सोमवार, 28 दिसंबर 2015

चंदन-वन सँवरें- ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग

हाल ही में प्रकाशित हिन्दी गीत के बड़े हस्ताक्षर श्री ब्रजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’ के पाँचवें गीत-नवगीत संग्रह ‘चंदन वन सँवरें’ से गुज़रना बाकई सुखद लगा तभी तो उनके गीतों में एक अलग तरह की मीठी खुशबू का अहसास मन के कागज़ पर अपने हस्ताक्षर करने लगा। दरअस्ल अनुराग जी परंपरावादी गीतों के प्रमुख स्वर हैं लेकिन पिछले कुछ समय से उन्होंने समकालीन यथार्थ को अपनी रचनाओं में बहुत ही प्रभावशाली रूप से घोला है।

अनुराग जी अपने गीतों में प्राकृतिक बिम्बों का बहुत ही खूबसूरती के साथ प्रयोग करते हैं। संग्रह का पहला ही गीत अपने समय के समकालीन यथार्थ को अनूठे प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है-

‘पंख सिकोड़े बैठी चिड़िया
ग़ायब सभी तराने हैं
दिन में भी अँधियारा ओढ़े
गुमसुम सभी घराने हैं’

वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रति पल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। मँहगाई से ग्रस्त और त्रस्त आम आदमी का पहले से ही जीना दूभर है, अपने एक गीत में अनुराग जी इस पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं-

‘सूने आँगन
उजड़े चूल्हे
गुमसुम है चकिया
भूखे बच्चे
देख-देख
सिसके बेबस बुधिया’

सुरसा की तरह मुँह फैलाती इस मँहगाई ने सबसे ज़्यादा बुरा हाल उन ग़रीबों का किया है जिनके पास न खाने को रोटी है और न पहनने को कपड़ा। सुबह से शाम तक मेहनत मज़दूरी करने के बाद भी उस गरीब के घर चूल्हा नहीं जल पाता। इस वेदना को एक संवेदनशील रचनाकार ही महसूस कर सकता है और यह संवेदनशीलता अनुराग जी के एक गीत में बहुत ही प्रभावी रूप से मुखर भी हुई है-

‘सिन्दूरी सुबहों-संध्याओं
को सबने गाया
पिचके पेटों वाली ज्वाला
कौन समझ पाया
बिना आग के कितने चूल्हे
रोज़ सिसकते हैं
कचरे में रोटियां ढूँढते
बच्चे मिलते हैं’

तभी तो ऐसी विद्रूप परिस्थितियों में एक संवेदनशील व्यक्ति का मन कसैला हो जाता है, नकारात्मक विचार मन पर हावी हो जाते हैं और दुनिया से उसका मोह भंग हो जाता है। कवि भी इसी समाज में जीता है, इसी समाज की विद्रूप परिस्थितियों से रोजाना मुठभेड़ करता है तब अनुराग जी अपने मनोभाव व्यक्त करते हैं अपने इस गीत में-

‘अपनेपन की गंध रह गई है
बस सुधियों में
मुँह बिचकाती तपन भरी
गलियारों-गलियों में
खुशबू का फागुन के घर में
हँसना कैसे हो’

महानगरीय जीवन जीना जैसे कई धारों वाली तलवार पर चलना है। महानगरों में हर पल साँसों में घुलती ज़हरीली हवा, परिवारों का एकाकीपन में ही मस्त रहना और घर-आँगन के संस्कार कहीं गायब हो जाना मन को एक टीस तो पहुँचाता ही है गाँव और कस्बों के ज़मीन से जुड़े संस्कारों-परंपराओं का गहरे से अहसास भी कराता है। अनुराग जी की पृष्ठभूमि भी गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबुओं से तर-ब-तर रही है इसीलिए परिस्थितिजन्य अवसादों से ग्रस्त उनका मन पूछता है-

‘ज़हर भरे इस महानगर में
जीना कैसे हो
धूप यहाँ बस खिड़की-भर है
गमले-भर माटी
कोलाहल से भरी ज़िन्दगी
फूलों की घाटी
पीड़ाओं का घना कुहासा
झीना कैसे हो’

अनुराग जी के गीत-नवगीत संग्रह ‘चंदन वन सँवरें’ के गीतों-नवगीतों की यात्रा करना पाठक को समकालीन यथार्थ के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से तो रूबरू कराता ही है, एक अलग तरह की ताज़गी का अहसास भी कराता है। पुस्तक पठनीय भी है और संग्रहणीय भी। ‘चंदन वन सँवरें’ साहित्य-जगत में अपार प्रसिद्धि और चर्चा पाएगी, ऐसा विश्वास है।
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गीत- नवगीत संग्रह - चंदनवन सँवरें, रचनाकार- ब्रजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’, प्रकाशक- पार्थ प्रकाशन, एम.एम.आई.जी., बी-२३, रामगंगा विहार-प्रथम्, काँठ रोड, मुरादाबाद-२४४००१। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये २००/-, पृष्ठ- , समीक्षा- योगेन्द्र वर्मा व्योम

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