रविवार, 21 जून 2015

महेन्द्र भटनागर के नवगीत - सं. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'

छः दशकों के काल-खण्ड में क्रियाशील व्यक्ति की रचनाधर्मिता के संभाव्य नहीं, कुल प्राप्य पर चर्चा होनी चाहिये।  इतने लम्बे काल-खण्ड में किसी सक्रिय रचनाकर्मी के शब्द-कर्म के प्रभाव को साहित्य के स्वरूप में आये परिवर्तनों के सापेक्ष आँकना अधिक उचित होगा।  इस क्रम में शाब्दिक हुई मनोदशा या तदनुरूप मनोभावों के आगे, रचनाकर्म के शैल्पिक स्वरूप, कथ्य में निहित भावों में स्थायित्व, बिम्बों की पहुँच तथा प्रभाव, रचनाकर्म का उद्येश्य तथा लक्ष्य आदि जैसे विन्दु यदि चर्चा का आधार बनें, तो अवश्य ही रचनाकर्म के सापेक्ष रचनाकार के कई पहलू स्पष्ट होंगे।  ऐसा कोई प्रयास वर्तमान के साहित्य-यात्रियों के लिए भी सार्थक मार्ग-इंगित होगा।  महेन्द्रभटनागर की रचना-यात्रा छः दशकों से अनवरत है।  उनके सामने हिन्दी पद्य-साहित्य ने विभिन्न परिवर्तनों को जिया है।  


सम्पादक के तौर पर देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र’ जी ने महेन्द्र भटनागर की न केवल रचना-यात्रा एवं अभीष्ट को रेखांकित किया है, बल्कि नवगीत के क्षेत्र के अन्य दस मान्य पुरोधाओं के विचार भी संकलित किये हैं।'इन्द्र’जी के अलावा कुमार रवीन्द्र, डॉ॰ रामसनेही लाल शर्मा यायावर’, डॉ॰ जितेन्द्रनाथ मिश्र, मधुकर अष्ठाना, डॉ॰ श्रीराम परिहार, डॉ॰ ओमप्रकाश सिंह, डॉ॰ विष्णु विराट, वीरेन्द्र आस्तिक, योगेन्द्र दत्त शर्मा तथा डॉ॰ शिवकुमार मिश्र ने इन रचनाओं के माध्यम से महेन्द्रजी के रचनाकर्म पर सारगर्भित विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं।  विवेचनाएँ कमोबेश उपर्युक्त वर्ण्य विन्दुओं के सापेक्ष ही हुई हैं तथा महेन्द्रजी की रचनाओं को नवगीतों की कसौटी पर परखने का सार्थक प्रयास हुआ है।  इन विवेचनाओं को यदि ध्यान से देखा जाय तो सभी मान्यवर समवेत स्वर में यही कहते हैं, कि महेन्द्रजी की रचनाओं में जहाँ एक ओर युवा मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है, तो दूसरी ओर जीवन-पथ पर चलते-गिरते-उठते आमजन की हताशा, अवसाद, उसका असमंजस या छटपटाहट भी है।  विश्वासी मन की ललकार है, तो अव्यवहार के विरुद्ध चेतावनी के ठोस स्वर भी हैं।  इन रचनाओं में भविष्य के प्रति आशा है, तो वयस्क मन के स्थावर हो चुके अनुभव, तदनुरूप संतुलित सोच भी है।  जहाँ एक ओर समाज की घृणित विरूपता और विद्रूपता है, तो समय की क्रूरता से विचलित मनोदशा भी है, जहाँ अपरिहार्य प्रगति के दबाव भी हैं।  ऐसी किसी लँगड़ी प्रगति में न चाहते हुए भी बहने की विवशता भी है।  परन्तु, यह भी सही है कि आपकी रचनाओं में शाश्वत आचरणों के प्रति गहन आस्था है।  सर्वोपरि, सबने इस तथ्य को अवश्य स्वीकारा है, कि, महेन्द्रजी की कविताओं में जीवन के प्रति असीम राग है।  रचनाओं में जीवन के प्रति यही रागात्मकता आश्वस्त करती है, कि जीवन प्रकृति का श्रेष्ठतम वरदान है।  महेन्द्रजी इस वरदान को हर तरह से स्वीकार करते हैं।  कहना न होगा, महेन्द्रजी के रचनाकर्म में जीवन अपने विभिन्न रूपों में दिखने के बावज़ूद अपने स्थायी स्वरूप में ही विद्यमान है। 


