शनिवार, 15 अप्रैल 2017

मनचाहा आकाश - सत्येन्द्र तिवारी

गीत मन की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति है। टूटते -बिखरते मन की पीड़ा का गायन भी कभी यथार्थ की कटुताओं को व्यक्त करता, कभी प्रेरक बन भविष्य के नवनिर्माण की नींव गढ़ता है। जीवन की आपा-धापी में सुकून के पल दुर्लभ से प्रतीत होते हैं। ऐसी स्थिति में गीत-संगीत मनुष्य की दुखती रग को सहलाता है। मन के घावों पर मरहम रखता है। अनचाहे बंधनों से तन भले ही बंधा रहे पर मन की चिड़िया तो कल्पना के पंख फडफड़ा कर उड़ जाती है अपना आकाश छूने के लिये।

अनेक गीत-नवगीत - संग्रहों की भीड़ में सत्येंद्र तिवारी जी का गीत संग्रह "मनचाहा आकाश" को पढ़ना एक सुखद एहसास है। रचनाकार ने अपने काव्य-संग्रह में जीवन के विभिन्न पहलुओं को छुआ है। संग्रह के पहले गीत "राम ही मालिक है" में वर्तमान व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हुए रचनाकार कहता है -

जिसकी मुट्ठी में है ताकत
है उसका कानून

आतंकों के जश्न हो रहे, आश्वासन सुख नींद सो रहे
और चबाने को छोटे सुख, पैने सबके दाँत हो रहे
हड्डी से गरीब की करती
आजादी दातून
राम ही मालिक है

दूसरी रचना "शकुनि के पाँसे" में कवि का आक्रोश मुखर हो कर आया है-

जनगण के आँगन चौपड़ पर
जीते हैं शकुनि के पाँसे
वादे और दिलासे के हम
देख रहे खेल–तमाशे

खुशियों के हर दरवाजे पर
है बबूल की पहरेदारी।

राजनेताओं ने संविधान को खिलवाड़ बना दिया है जिससे उसकी मूल भावना ही तिरोहित हो गयी है।

बदल दिया संविधान को
राजमहल की वंशप्रथा ने
जाति धर्म के बँटवारों ने
मानवता की नई कथा ने।

दुर्व्यवस्था से आहत हर ओर से निराश हो कर कवि के मन में पलायन के भाव आ जाते हैं और वह कह उठता है -

कंक्रीट की तपती अंध गुफाओं में
ऊब गया मन
चलो गाँव की ओर चलें

माटी की सोंधी सुंगध को
खुशियों के उत्सुक प्रबंध को
आपा-धापी निगल गयी है
हर मौसम के सुखद छंद को।

मन अकुलाता है पर जिजीविषा उसे हारने नहीं देती। उसे एहसास होता है कि उसे जन्म दिया है माटी ने...
-दीपक हूँ माटी का...
दीपक का तो जन्म ही उजाला फैलाने के लिये हुआ है, उसका आत्म विश्वास जाग उठता है--

जूझा विपरीत हवाओं से
मुस्काकर पर बुझा नहीं।
नियति नटी ने सम्वेदन का
जो नेह भरा वो चुका नहीं।

कह कर कवि स्वयं को तो आत्म बल देता ही है, दूसरों को भी कभी हिम्मत न हारने की प्रेरणा देता है।
जब मनुष्य साहस कर कदम बढ़ाता है तो समूची कायनात उसका साथ देने लगती है। दूर बसे प्रिय की स्मृतियाँ कवि का संबल बन कर उसके अकेलेपन को मिटा देती हैं। देखें गीत "भीगी याद रही" की कुछ पंक्तियाँ -

माना तुम हो दूर किन्तु मैं
तनहा नहीं रहा
परछाई सी याद तुम्हारी
मेरे साथ रही।

गीत "मधुमास बाँध लें" उल्लास से परिपूर्ण मधुर गीत है। कुछ पंक्तियाँ देखें -

मन कहता है पंख खोल कर
मन चाहा आकाश बाँध लें

बहुत दिनों के बाद खुले हैं
अभिनन्दन वाले दरवाजे
मौसम रखता सगुन सलोने
निशिगंधा देती आवाजें

साँसों में खुशबु को घोले
मुस्काता मधुमास बाँध लें।

किन्तु समय कहाँ स्थिर रहता है। यायावर पाँव कहाँ ठहरे हैं। देखें गीत "हम बंजारे" में भटकन की व्यथा को -

हम बंजारे रहे बदलते
अपने ठौर ठिकाने को
कुछ दिन ठहरे और चल दिए...

