रविवार, 28 जून 2015

हम जंगल के अमलतास - आचार्य भगवत दुबे

विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं। इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल  में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता। ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं। संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:

                       नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं 
                       जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं 
                                              की सरगम तैयार नये संगीत की 
                       कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं 
                       छोटी सी गागर में सागर भरते हैं 
                                              जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की 
                       जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं 
                       गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं 
                                              लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की 
                                              अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की 

सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं। इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है। प्रो। देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं। उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं। अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है।' 

निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व। राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व। शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती। सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है। दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव  में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर' 

यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेवर ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'...   किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है। अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'। युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं। 

राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली'  प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है। अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:

कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता 
कभी वसंत सुहाना 
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न 
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके 
हों हम मुक्त ऋणों से 

नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:

ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...

...।।भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब 
     हार में भी जीत का निश्चय हुआ है। 

प्रो। विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं।'

सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'

मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार  रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े।'' 

नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है। विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं।

इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है। दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं। उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है।' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है।
--------------------------------------------------
संग्रह- हम जंगल के अमलतास, रचनाकार- आचार्य भगवत दुबे, कादंबरी प्रकाशन, २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, प्रथम संस्करण-२००८, मूल्य- १५० रूपये , पृष्ठ- १२०, परिचय- संजीव सलिल।

रविवार, 21 जून 2015

महेन्द्र भटनागर के नवगीत - सं. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'

छः दशकों के काल-खण्ड में क्रियाशील व्यक्ति की रचनाधर्मिता के संभाव्य नहीं, कुल प्राप्य पर चर्चा होनी चाहिये।  इतने लम्बे काल-खण्ड में किसी सक्रिय रचनाकर्मी के शब्द-कर्म के प्रभाव को साहित्य के स्वरूप में आये परिवर्तनों के सापेक्ष आँकना अधिक उचित होगा।  इस क्रम में शाब्दिक हुई मनोदशा या तदनुरूप मनोभावों के आगे, रचनाकर्म के शैल्पिक स्वरूप, कथ्य में निहित भावों में स्थायित्व, बिम्बों की पहुँच तथा प्रभाव, रचनाकर्म का उद्येश्य तथा लक्ष्य आदि जैसे विन्दु यदि चर्चा का आधार बनें, तो अवश्य ही रचनाकर्म के सापेक्ष रचनाकार के कई पहलू स्पष्ट होंगे।  ऐसा कोई प्रयास वर्तमान के साहित्य-यात्रियों के लिए भी सार्थक मार्ग-इंगित होगा।  महेन्द्रभटनागर की रचना-यात्रा छः दशकों से अनवरत है।  उनके सामने हिन्दी पद्य-साहित्य ने विभिन्न परिवर्तनों को जिया है।  


सम्पादक के तौर पर देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र’ जी ने महेन्द्र भटनागर की न केवल रचना-यात्रा एवं अभीष्ट को रेखांकित किया है, बल्कि नवगीत के क्षेत्र के अन्य दस मान्य पुरोधाओं के विचार भी संकलित किये हैं।'इन्द्र’जी के अलावा कुमार रवीन्द्र, डॉ॰ रामसनेही लाल शर्मा यायावर’, डॉ॰ जितेन्द्रनाथ मिश्र, मधुकर अष्ठाना, डॉ॰ श्रीराम परिहार, डॉ॰ ओमप्रकाश सिंह, डॉ॰ विष्णु विराट, वीरेन्द्र आस्तिक, योगेन्द्र दत्त शर्मा तथा डॉ॰ शिवकुमार मिश्र ने इन रचनाओं के माध्यम से महेन्द्रजी के रचनाकर्म पर सारगर्भित विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं।  विवेचनाएँ कमोबेश उपर्युक्त वर्ण्य विन्दुओं के सापेक्ष ही हुई हैं तथा महेन्द्रजी की रचनाओं को नवगीतों की कसौटी पर परखने का सार्थक प्रयास हुआ है।  इन विवेचनाओं को यदि ध्यान से देखा जाय तो सभी मान्यवर समवेत स्वर में यही कहते हैं, कि महेन्द्रजी की रचनाओं में जहाँ एक ओर युवा मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है, तो दूसरी ओर जीवन-पथ पर चलते-गिरते-उठते आमजन की हताशा, अवसाद, उसका असमंजस या छटपटाहट भी है।  विश्वासी मन की ललकार है, तो अव्यवहार के विरुद्ध चेतावनी के ठोस स्वर भी हैं।  इन रचनाओं में भविष्य के प्रति आशा है, तो वयस्क मन के स्थावर हो चुके अनुभव, तदनुरूप संतुलित सोच भी है।  जहाँ एक ओर समाज की घृणित विरूपता और विद्रूपता है, तो समय की क्रूरता से विचलित मनोदशा भी है, जहाँ अपरिहार्य प्रगति के दबाव भी हैं।  ऐसी किसी लँगड़ी प्रगति में न चाहते हुए भी बहने की विवशता भी है।  परन्तु, यह भी सही है कि आपकी रचनाओं में शाश्वत आचरणों के प्रति गहन आस्था है।  सर्वोपरि, सबने इस तथ्य को अवश्य स्वीकारा है, कि, महेन्द्रजी की कविताओं में जीवन के प्रति असीम राग है।  रचनाओं में जीवन के प्रति यही रागात्मकता आश्वस्त करती है, कि जीवन प्रकृति का श्रेष्ठतम वरदान है।  महेन्द्रजी इस वरदान को हर तरह से स्वीकार करते हैं।  कहना न होगा, महेन्द्रजी के रचनाकर्म में जीवन अपने विभिन्न रूपों में दिखने के बावज़ूद अपने स्थायी स्वरूप में ही विद्यमान है। 


