सोमवार, 7 सितंबर 2015

उस गली के मोड़ पर - यशोधरा राठौर


गीत मनुष्य की निजता की अभिव्यक्ति होते हैं। निजता जब सामाजिक चेतना से संपृक्त होती है तब गीत लिखे जाते हैं और जब यह आत्म की अभिव्यंजना भर होती है तब प्रगीत लिखे जाते हैं। यानी गीत जब आत्म का उन्मोचन करते हैं तब वे प्रगीत कहलाते हैं। यशोधरा राठौर का यह प्रथम संग्रह- उस गली के मोड़ पर गीत भी है और प्रगीत भी। तात्पर्य यह कि उनमें यह कला है कि वे समष्टि-चेतना को निजता में ढाल देती हैं और निजता को समष्टि-चेतना में। व्यक्ति और समाज के द्वंद्वात्मक सम्बन्धों से उनके इन गीतों की रचना हुई है। यशोधरा जी के प्रगीतों में ऐन्द्रिकता है। इन्द्रियों की राह से गुजरकर प्रेम आकर्षक बनता है। उनमें उद्दाम ऐन्द्रिक आकर्षण है। कहीं-कहीं तो ऐन्द्रिक बोध बहुत ही मोहक है, यथा-

हवा बँधे जूड़े को
चुपके खोल रही

हवा जैसी सखी हो जो चुपके से जूड़े को खोल रही है। इन ऐन्द्रिकतापरक गीतों में कहीं वर्जना नहीं, कहीं दुराव नहीं। यह कवयित्री की आधुनिकता है। यशोधरा जी उल्लास और उत्सव की गीतकर्त्री हैं। प्रकृति के उत्सवदाता तत्व उन्हें रोमांचित करते हैं। प्रकृति उनकी ऐन्द्रिकता को सहलाती है-

उतरी कच्ची धूप शरद की आँगन में
खुले हुए बालों में आ कंघी करती
ठिठुरी साँसों में थोड़ी उष्मा भरती
नयी खनक भर देती चूड़ी-कंगन में

केदारनाथ अग्रवाल की कच्ची धूप और यशोधरा जी की कच्ची धूप में कहीं-न-कहीं अंतर है। केदार जी की कच्ची धूप गाँव-घर को जगमग करती है, यशोधरा जी की धूप व्यक्ति में उष्मा और गति भरती है। यानी इनके धूप में ऐन्द्रिकता अधिक है। गीतकर्त्री जीवंतता प्रदान करने के लिए मानवीकरण की युक्ति का सहारा लेती है जैसे ‘बंसवट में शहनाई’ नामक गीत में। कच्ची धूप और हवा गीतकर्त्री के लिये प्राकृतिक उपादान हैं।

यशोधरा जी नागर बोध की कवयित्री हैं। वे गाँव में आने को बार-बार आमंत्रित करती हैं। ऐसे कई गीत हैं। इन गीतों में गाँव की मिट्टी की गंध और फूल की खुशबू मिलती है। इन गीतों का पूरा परिवेश गँवई है। यशोधरा जी गाँव, भाव और अभाव में धँसती हैं-

ठण्डा चूल्हा
सूना चौका
खाली पड़ी रसोई
सुबक रही
इंधन के बिना
गुदे आटे की लोई
माँ के चेहरे पर
कुछ गहरी
खिंची अधिक रेखाएँ।

गीतकर्त्री में दुख-दर्द है, उसका गहन बोध है, उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। इन प्रतीकात्मक अभिव्यंजनाओं से वेदना की सूक्ष्मता का बोध होता है। यथा-

जिस गली में
रंग के चेहरे उड़े
चोट से नाखून पाँवों के मुड़े
गुजर जाती है
हवा मुँह मोड़ कर

जीवन की विषमता का यह सादृश्य-विधान

क्रूर विषमताओं की मैंने
इतनी मार सही
आँधी में कँपते टिन के
छप्पर-सी काँप रही
मगर सुबह अँधियारे से है
दाँत निपोर सटी।

‘आँधी में कँपते टिन के छप्पर-सी काँप रही’ जैसी पंक्ति में अभाव से भीतर तक हिल जाने वाली आत्मा की कपकपाहट स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
इस संकलन के कई गीत और कई प्रगीत आधुनिक बोध से सिक्त दिखते हैं। युग की उदासी इन पंक्तियों में खूँटी पर टँगी सी दिखती है-

मैले कपड़े-सा
खूँटी पर
टँगा रहा दिन।

व्यंजना है कि जीवन की विषमता के कारण हृदय में उल्लास नहीं है और इसी से सम्बद्ध पंक्तियाँ हैं ‘पहचान हमारी’ गीत की।

गहराया इस तरह धुँधलका
चेहरा याद नहीं है कल का
वक्त के मुँह हैं
फफूँदों से भरे
लग रही उड़ती पतंगों की
कटी हर डोर है
सोचना क्यों खून से
लथपथ हुआ यह भोर है।