छायावादोत्तर काल की रचनओं में भी प्रकृति से लिये गये बिम्बों का प्रारूप कई वर्षों तक पूर्ववत ही बना रहा था।  यद्यपि रचनाएँ यथार्थ के धरातल उतरने लगी थीं।  किन्तु, मानवीय आचरण को रूपायित करते गीतकार तब भी वन-प्रांतर से लिये गये बिम्बों के माध्यम से मनस-रहस्यों के जाल बुन रहे थे।  यह अवश्य है कि कवियों का एक वर्ग वर्तमान की विसंगतियों के विरोध में आमजन के मन की खौंझ को शाब्दिक करने के प्रयास में रचनारत था।  अभिव्यक्ति के नये साधन ढूँढे जा रहे थे।  इस क्रम में यदि कहा जाय कि नवगीत अपने प्रोटोटाइप रूप में ही सही, परन्तु, दिखने लगा था, तो अतिशयोक्ति न होगी।  गीत नये बिम्बों और शिल्प में अपनायी जा रही नवता तथा काव्य-चेतना में आयी प्रखरता के कारण नये कलेवर में प्रस्तुत हो रहे थे।  इन नये गीतों की भी स्थायी शैल्पिकता गेयता ही थी।  परन्तु कथ्य और इंगितों में बहुआयामी परिवर्तन के रंग-ढंग दिखने लगे थे।  व्यक्तिवाची भाव लोक और समाज की भावनाओं को स्वर देने का प्रयास कर रहे थे।  तथा, 'मनुष्य’ रचनाओं के केन्द्र में स्थापित हो चुका था।  

महेन्द्रजी इस समूचे काल-खण्ड और इन समस्त घटनाओं के साक्षी हैं! उनकी प्रस्तुतियों के शिल्प और कथ्य इस नयेपन से अछूते नहीं थे।  प्रस्तुत काव्य-संग्रह की भूमिका में वीरेन्द्र आस्तिक कहते भी हैं – 'मनुष्य कितने रूपों में समाज में समादृत है, उसका हिसाब-किताब है महेन्द्रभटनागर का रचना-लोक! उनके रचनाकर्म का एक ही लक्ष्य है आदमी का सर्वांग विकास’।  गीत के कलेवर में हो रहा यही व्यापक अंतर आगे चल कर विन्दुवत परिभाषित हुआ।  गीत की भावभूमि से उठा यथार्थवादी वैचारिक दृष्टिकोण 'नवगीत’ के रूप में सामने आया।  गीत तथा नवगीत के मध्य विधागत अंतर को रेखांकित करते हुए डॉ॰ भारतेन्दु मिश्र ने कहा है, कि, 'गीत के पारम्परिक विषय प्रणय, आकर्षण, मनस्ताप, करुणा, विरह, दार्शनिकता और रहस्यवाद की अभिव्यक्ति रहे हैं, नवगीत में इनकी आवश्यकता नहीं है।  नवगीत में वैयक्तिकता का एक तरह से विरोध ही है’।  तात्पर्य है कि नवगीत लोकोन्मुख हुआ करते हैं।  डॉ॰ भारतेन्दु मिश्र इसी विन्दु को आगे स्पष्ट भी करते हैं - 'यहाँ लोकोन्मुखता से तात्पर्य लोक-जीवन की विसंगतियों लोकधुनों तथा लोक जीवन में व्याप्त जनमानस की संवेदना के रूप में देखा जाना चाहिये।  लोकोन्मुखता को व्यापक जनमानस की संवेदना के रूप में देख जाना अनिवार्य है’।  यहाँ यह समझना आवश्यक होगा, कि 'लोक’ का निहितार्थ केवल ग्रामीण परिवेश नहीं है।  शहरों में जी रहे व्यक्ति के लिए 'लोक’ शहरी जीवन के समस्त आयामों से प्रभावित हुआ शब्द ही होगा।  प्रसन्नता है, कि इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष काव्य-संग्रह की रचनाओं का आकलन हुआ है।  आदरणीय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र’ स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - 'मुझे यह स्वीकार करते हुए तनिक द्विधा नहीं है कि महेन्द्र भटनागर भले सोलहों-आना नवगीतकार न हों, किन्तु उनके इन विचारणीय गीतों में 'नवगीतात्मकता’ का तत्व लबालब है’।  