छायावादोत्तर काल की रचनओं में भी प्रकृति से लिये गये बिम्बों का प्रारूप कई वर्षों तक पूर्ववत ही बना रहा था।  यद्यपि रचनाएँ यथार्थ के धरातल उतरने लगी थीं।  किन्तु, मानवीय आचरण को रूपायित करते गीतकार तब भी वन-प्रांतर से लिये गये बिम्बों के माध्यम से मनस-रहस्यों के जाल बुन रहे थे।  यह अवश्य है कि कवियों का एक वर्ग वर्तमान की विसंगतियों के विरोध में आमजन के मन की खौंझ को शाब्दिक करने के प्रयास में रचनारत था।  अभिव्यक्ति के नये साधन ढूँढे जा रहे थे।  इस क्रम में यदि कहा जाय कि नवगीत अपने प्रोटोटाइप रूप में ही सही, परन्तु, दिखने लगा था, तो अतिशयोक्ति न होगी।  गीत नये बिम्बों और शिल्प में अपनायी जा रही नवता तथा काव्य-चेतना में आयी प्रखरता के कारण नये कलेवर में प्रस्तुत हो रहे थे।  इन नये गीतों की भी स्थायी शैल्पिकता गेयता ही थी।  परन्तु कथ्य और इंगितों में बहुआयामी परिवर्तन के रंग-ढंग दिखने लगे थे।  व्यक्तिवाची भाव लोक और समाज की भावनाओं को स्वर देने का प्रयास कर रहे थे।  तथा, 'मनुष्य’ रचनाओं के केन्द्र में स्थापित हो चुका था।  