कठिनाई का लोहा पीटें
साँस धौंकनी सी सुनते हैं
अधरों पर मुस्कान बिखेरें
सुख की चादर हम बुनते हैं।

जितना टूटे उतना जोड़े
जीवन ताने- बाने को।

संघर्षों के समय सुखद स्मृतियाँ शक्ति देती हैं, विशेषकर जब वह बचपन की हों। "बरखा में कागज की नौका” एक मधुर गीत है-

बरखा में कागज की नौका
याद दिलाती बचपन की

शिखरों से सागर तक भीगे
चले साथ हम बाँह पसारे
बिखरे सीप शंख से तट पर
निशा-मणि का रूप निहारे।

जैसे - जैसे उम्र बढ़ती जाती है आँखों पर स्वार्थ का पर्दा चढ़ने लगता है। वर्तमान समय में विभिन्न कारणों से परिवार बिखरते जा रहे हैं, रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। भावुक मन आहत हो कह उठता है -

अर्थ कुंठित हो रहे हैं
अर्थ युग में प्रीति के
वचन और सौगन्ध की
मत बात करना।

"अपनेपन को लगे भूलने", "सिसक रहे रिश्तों के", व "शहर बढ़े अजगर से" शीर्षक गीतों में बिखरन तथा टूटन को बड़ी बेबाकी से व्यक्त किया है। कवि ने महसूस किया है कि इन स्थितियों का कारण राजनैतिक व्यवस्थाएँ हैं। वह खीझ कर कह उठता है "राजा बड़े निकम्मे निकले" किन्तु केवल शिकायत करने से कुछ हासिल नहीं होगा कवि को अपनी जिम्मेदारी का एहसास है। उसे तो "प्यार का आखर बचाना है" तनाव भरे वातावरण में "प्यार का दम घुट रहा" अक्सर संवाद हीनता सम्बन्धों में दूरियों का कारण बन जाती है। कवि पुकारता है अपनों को "चलो चलें" गीत में-
चलो चलें मन
कहीं और हम चलो चलें

अब उस तट पर, जहाँ
मौन हिम से पिघले
दम घुटता है दर्द भरे
कोलाहल में।

स्वजनों का साथ हो तो सब अच्छा लगने लगता है। 'दिन फिर धूप नहाने वाले', 'समीर की बाँहों में', 'सुमन खिले है गाँव में' आदि गीतों में प्रकृति का मनमोहक चित्रण है। कवि का मूल स्वर प्रेम है। देखें -
खोल कर पंख को भर उड़ानें मधुर
ढूँढ खुशबू भरा गीत का मुग्ध घर
खिड़कियाँ हैं खुली, सामने है गगन...

और भी -
प्यास अधरों पर पलाशी हो गई
सुर्ख सेमल तन हुआ।

कवि के "आँगन में शब्द शब्द घुँघुरू सा" छनकता है। "आखर- आखर लय की सीढ़ी भावुक पाँव चढ़े" मन में "एक नदी बहती रहती है" फिर भी ''तृप्ति अधूरी रही आजतक''। कवि का बंजारा मन थका नहीं उसको तो दूर तक जाना है, उसे केवल अपनी पीड़ा ही नहीं सृष्टि में बिखरा दर्द भी आहत करता है। वर्तमान समय की विभीषिका को नवगीत "खूब उड़ता कबूतर" में बखूबी चित्रित किया गया है। "अंजुरी में ले आँसू" की पंक्ति -
चलो ऐसा कुछ करें
नम आँखें फिर से हँस दें
सच्ची मानवता के फिर से
सगुन सातिये रच दें

