शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

बाँस वन और बाँसुरी - गुलाब सिंह

गुलाब सिंह का सद्यः प्रकाशित दूसरा नवगीत संग्रह ऐसे समय सामने आया है जब अनेक प्रकार के विभ्रम चिन्तन को संक्रमित कर रहे हैं। नये-नये अँधेरे प्रकाश के प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे हैं। मानव के यंत्र और जीवन के व्यापार बनाते जाने के इस समय में गुलाब सिंह जब ’बाँस वन और बाँसुरी’ “शीर्षक के अन्तर्गत गीतों के मुँह से अपनी बात कहलवाते हैं तो बड़े गम्भीर काव्य सरोकारों की ओर संकेत करते हैं। संग्रह की भूमिका ‘कविता कहीं नहीं गयी’ में जब यह कहा जाता है, ’’कविता की वापसी जैसी बातें इसलिये कही गयीं कि कविता को “शब्द समूहों का पर्याय मान लिया गया। “शब्द पर से सत्य की प्रतिछाया हट जाने से जो रिक्तता आयी उसमें कविता की खोज की गयी। लगा कविता कहीं चली गयी। वापसी जाने वाले की ही होती है’’ तो इसके कई अर्थ होते हैं।

गुलाब सिंह के इस नवगीत संग्रह का उद्बोधन ही युगीन कुटिलताओं की चर्चा से “शुरू होता है। आदमी की बनायी व्यवस्था ने अब आदमी को ही अपने खेलने का सामान बना लिया है। इस पर टिप्पणी करते हुए संग्रह का पहला गीत ‘घाट से हटकर’ आदमी की बनायी अपनी ही व्यवस्था से छले जाने का मार्मिक वृतान्त है। इस गीत में व्यंग्य या चेतावनी से ज्यादा प्रत्यक्ष जीवन में व्याप्त निराशा है। यह निराशा इतनी सघन है कि तुरन्त पकड़ में आ जाती है और इतनी विरल है कि क्षण भर में दूर-दूर तक फैल जाती है। यह विसरित होती निराशा अन्ततः आदमी को यह समझाने में सफल हो जाती है-
जाल है भीतर नदी के
घाट से हटकर नहाना।

पीठ पर लहरें,
हवायें झेलते हैं
आइने सा मुस्कुराकर
आदमी से खेलते हैं

भीड़ से भीगे तटों के
पत्थरों का क्या ठिकाना?
गुलाब सिंह की उपरोक्त काव्य पंक्तियों में वर्णित घाट केवल राजनीतिक या सामाजिक प्रणालियों का ही प्रतीक नहीं है बल्कि राजनीति के आगे गिड़गिड़ाते साहित्य विमर्षां का उल्लेख भी है। साहित्य में कविता और कविता में गीत को लेकर होने वाली आलोचकीय निष्कर्ष घोषणाओं की वास्तविकता की अभिव्यक्ति है- ‘भीड़ से भीगे तटों के पत्थरों का क्या ठिकाना?’ सूर, तुलसी, कबीर जैसे कवि पुरखों वाली हमारी पीढ़ी किस तरह प्रतिबद्धता और वैचारिक निष्ठा के नाम पर हरे जंगल से रेत का मैदान बनाती जा रही है, इसको गुलाब सिंह बखूबी समझते हैं और कहते हैं-
कौन समझे अब कोई स्पर्श
जल या रेत का
पंख टूटे थे जहाँ
मरुभूमि थी या खेत था?

जिन्दगी गीत नहीं है तो भी गुलाब सिंह निराश नहीं हैं। वे पूरी ऊर्जा, पूरी क्षमता से जीवन जीना चाहते हैं। कितनी भी विपरीतता हो गुलाब सिंह का जीवन के प्रति राग कम नहीं होता। यही सार्थक जीवन राग जिसमें जीवन की उत्कृष्टताओं के साथ-साथ उसकी तमान निकृष्टताओं को भी जीवन अनुभव का अवयव माना जाता है-रूमान को एक बलशाली काव्य मूल्य बनाता है। नवगीतों के अध्येता जानते हैं कि नवगीत इसी तरह के रूमान प्रेम का जीवन्त दस्तावेज है। बिम्ब रूमान की तरह ही नवगीत का आधार तत्व है। ऐसे सघन और मुखर बिम्ब, जिसमें मानव अपनी समग्रता के साथ हमारे विचारों में खड़ा होता है, गुलाब सिंह के गीतों में भरे पड़े हैं-
खुशहाली का राज खोलता,
चैराहे का यह विज्ञापन।
सड़कों पर कितना निखरा है,
घर के भीतर का अपनापन।

अन्विति नवगीतों की चारित्रिकता की निर्माणक है। अन्वितिहीनता से कोई नवगीत बन ही नहीं सकता। गीत सामान्यतः एक मुक्तक और लघु काव्य रूप है। यदि इसमें “शब्द सघनता और अर्थ विस्तार न हो तो यह परिभाषित ही नहीं होता। नवगीतों में अन्विति अनिवार्य और अपरिहार्य है। अन्विति के मामले में किसी नवगीतकार को नियम शिथिल करने का कोई अधिकार नहीं है। अन्वितिहीनता अर्थ विसरण क्षमता को प्रभावित करती है और नवगीत को एक सामान्य कथन वाक्य बनाकर छोड़ देती है। गुलाब सिंह के गीत अपने अन्विति की सदैव रक्षा करते हैं और इसीलिये एक सामान्य कथन गुलाब सिंह का स्पर्श पाकर गीत बन जाता है। गुलाब सिंह के गीतों में बिम्ब और अन्विति मिलकर जिन काव्य अभिप्रायों की रचना करते हैं उन्हें सामने खड़े समय पर एक टिप्पणी भी कहा जा सकता है-
जलती यहाँ
वहाँ बुझ जाती
आग अलावों की,
गोरी, कभी साँवली दिखती,
काया गावों की।
गुलाब सिंह के गीत सिर्फ वाह्य और प्रत्यक्ष परिवर्तनों पर ही टिप्पणी नहीं करते वरन् मानव मन के आन्तरिक हलचलों और गोपन व्यवहारों पर भी एक सामजिक आख्या प्रस्तुत करते हैं-
रखने लगी बहन सिरहाने
छिपकर छोटा “शीशा,
भाई को खलते, खूँटी से
लटके गाँधी, ईसा।
वस्तुतः गुलाब सिंह जीवन की विडम्बनाओं के गीतकार हैं। उनके गीत इस अराजक गीतकाल में उसी तरह आश्वस्ति देते हैं जैसे सजावटी फूलों के गमलों के बीच तेजी से फैलती, महकती “यामा तुलसी। असामर्थ्य को जिद भरी प्रयोगशीलता बताने के इस क्रूर कोलाहल में गुलाब सिंह के गीत निस्संदेह बाँस-वन में बहने वाली उस हवा की तरह हैं जो कभी-कभी बाँसों को अपनी फूँक से बाँसुरी बना देती है।

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