महेन्द्रजी इस समूचे काल-खण्ड और इन समस्त घटनाओं के साक्षी हैं! उनकी प्रस्तुतियों के शिल्प और कथ्य इस नयेपन से अछूते नहीं थे।  प्रस्तुत काव्य-संग्रह की भूमिका में वीरेन्द्र आस्तिक कहते भी हैं – 'मनुष्य कितने रूपों में समाज में समादृत है, उसका हिसाब-किताब है महेन्द्रभटनागर का रचना-लोक! उनके रचनाकर्म का एक ही लक्ष्य है आदमी का सर्वांग विकास’।  गीत के कलेवर में हो रहा यही व्यापक अंतर आगे चल कर विन्दुवत परिभाषित हुआ।  गीत की भावभूमि से उठा यथार्थवादी वैचारिक दृष्टिकोण 'नवगीत’ के रूप में सामने आया।  गीत तथा नवगीत के मध्य विधागत अंतर को रेखांकित करते हुए डॉ॰ भारतेन्दु मिश्र ने कहा है, कि, 'गीत के पारम्परिक विषय प्रणय, आकर्षण, मनस्ताप, करुणा, विरह, दार्शनिकता और रहस्यवाद की अभिव्यक्ति रहे हैं, नवगीत में इनकी आवश्यकता नहीं है।  नवगीत में वैयक्तिकता का एक तरह से विरोध ही है’।  तात्पर्य है कि नवगीत लोकोन्मुख हुआ करते हैं।  डॉ॰ भारतेन्दु मिश्र इसी विन्दु को आगे स्पष्ट भी करते हैं - 'यहाँ लोकोन्मुखता से तात्पर्य लोक-जीवन की विसंगतियों लोकधुनों तथा लोक जीवन में व्याप्त जनमानस की संवेदना के रूप में देखा जाना चाहिये।  लोकोन्मुखता को व्यापक जनमानस की संवेदना के रूप में देख जाना अनिवार्य है’।  यहाँ यह समझना आवश्यक होगा, कि 'लोक’ का निहितार्थ केवल ग्रामीण परिवेश नहीं है।  शहरों में जी रहे व्यक्ति के लिए 'लोक’ शहरी जीवन के समस्त आयामों से प्रभावित हुआ शब्द ही होगा।  प्रसन्नता है, कि इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष काव्य-संग्रह की रचनाओं का आकलन हुआ है।  आदरणीय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र’ स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - 'मुझे यह स्वीकार करते हुए तनिक द्विधा नहीं है कि महेन्द्र भटनागर भले सोलहों-आना नवगीतकार न हों, किन्तु उनके इन विचारणीय गीतों में 'नवगीतात्मकता’ का तत्व लबालब है’।  

जैसा कि उपर्युक्त वाक्यों से स्पष्ट हुआ है, महेन्द्रजी का तब का समय नवगीतों के माँस-पिण्ड आकार-ग्रहण का समय था।  कई करवटों के बाद ही नवगीत का यह आधुनिक स्वरूप प्रसूत हुआ।  यानी, महेन्द्रजी की इन रचनाओं में नवगीत के प्रोटोटाइप प्रारूप की झाँकी अवश्य परिलक्षित होती है।  रचनाओं के शिल्पगत लय के सम्बन्ध में इन्द्रजी पुनः कहते हैं - 'महेन्द्र भटनागर के प्रतिपाद्य गीतों में 'छन्दों की बुनावट’ भले ही न हो, किन्तु वे लय की कसौटी पर खरे उतरते हैं’।  

'इन्द्र’ जी का ऐसा कहना इन रचनाओं की समीक्षा हेतु एक नयी दृष्टि अपनाने का आह्वान करता है।  आखिर शब्दों में गेयता मात्र लय-संयोग या शब्दों की मात्रिकता के कारण नहीं होती।  तो क्या महेन्द्रजी गेयता-निर्वहन के लिए शब्दों की मात्रिकता के अलावा अन्य प्रभावी कारणों का प्रयोग कर रहे थे? यदि हाँ, तो उसकी गंभीर पड़ताल अन्य विद्वानों ने क्यों नहीं की, जिनकी इस संग्रह में भूमिकाएँ हैं? डॉ॰  रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर’ ने इस संदर्भ में एक प्रयास अवश्य किया है।  परन्तु, समस्त नम्रता के साथ मैं अवश्य कहूँगा, कि वे भी अपनी दृष्टि को व्यापक नहीं कर सके हैं।  पंक्तियों की मात्रिकता में एकरूपता की खोज़ उन्होंने अवश्य करनी चाही है।  परन्तु जितनी सहजता वे पंक्तियों में चाहते हैं, महेन्द्रजी ने वैसी सहजता को प्रश्रय दिया नहीं है।  बाकी विद्वानों ने महेन्द्रजी की भावभूमि का ही खनन किया है? सभी ने संग्रह की रचनाओं की 'भावभूमि’ पर अपनी-अपनी भूमिकाओं में बहुत कुछ कहा है।  परन्तु, यह 'बहुत कुछ’ इन 'लयबद्ध’ रचनाओं के लिए तबतक 'बहुत कुछ’ नहीं हो सकता, जबतक 'लय’ के कारकों की पड़ताल न हो जाय! क्योंकि, इन्द्रजी के कहे का संकेत यदि समझा जाय तो यह अवश्य है कि ये रचनाएँ शास्त्रीय छन्दों या अनुछन्दों को थाम कर साहित्य की वैतरिणी पार करती नहीं दिखतीं।  मैं इस उद्घोषणा से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ।  वस्तुतः प्रारम्भ से लेकर आजतक जो भी नवगीत लिखे गये हैं, वे अपने बिम्बों और कथ्य के कारण गीतों से प्रच्छन्न तो हैं ही, शिल्प और शब्द-संयोजन के क्रम में भी वे छन्दों का हू-ब-हू अनुकरण नहीं करते।  यह नवगीतों का दोष नहीं, अपितु इनकी विशिष्टता है।  छन्दों के विभिन्न रूपों या सुमेलों या टुकड़ों से नवगीतों की पंक्तियों का निर्वहन हुआ करता है।  महेन्द्रजी की रचनाएँ इससे अलग नहीं हैं।  यदि कोई अंतर है तो इनकी रचनाओं में पंक्तियों का एकस्वरूप न होना! क्यों न हम इन रचनाओं की मात्रिकता, या वर्णिकता, के व्यवहार पर अपनी दृष्टि को ज़ूम-इन करें! 