जड़ से कटने का बोध इन गीतों में काफी है। इसके लिए बार-बार ‘कटी डोर पतंग-सी’ की उपमा दी गयी है। उत्तर औद्योगिक समाज में मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध तीव्रता से विघटित हो रहे हैं। ये गीत उस विघटन की पीड़ा से व्युत्पन्न हैं। थ्रो अवे कल्चर में केवल चीजें ही उपभोग के बाद नहीं फेंकी जा रही हैं वरन् रिश्ते भी। पहचान खोने का यही संदर्भ है। पहचान खोना एक गहन दर्द है।

इन गीतों की प्रकृति दो तरह की है। जो गीत ऐन्द्रिक संवेग से भरे हैं उनमें निजता है और जो गीत सामाजिक चेतना को अभिव्यक्त करते हैं वे निजता से मुक्त हैं। ये प्रगीत और गीत हैं। प्रगीत निजता से युक्त होते हैं, गीत अधिक सामाजिक होते हैं। इन गीतों के भावों में द्विचर विरोध है, उदासी है, धूँधलका है, खून से लथपथ परिवेश और ऐन्द्रिक उलास तथा प्रकृति की ताजगी। इन परस्पर विरोधी भावों से इन गीतों की संश्लिष्टता रची गयी है।

इन प्रगीतों में यशोधरा जी के आत्म का उन्मोचन हुआ है। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसके भीतर यौवन का उल्लास और जीवन का आकर्षण लहरें ले रहा है। इन प्रगीतों में रुधिर की आवाज सुनाई पड़ती है और रूधिर की आवाज किसी को भी धोखा नहीं देती है। यह आवाज बुद्धि की छलना की ओर हमें खींच कर नहीं ले जाती है। असल में, इन गीतों में सभी रंग है, सभी भाव और अभाव हैं।

आदमीयत की कहानी
गीत में है
घाम, बरखा, आग, पानी
गीत में है

निजता की छाप इन गीतों में है पर यह निजता व्यापक मानवीय भावनाओं पर आधारित है। सामाजिक चेतनापरक गीतों में जो निजता है उसमें जातीय तत्वों का संगुंफन है। ये जातीय तत्वों के संगुंफन सामाजिक चेतनापरक गीतों को उदात्त बना देते हैं। ऐन्द्रिक बोध और प्रखर सामाजिक चेतना के द्वंद्वात्मक रिश्तों के कारण यशोधरा जी के गीत सफल और सार्थक बन सके हैं। उन्होंने अपने आत्म को समाज और समय में ढाल दिया है।
सादृश्य-विधान का सूक्ष्म संधान ही कविता है। यह संधान जितना सूक्ष्म और दूरान्तरत्व से पूर्ण होता है कविता भी उतनी ही उत्कृष्ट होती है। यथा-

वरद हथेली जैसी फैली
है बरगद की छाँव

यशोधरा जी सादृश्य-विधान रचने में समर्थ हैं। जैसे सपनों का संसार जब वे रचना चाहती हैं, तब सपनों के पंख और चिड़िया के पंख की समानांतरता स्थापित हो जाती है और चाहत के पंख का सम्बन्ध जगमग भिनसार से बनता है। यही कवित्व है। जीवन में आँधी-तूफान का सादृश्य नागफनी के जंगल से, कैक्टस से देखने में नवीनता तो नहीं पर सादृश्य की समतुल्यता और विश्वसनीयता तो है ही।
अधिकतर गीत २२ मात्रा के छंद से रचे गए हैं। तुक से छंद को शक्ति मिलती है क्योंकि ‘तुक राग का हृदय है।’ किसी गीत की पहली पंक्ति को मुखड़ा कहते हैं। चमत्कार प्रधान गीतकार में मुखड़ा ही सब कुछ होता है- उसका विस्तार शिथिल। पर, यशोधरा जी के गीतों का अधिक पुष्ट पक्ष मुखड़ा नहीं वरन् मुखड़ा और टेक के बीच का छन्द है। अतः चमत्कारप्रियता उनके गीत की मुख्य विशेषता नहीं है। उनके गीतों का मुखड़ा अधिक चमत्कारी नहीं होता है वरन् गीत ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है त्यों-त्यों भाव समृद्ध और गहन होते जाते हैं। साथ ही सादृश्य-विधान उपचार से अधिक मोहक हो उठते हैं।

इन गीतों की एक प्रमुख विशेषता विषयवस्तु की विविधता है। गीतकर्त्री के मन के अनेक ध्रुवांत हैं और हर ध्रुवांत अपने में अद्वितीय और भास्वर हैं। ऐन्द्रिकता है तो प्रखर है, गाँव का बोध है तो प्रामाणिक है, वेदना है तो प्रतीक में ढलकर मोहक बन गयी है, सादृश्यविधान है तो उससे कविता देह धारण कर लेती है। गीतकर्त्री के आरम्भिक गीत ही उसे साहित्य-जगत् में स्थापित कर देने को पर्याप्त हैं। प्रतिभा को वैसाखी की जरूरत नहीं पड़ती है।
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गीत- नवगीत संग्रह - उस गली के मोड़ पर, रचनाकार- यशोधरा राठौर, प्रकाशक- अभिधा प्रकाशन, राम दयालु नगर, मुजफ्फरपुर, बिहार,   प्रथम संस्करण- २००८, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- ११२, समीक्षा -विजेन्द्र नारायण सिंह (भूमिका से)

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