किन्तु सीमित साधन और सीमित दायरे में रहने वालों की स्थिति कुछ अलग होती है. कवि ने तालाब के माध्यम से कहा है -
हम तालाबों में बंधे हुए जल हैं।

हम क्या जानें शिखरों से
सागर की बातें
हम तो जान सके हैं केवल
कंकड़ की घातें।

उसे शिकायत है हर माँझी को
तुमने तो दे दिया किनारा
इतने पास रहे हम फिर भी
समझ सके ना दर्द हमारा।

मन में असमंजस की स्थिति आती है कि-

किस दिशा में चले हम
हर तरफ मावस मिली है।

ऐसी स्थिति में आक्रोश उभरना स्वाभाविक है-
शतरंज के मोहरे बने
हम सभी मानव जहाँ के।

और भी -

संशयों के भवन में
शान्ति की होती सभाएँ
पवन जैसी डोलती
निर्भीक बारूदी बलाएँ

स्वार्थ ने इंसानियत को
बना रखा अर्दली है।

वह राजनेताओं पर व्यंग करता है जो कभी रिटायर नहीं होते-
वृद्ध काँधों पर लड़ी शिक्षित जवानी जल रही
उम्मीद के स्तम्भ जर्जर संक्रमण बाहुबली है।
कवि का प्रश्न है-
किस ठौर हमें ले जायेगा अब पश्चिम का अन्धानुकरण।

कवि नव जवानों को आमंत्रण देता है- ओ नव जवान। जाग जा उठ एक जंग और कर। क्योंकि स्थितियाँ विषम हैं, संवेदनायें मर रही हैं, इंसान जानवर होता जा रहा है। आंतक और महँगाई की आग में इंसान जल रहा है -

पेड़ों पर खजूर के उन्नति
जा कर है ऐंठी
भूखे बच्चे लेकर गँवई
बिन छाया बैठी

महँगाई की कड़ी धुप में
लंघन चाटेगी
आश्वासन से नंगेपन को
कब तक ढाँपेगी।

भरोसे की गठरी चिन्दी चिन्दी हो गयी है। प्रतिभाओं को भूख और बेबसी तोड़ रही है। जिधर भी नजर जाती है, दर्द ही दर्द नजर आता है। प्रेम के मधुर गीत गाने वाले कवि को तब कहना पड़ता है -
एक मुश्त जो दर्द मिला है
टुकड़े टुकड़े काट रहे हैं
खंड खंड में मन की पीड़ा
हम गीतों में बाँट रहे है।

सिर धुनता रहता संविधान
है बेलगाम अब आजादी।

अंतिम गीत "खिलौने वाला” में जीवन को समग्र रूप में समेटने की चेष्टा की गयी है। खिलौनों के माध्यम से समाज में फैली विषमताओं को दूर कर सबके हित की कामना की गयी है। देखे-
पंछी की आजादी का
अधिकार बेचता हूँ
तूफानों में नौका की
पतवार बेचता हूँ

प्यार बढ़ाने को राखी के
तार बेचता हूँ।

ऐसे अनमोल खिलौने कौन नहीं लेना चाहेगा। ऐसा नहीं है कि संग्रह पूर्णता त्रुटिविहीन है, कहीं-कहीं पुनरावृति दोष है। एक शीर्षक से दो गीत होना खटकता है किन्तु गीतों के माधुर्य से सकुचा कर वे कमियाँ स्वतः ही नजरंदाज हो गयी हैं। यथार्थ, कल्पना और जिंदगी की कशमकश पर मधुरता के ताने-बाने से बुना, यह काव्य संग्रह पाठकों के लिये एक उपहार तुल्य है। इसके रचियता सत्येन्द्र तिवारी जी बधाई के पात्र हैं। उनकी अगली कृति की पाठकों को प्रतीक्षा रहेगी।
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गीत- नवगीत संग्रह - मनचाहा आकाश, रचनाकार- सत्येन्द्र तिवारी, प्रकाशक- शुभाञ्जली प्रकाशन, कानपुर-२०८०२३। प्रथम संस्करण- २०१६ मूल्य- पेपर बैक १८० तथा सजिल्द २५० रुपये, पृष्ठ-१२०, समीक्षा- डॉ. मधु प्रधान

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