संग्रह की एक रचना 'जीवन’ की कुछ पंक्तियों को देखते हैं - 

जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा 
जो खिल रहा है आज, 
कल झर जायगा! 
इसलिए, हर पल विरल 
परिपूर्ण हो रस-रंग से, 
मधु-प्यार से! 
डोलता अविरल रहे हर उर 
उमंगों के उमड़ते ज्वार से!  

स्पष्ट है, कि रचना की पंक्तियों में अंतर्गेयता का तार्किक निर्वहन हुआ है।  लय-भंगता नहीं है।  पंक्तियों को यदि शब्द-कलों के मानकों के अनुसार देखें तो शब्द-संयोजन 'हरिगीतिका’ छन्द से 'अनुप्राणित’ है।  परन्तु, संग्रह की अन्य रचनाओं को परखने के क्रम में प्रतीत होता है कि महेन्द्रजी इन रचनाओं में लयता के लिए शास्त्रीय छन्दों से 'अनुप्राणित’ या 'प्रभावित’ होने के स्थान पर उर्दू बहरों या उनके ज़िहाफ़ (शास्त्रीय परिवर्तन) समर्थित अर्कान पर निर्भर करते हैं।  

कहने का तात्पर्य यह है, महेन्द्रजी ने नवगीतों के आरम्भिक समय में ही छन्द से मुक्ति पर प्रयास प्रारम्भ कर दिया था।  वे फिर भटके नहीं।  उन्होंने रचनाओं की पंक्तियों में अंतर्गेयता के निर्वहन का भरसक प्रयत्न किया है।  यह अवश्य है कि उर्दू बहरों के प्रयोग ने, संभव है, कई छन्द शास्त्रियों को चौंकाया होगा।  तभी देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र’ जी को इन रचनाओं की शैल्पिक दशा, बिम्ब-प्रयोग तथा अंतिम प्रभाव के आधार पर यह कहने में किंचित संकोच नहीं होता - 'उनमें (महेन्द्रजी की रचनाओं में) छन्दोमुक्त गद्यात्मकता और सपाटबयानी कहीं नहीं मिलती।  मैंने इसीलिए उन्हें 'नवगीत’ न कह कर ’नवगीतात्मक’ कहा है’।  

आगे 'इन्द्र’जी अपने कहे को और स्पष्ट करते हैं - 'इन गीतों को 'नवगीतात्मक’ कहने का कहने का आशय उन्हें कमतर मानने का कतई नहीं है।  इस शैली में छायावाद / प्रगतिवाद के परवर्ती रचनाकारों ने प्रचूर मात्रा में लिखा है।   गीत के लिए जितना छन्द आवश्यक है, उतनी ही लय।  लय यदि आत्मा है तो छन्द उसको धारण करने वाला कलेवर है। छन्दोभंग की स्थिति तभी आती है जब रचनाकार का लय पर अभीष्ट अधिकार न हो।  भिन्न-भिन्न लयानुबन्धों से ही विविध प्रकार के छन्द जन्म लेते हैं,  वैसे ही उन लयों से निर्मित मुक्त-छन्द के रूप भी अनेकानेक हो सकते हैं।  महेन्द्र भटनागर को लय का पूरा ज्ञान है’। 

--------------------------------------------------
संग्रह- महेन्द्र भटनागर के नवगीत दृष्टि और सृष्टि, संपादक- 'देवेन्द्र शर्मा इन्द्र', प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२०१४, मूल्य- १३० रूपये , पृष्ठ- १५०, परिचय- सौरभ पांडेय।