जैसा कि उपर्युक्त वाक्यों से स्पष्ट हुआ है, महेन्द्रजी का तब का समय नवगीतों के माँस-पिण्ड आकार-ग्रहण का समय था।  कई करवटों के बाद ही नवगीत का यह आधुनिक स्वरूप प्रसूत हुआ।  यानी, महेन्द्रजी की इन रचनाओं में नवगीत के प्रोटोटाइप प्रारूप की झाँकी अवश्य परिलक्षित होती है।  रचनाओं के शिल्पगत लय के सम्बन्ध में इन्द्रजी पुनः कहते हैं - 'महेन्द्र भटनागर के प्रतिपाद्य गीतों में 'छन्दों की बुनावट’ भले ही न हो, किन्तु वे लय की कसौटी पर खरे उतरते हैं’।  

'इन्द्र’ जी का ऐसा कहना इन रचनाओं की समीक्षा हेतु एक नयी दृष्टि अपनाने का आह्वान करता है।  आखिर शब्दों में गेयता मात्र लय-संयोग या शब्दों की मात्रिकता के कारण नहीं होती।  तो क्या महेन्द्रजी गेयता-निर्वहन के लिए शब्दों की मात्रिकता के अलावा अन्य प्रभावी कारणों का प्रयोग कर रहे थे? यदि हाँ, तो उसकी गंभीर पड़ताल अन्य विद्वानों ने क्यों नहीं की, जिनकी इस संग्रह में भूमिकाएँ हैं? डॉ॰  रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर’ ने इस संदर्भ में एक प्रयास अवश्य किया है।  परन्तु, समस्त नम्रता के साथ मैं अवश्य कहूँगा, कि वे भी अपनी दृष्टि को व्यापक नहीं कर सके हैं।  पंक्तियों की मात्रिकता में एकरूपता की खोज़ उन्होंने अवश्य करनी चाही है।  परन्तु जितनी सहजता वे पंक्तियों में चाहते हैं, महेन्द्रजी ने वैसी सहजता को प्रश्रय दिया नहीं है।  बाकी विद्वानों ने महेन्द्रजी की भावभूमि का ही खनन किया है? सभी ने संग्रह की रचनाओं की 'भावभूमि’ पर अपनी-अपनी भूमिकाओं में बहुत कुछ कहा है।  परन्तु, यह 'बहुत कुछ’ इन 'लयबद्ध’ रचनाओं के लिए तबतक 'बहुत कुछ’ नहीं हो सकता, जबतक 'लय’ के कारकों की पड़ताल न हो जाय! क्योंकि, इन्द्रजी के कहे का संकेत यदि समझा जाय तो यह अवश्य है कि ये रचनाएँ शास्त्रीय छन्दों या अनुछन्दों को थाम कर साहित्य की वैतरिणी पार करती नहीं दिखतीं।  मैं इस उद्घोषणा से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ।  वस्तुतः प्रारम्भ से लेकर आजतक जो भी नवगीत लिखे गये हैं, वे अपने बिम्बों और कथ्य के कारण गीतों से प्रच्छन्न तो हैं ही, शिल्प और शब्द-संयोजन के क्रम में भी वे छन्दों का हू-ब-हू अनुकरण नहीं करते।  यह नवगीतों का दोष नहीं, अपितु इनकी विशिष्टता है।  छन्दों के विभिन्न रूपों या सुमेलों या टुकड़ों से नवगीतों की पंक्तियों का निर्वहन हुआ करता है।  महेन्द्रजी की रचनाएँ इससे अलग नहीं हैं।  यदि कोई अंतर है तो इनकी रचनाओं में पंक्तियों का एकस्वरूप न होना! क्यों न हम इन रचनाओं की मात्रिकता, या वर्णिकता, के व्यवहार पर अपनी दृष्टि को ज़ूम-इन करें! 

