं उसमें आध्यात्म और पारलौकिक जीवन की ओर उन्मुख होना भारतीय परिवेश में पले-बढे व्यक्ति के लिए स्वाभाविक है। अपनी ध्यान की अनुभूतियों को अनेक तरह से उद्घाटित करते हुए प्रकट किया है। अपने इन अनुभवों में कहीं वे बिना नाम लिए कबीर आदि सन्तों की ध्यान-पद्धति का संकेत देते हैं तो कहीं ओशो के द्वारा बतायी गयी पद्धतियों का सहारा लेते है। प्रकट रूप में अवध जी ओशो के अलावा किसी का नाम नहीं लेते किन्तु ध्यान और संकेन्द्रण का अभ्यास करने वाला व्यक्ति गीतों के कथ्य और विषयवस्तु से स्वयं अनुमान लगा लेता है। संग्रह के गीत ,'कबाड़घर', 'आनंद', 'ध्यान', 'आभा-वलय', 'जीवन-यात्रा', 'प्यास', 'प्रार्थना', 'सहज मन', 'राजा का कमरा', 'समर्पण', 'पानी के बिना', 'हीरामन', 'धारा में', 'आसान सफर' इसी श्रेणी के हैं जिनमें अवध जी ने अपने आध्यात्मिक पक्ष को प्रकट किया है।  'ओशो एक अनुभूति ' शीर्षक से एक लम्बी कविता को भी स्थान दिया गया है। इस चेतना के गीतों से कुछ  अंश प्रस्तुत हैं-

'निर्विचार मन हो जाने दो 
सहज भाव में उतरो भीतर 
फिर कोई दूसरा न होगा 
हर स्वर होगा अपना ही स्वर 
एक बड़ा-सा 'शून्य' बचेगा 
बरसेगा आँखों से सावन।'        (कबाड़घर)
*
' 'ध्यान' में संकल्प लेकर हम 
काट दें भय के सभी बन्धन'         (ध्यान)
*
'कोई सत्य शब्द में भरकर 
संभव नहीं कहीं कह पाना 
यह तो है सामर्थ्य मौन की 
बिना कहे सब कुछ कह जाना 

'मौन' हमारा कोरा काग़ज़ 
चेतन से लिख दें अवचेतन।'       (जीवन-यात्रा)   

'सबके पास वृत्त संशय के 
खुद से पूछो-'क्या करना है'
भीतर उतरो तो जानोगे 
क्या जीना है क्या मरना'       (सहज मन)
*
'उल्टा करके टँगवाता राजा-
असली तस्वीर 
ऐसी चलता चाल कि चुनकर 
आएँ नहीं 'कबीर'                        (राजा का कमरा)
*
अपने गीतों के साथ-साथ अवध जी ने अपने दोहों तथा दुमदार दोहों तथा व्यक्तिगत आस्था की अभिव्यक्ति के रूप में ओशो पर केंद्रित एक अतुकान्त कविता 'ओशो एक अनुभूति' को भी संग्रह के अंतिम पृष्ठों में  स्थान दिया है किन्तु मुख्य स्वर गीत-नवगीत ही है। यों तो प्रत्येक गीत का अपना अलग कथ्य और आशय होता है किन्तु हर रचनाकार की वैचारिकी और मान्यताएँ उसकी रचनाओं का केंद्र बिन्दु  होती हैं। प्रस्तुत संग्रह में भी अवध जी की वैचारिकी और पक्षधरता स्पष्टतः दृष्टिगोचर है। मानवीय संवेदना के कुशल शब्द-चितेरे अवध जी आरम्भ से अंत तक रिश्तों की गर्माहट और शिथिलता दोनों पक्षों को सफलता से व्यक्त कर पाए हैं। ननद-भौजाई की स्वाभाविक चुहल से लेकर अध्यात्म की ऊँचाइयों तक को उन्होंने बड़ी सरलता और तरलता से चित्रित किया है। उनका सृजन समकालीन यथार्थ की कुशल अभिव्यक्ति है। प्रस्तुत संग्रह उनके पूर्व-प्रकाशित नवगीत संग्रहों की तरह ही पाठकों, अध्येताओं, शोधार्थियों और समीक्षकों के बीच सराहना प्राप्त करने में सफल होगा। मैं उनके स्वस्थ दीर्घ जीवन की कामना सहित उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में नवांकुरों को प्रेरित करते हुए उनका सृजन मार्गदर्शन करता रहेगा।
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गीत नवगीत संग्रह- बस्ती के भीतर, रचनाकार- अवध बिहारी श्रीवास्तव, प्रकाशक-अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, ,  प्रथम संस्करण- २०१७ मूल्य :  रु. १५०पृष्ठ : ८८, समीक्षा- जगदीश पंकज, ISBN  : 978-93-84772-54

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