सोमवार, 15 जून 2015

नवगीत के नये प्रतिमान- सं. राधेश्याम बंधु

नवगीत को हिंदी समालोचना के दिग्गजों द्वारा अनदेखा किया जाने के बावजूद वह जनवाणी बनकर उनके कानों में प्रविष्ट हो गया है। फलतः, नवगीत के मूल्यांकन के गंभीर प्रयास हो रहे हैं। नवगीत की नवता-परीक्षण के प्रतिमानों के अन्वेषण का दुरूह कार्य सहजता से करने का पौरुष दिखाया है श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने। नवगीत के नये प्रतिमानों पर चर्चा करता सम्पादकीय खंड आलोचना और सौन्दर्य बोध, वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद, प्रयोगवाद और लोकधर्मी प्रयोग, इतिहासबोध: उद्भव और विकास, लोकचेतना और चुनौतियाँ, नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता, छंद और लय की प्रयोजनशीलता, मूल्यान्वेषण की दृष्टि और उसका समष्टिवाद, वैज्ञानिक और वैश्विक युगबोध, सामाजिक चेतना और जनसंवादधर्मिता, वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना तथा जियो और जीने दो आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित है। यह खंड कृतिकार के गहन और व्यापक अध्ययन-मनन से उपजे विचारों के मंथन से निसृत विचार-मुक्ताओं से समृद्ध-संपन्न है। 

परिचर्चा खंड में डॉ। नामवर सिंह, डॉ। विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ। नित्यानंद तिवारी, डॉ। मैनेजर पाण्डेय, डॉ। मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, डॉ। परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ। विमल, रामकुमार कृषक जैसे विद्वज्जनों ने हिचकते-ठिठकते हुए ही सही नवगीत के विविध पक्षों का विचारण किया है। यह खंड अधिक विस्तार पा सकता तो शोधार्थियों को अधिक संतुष्ट कर पाता। वर्तमान रूप में भी यह उन बिन्दुओं को समाविष्ट किये है जिनपर भविष्य में प्रासाद निर्मित किये का सकते हैं। 

sसमीक्षात्मक आलेख खंड के अंतर्गत डॉ। शिव कुमार मिश्र ने नवगीत पर भूमंडलीकरण के प्रभाव और वर्तमान की चुनौतियाँ, डॉ। श्री राम परिहार ने नवगीत की नयी वस्तु और उसका नया रूप, डॉ। प्रेमशंकर ने लोकचेतना और उसका युगबोध, डॉ। प्रेमशंकर रघुवंशी ने गीत प्रगीत और नयी कविता का सच्चा उत्तराधिकारी नवगीत, डॉ। वेदप्रकाश अमिताभ ने सामाजिक चेतना और चुनौतियाँ, डॉ। भारतेंदु मिश्र ने आलोचना की असंगतियाँ, डॉ। सुरेश उजाला ने विकास में लघु पत्रिकाओं का योगदान, डॉ। वशिष्ठ अनूप ने नईम के लोकधर्मी नवगीत, महेंद्र नेह ने रमेश रंजक के अवदान, लालसालाल तरंग ने कुछ नवगीत संग्रहों, डॉ। रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने गीत-नवगीत की तुलनात्मक रचनाशीलता तथा डॉ। राजेन्द्र गौतम ने नवगीत के जनोन्मुखी परिदृश्य पर उपयोगी आलेख प्रस्तुत किये हैं। 

विरासत खंड में निराला जी, माखनलाल जी, नागार्जुन जी, अज्ञेय जी, केदारनाथ अग्रवाल जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, धर्मवीर भारती जी, देवेन्द्र कुमार, नईम, डॉ। शंभुनाथ सिंह, रमेश रंजक तथा वीरेंद्र मिश्र का समावेश है। यह खंड नवगीत के विकास और विविधता का परिचायक है।

’नवगीत के हस्ताक्षर’ तथा ‘नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ खंड में लेखक ने ७० तथा ६० नवगीतकारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के उन प्रमुख नवगीतकारों को सम्मिलित किया है जिनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उसके पढ़ने में आ सकीं। ऐसे खण्डों में नाम जोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रह सकती है। इसके पूरक खंड भी हो सकते हैं और पुस्तक के अगले संस्करण में संवर्धन भी किया जा सकता है। 