संग्रह की एक रचना 'जीवन’ की कुछ पंक्तियों को देखते हैं - 

जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा 
जो खिल रहा है आज, 
कल झर जायगा! 
इसलिए, हर पल विरल 
परिपूर्ण हो रस-रंग से, 
मधु-प्यार से! 
डोलता अविरल रहे हर उर 
उमंगों के उमड़ते ज्वार से!  

स्पष्ट है, कि रचना की पंक्तियों में अंतर्गेयता का तार्किक निर्वहन हुआ है।  लय-भंगता नहीं है।  पंक्तियों को यदि शब्द-कलों के मानकों के अनुसार देखें तो शब्द-संयोजन 'हरिगीतिका’ छन्द से 'अनुप्राणित’ है।  परन्तु, संग्रह की अन्य रचनाओं को परखने के क्रम में प्रतीत होता है कि महेन्द्रजी इन रचनाओं में लयता के लिए शास्त्रीय छन्दों से 'अनुप्राणित’ या 'प्रभावित’ होने के स्थान पर उर्दू बहरों या उनके ज़िहाफ़ (शास्त्रीय परिवर्तन) समर्थित अर्कान पर निर्भर करते हैं।  

कहने का तात्पर्य यह है, महेन्द्रजी ने नवगीतों के आरम्भिक समय में ही छन्द से मुक्ति पर प्रयास प्रारम्भ कर दिया था।  वे फिर भटके नहीं।  उन्होंने रचनाओं की पंक्तियों में अंतर्गेयता के निर्वहन का भरसक प्रयत्न किया है।  यह अवश्य है कि उर्दू बहरों के प्रयोग ने, संभव है, कई छन्द शास्त्रियों को चौंकाया होगा।  तभी देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र’ जी को इन रचनाओं की शैल्पिक दशा, बिम्ब-प्रयोग तथा अंतिम प्रभाव के आधार पर यह कहने में किंचित संकोच नहीं होता - 'उनमें (महेन्द्रजी की रचनाओं में) छन्दोमुक्त गद्यात्मकता और सपाटबयानी कहीं नहीं मिलती।  मैंने इसीलिए उन्हें 'नवगीत’ न कह कर ’नवगीतात्मक’ कहा है’।  

आगे 'इन्द्र’जी अपने कहे को और स्पष्ट करते हैं - 'इन गीतों को 'नवगीतात्मक’ कहने का कहने का आशय उन्हें कमतर मानने का कतई नहीं है।  इस शैली में छायावाद / प्रगतिवाद के परवर्ती रचनाकारों ने प्रचूर मात्रा में लिखा है।   गीत के लिए जितना छन्द आवश्यक है, उतनी ही लय।  लय यदि आत्मा है तो छन्द उसको धारण करने वाला कलेवर है। छन्दोभंग की स्थिति तभी आती है जब रचनाकार का लय पर अभीष्ट अधिकार न हो।  भिन्न-भिन्न लयानुबन्धों से ही विविध प्रकार के छन्द जन्म लेते हैं,  वैसे ही उन लयों से निर्मित मुक्त-छन्द के रूप भी अनेकानेक हो सकते हैं।  महेन्द्र भटनागर को लय का पूरा ज्ञान है’। 

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संग्रह- महेन्द्र भटनागर के नवगीत दृष्टि और सृष्टि, संपादक- 'देवेन्द्र शर्मा इन्द्र', प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२०१४, मूल्य- १३० रूपये , पृष्ठ- १५०, परिचय- सौरभ पांडेय।

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