बंधु जी नवगीत विधा से लम्बे समय से जुड़े हैं। वे नवगीत विधा के उत्स, विकास, वस्तुनिष्ठता, अवरोधों, अवहेलना, संघर्षों तथा प्रमाणिकता से सुपरिचित हैं। फलत: नवगीत के विविध पक्षों का आकलन कर संतुलित विवेचन, विविध आयामों का सम्यक समायोजन कर सके हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनका निष्पक्ष और निर्वैर्य होना। व्यक्तिगत चर्चा में भी वे इस कृति और इसमें सम्मिलित अथवा बारंबार प्रयास के बाद भी असम्मिलित हस्ताक्षरों के अवदान के मूल्यांकन प्रति समभावी रहे हैं। इस सारस्वत अनुष्ठान में जो महानुभाव सम्मिलित नहीं हुए वे महाभागी हैं अथवा नहीं स्वयं सोचें और भविष्य में ऐसे गंभीर प्रयासों के सहयोगी हों तो नवगीत और सकल साहित्य के लिये हितकर होगा। 

डॉ। शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है: ‘डॉ। राधेश्याम बंधु का यह प्रयास नवगीत को उसके समूचे विकासक्रम, उसकी मूल्यवत्ता और उसकी संभावनाओं के साथ समझने की दिशा में एक स्तुत्य प्रयास माना जायेगा।’ कृतिकार जानकारी और संपर्क के आभाव में कृति में सम्मिलित न किये जा सके अनेक हस्ताक्षरों को जड़ते हुए इसका अगला खंड प्रकाशित करा सकें तो शोधार्थियों का बहुत भला होगा। 

‘नवगीत के नये प्रतिमान’ समकालिक नवगीतकारों के एक-एक गीत तो आमने लाता है किन्तु उनके अवदान, वैशिष्ट्य अथवा न्यूनताओं का संकेतन नहीं करता। सम्भवत: यह लेखक का उद्देश्य भी नहीं है। यह एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी है। इसकी उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती यदि परिशिष्ट में अब तक प्रकाशित प्रमुख नवगीत संग्रहों तथा नवगीत पर केन्द्रित समलोचकीय पुस्तकों के रचनाकारों, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशक आदि तथा नवगीतों पर हुए शोधकार्य, शोधकर्ता, वर्ष तथा विश्वविद्यालय की जानकारी दी जा सकती। 

ग्रन्थ का मुद्रण स्पष्ट, आवरण आकर्षक, बँधाई मजबूत और मूल्य सामग्री की प्रचुरता और गुणवत्ता के अनुपात में अल्प है। पाठ्यशुद्धि की ओर सजगता ने त्रुटियों के लिये स्थान लगभग नहीं छोड़ा है।
--------------------------------------------------
समीक्ष्य संकलन- नवगीत के नये प्रतिमान, संपादक- राधेश्याम बंधु, प्रकाशक- कोणार्क प्रकाशन, बी-3/163 यमुना विहार, दिल्ली-110053, प्रथम संस्करण-२०१२, मूल्य- ५०० रूपये , पृष्ठ- ४६४, परिचय- संजीव सलिल।

रविवार, 7 जून 2015

साँझी साँझ- आनंद कुमार गौरव

सुरीले व महत्वपूर्ण गीतकवि आनंद कुमार ‘गौरव’ की सद्यः प्रकाशित पाँचवीं कृति ‘साँझी-साँझ’ (गीत-संग्रह) के गीतों से गुज़रते हुए गीत से नवगीत तक की विकास-यात्रा स्पष्ट दिखाई देती है। इस कृति के कुल ७९ गीतों में जहाँ एक ओर गीत के परंपरावादी स्वर की मिठास भरी अनुगूँज है वहीं दूसरी ओर वर्तमान के यथार्थ का खुरदुरा अहसास भी अपनी उपस्थिति मजबूती के साथ दर्ज़ कराता है। 

‘साँझी-साँझ’ (गीत-संग्रह) ऐसे विद्रूप समय में आया है जब ‘साँझा’ शब्द ही कहीं खो गया-सा लगता है। संयुक्त परिवारों की परंपरा अब दिखाई नहीं देती, मुहल्लेदारी और आपसदारी जैसे शब्द अर्थहीन-से हो गए हैं और रिश्तों-नातों का निभाव महज औपचारिक होकर रह गया है फलतः आँगन की मिट्टी से उगने वाले संस्कार, अपनत्व और साँझापन की खुशबू कहीं महसूस नहीं होती। इक्कीसवीं सदी के ऐसे तथाकथित विकास के दिवास्वप्न में जीने वाले आमआदमी की तरह ‘गौरव’ जी भी अपने मन की टीस गीत के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं-

‘पते पर नहीं जो पहुँची
उस चिट्ठी जैसा मन है
रिक्त अंजुली-सा मन है

आहत सब परिभाषाएँ
मुझमें सारी पीड़ाएँ
विवश मौन वाणी जैसी
दबी अनगिनत प्रतिभाएँ
आस का गगन निहारती
खो गई सदी-सा मन है’

एकल परिवार के दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ते जा रहे फैशन के दुष्चक्र में फँसकर नई पीढ़ी तो प्रभावित हो ही रही है, घर के भीतर बुजुर्ग पीढ़ी भी कम आहत नहीं है। बच्चे बड़े होकर जब रोज़गार की ख़ातिर अपनी-अपनी गृहस्थियों के साथ कहीं दूर जाकर बस जाते हैं तो आँगन, बालकनी और कमरों का सन्नाटा बुजुर्गों को बहुत सालता है। ऐसे हालातों में वे बिल्कुल अकेले पड़ जाते हैं, किसी से अपने मन की बात कहने तक को तरस जाते हैं। कोमल कविमन को हर पल जीने वाले ‘गौरव’जी के गीतों में यह संवेदना बड़े ही मार्मिक ढंग से उद्घाटित होती है, एक गीत देखिए-
‘खिड़की से चिपका है दिन
घर सन्नाटा बहता है
आँगन गुमसुम रहता है

श्वाँस-श्वाँस रीते सपने
मुझमें सब जीते अपने
आहट भी मौन हो गई
साँकल के बीते बजने
हूँ परंपरा बिछोह की
चटका दर्पण कहता है’

जैसे राह चलते किसी पथिक को तेज़ धूप की तपिश से बचने के लिए ठंडक भरी छाँव की तलाश होती है उसी तरह परिवार में, समाज में व्याप्त विद्रूपताओं से पल-पल आहत होने के स्थान पर वापस गाँव की ओर लौटने की सलाह देते हैं ‘गौरव’जी, क्योंकि यह सच भी है और उनका मानना भी कि गाँव की मिट्टी आज भी सांस्कृतिक-प्रदूषण के प्रकोप से मुक्त है, वहाँ के लोगों में आपसी मेल-मिलाप आज भी आत्मीयता की चाशनी में पगकर अपनी मिठास का अहसास कराता है और घर के भीतर रिश्तों-नातों में औपचारिकता का संक्रमण नहीं है, इन्हीं अनुभूतियों को पिरोकर वह मन को छू जाने वाली अभिव्यक्ति देते हैं एक गीत में-

‘वहाँ अभी भी रहती है
पीपल-नीमों वाली छाँव
आओ फिर लौट चलें गाँव’

भिन्न-भिन्न संदर्भों, मानसिकताओं और अनुभूतियों में गुंथे इस संग्रह के गीत अपनी इंद्रधनुषी ख़ुशबुओं से पाठक को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। ‘गौरव’जी ने अपने गीतों में जहाँ एक ओर आमआदमी की पीड़ा को बड़ी ही शिद्दत के साथ महसूस करते हुए उकेरा है वहीं दूसरी ओर धुनी हुई रुई की तरह सुकोमल प्रेम को भी मिठास भरे शब्द दिए हैं। हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। पन्त, बच्चन, प्रसाद, नीरज आदि की लम्बी शृंखला है जिन्होंने अपने सृजन में प्रेम को भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया। ‘गौरव’जी के प्रेमगीतों में भी वही परंपरागत स्वर अपनी चुम्बकीय शक्ति के साथ विद्यमान है जिससे पाठक प्रेमानुभूतियों के सागर में डूबकर खिंचा चला आता है। उनका एक हृदयस्पर्शी गीत-

‘आज प्रिय आलिंगन को यूँ, मृदुतम अनुबंधों के स्वर दो
निज आँसू अवसाद पीर सब, मेरे रोम-रोम में भर दो
युग संताप तुम्हारे हर लूँ, पलकें अधरों पर में धर लूँ
गगन दो मुझे यदि प्रसन्न हो, तो मैं सारी पीड़ा वर लूँ
मैं तुममें साधना सँवारूँ, प्रीत-ऋचाओं का निर्झर दो’

हिन्दी के अप्रतिम गीतकवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र ने कहा है-

‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख’

‘गौरव’जी के गीतों के संदर्भ में दादा भवानीप्रसाद मिश्र की उपर्युक्त पंक्तियाँ सौ फीसदी सटीक उतरती हैं, ‘गौरव’जी का व्यक्तित्व भी उनके गीतों की तरह कोमल, संवेदनशील और आत्मीयता की ख़ुशबुओं से भरा हुआ है। तभी तो लखनऊ निवासी वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना ने कहा है- ‘रचनाकार श्री गौरव की उद्भावनाओं का फलक विशाल’ है। ‘साँझी-साँझ’ शीर्षक से यह गीत-संग्रह हिन्दी साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगा और सराहा जायेगा, ऐसी मेरी आशा भी है और विश्वास भी।
--------------------------------------------------
समीक्ष्य संग्रह- साँझी साँझ, रचनाकार- आनंद कुमार 'गौरव', प्रकाशक- नमन प्रकाशन, 4233/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण-२०१५, मूल्य- २०० रूपये , पृष्ठ- १२८, परिचय- योगेन्द्र वर्मा व्योम।

सोमवार, 1 जून 2015

नवगीत : एक परिसंवाद- सं. निर्मल शुक्ल

साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं होता, वह समाज का प्रेरक और निर्माता भी होता है। काव्य मनुष्य के अंतर्मन से नि:स्रत ही नहीं होता, उसे प्रभावित भी करता है। नवगीत नव गति, नव लय, नव ताल, नव छंद से प्रारंभ कर नव संवाद, नव भावबोध, नव युगबोध नव अर्थबोध, नव अभिव्यक्ति तक पहुँच चुका है। नवगीत अब बौद्धिक भद्र लोक से विस्तृत होकर सामान्य जन तक पैठ चुका है। युगीन सत्यों, विसंगतियों, विडंबनाओं, आशाओं, अरमानों तथा अपेक्षाओं से आँखें मिलाता नवगीत समाज के स्वर से स्वर मिलाकर दिशा दर्शन भी कर पा रहा है। अपने छः दशकीय सृजन-काल में नवगीत ने सतही विस्तार के साथ-साथ अटल गहराइयों तथा गगनचुम्बी ऊँचाइयों को भी स्पर्श किया है।

‘नवगीत : एक परिसंवाद’ नवगीत रचना के विविध पक्षों को उद्घाटित करते १४ सुचिंतित आलेखों का सर्वोपयोगी संकलन है। संपादक निर्मल शुक्ल ने भूमिका में ठीक ही कहा है: ‘नवगीत का सृजन एक संवेदनशील रचनाधर्मिता है, रागात्मकता है, गेयता है, एक सम्प्रेषणीयता के लिए शंखनाद है, यह बात और है कि इन साठ वर्षों के अंतराल में हर प्रकार से संपन्न होते हुए भी गीत-नवगीत को अपनी विरासत सौंपने के लिये हिंदी साहित्य के इतिहास के पन्नों पर आज भी एक स्थान नहीं मिल सका है। ’ विवेच्य कृति नवगीत के अस्तित्व व औचित्य को प्रमाणित करते हुए उसकी भूमिका, अवदान और भावी-परिदृश्य पर प्रकाश डालती है।

उत्सव धर्मिता का विस्तृत संसार- पूर्णिमा वर्मन, नवगीत कितना सशक्त कितना अशक्त- वीरेंद्र आस्तिक, नवगीतों में राजनीति और व्यवस्था- विनय भदौरिया, नवगीत में महानगरीय बोध- शैलेन्द्र शर्मा, आज का नवगीत समय से संवाद करने में सक्षम है- निर्मल शुक्ल, नवगीत और नई पीढ़ी- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, हिंदी गीत- कथ्य और तथ्य अवनीश सिंह चौहान, नवगीत के प्रतिमान- शीलेन्द्र सिंह चौहान, गीत का प्रांजल तत्व है नवगीत-आनंद कुमार गौरव, समकालीन नवगीत की अवधारणा और उसके विविध आयाम- ओमप्रकाश सिंह, और उसकी चुनौतियाँ- मधुकर अष्ठाना, नवगीत में लोकतत्व की उपस्थिति- जगदीश व्योम, नवगीत में लोक की भाषा का प्रयोग- श्याम श्रीवास्तव, नवगीत में भारतीय संस्कृति- सत्येन्द्र, ये सभी आलेख पूर्व पोषित अवधारणाओं की पुनर्प्रस्तुति न कर अपनी बात अपने ढंग से, अपने तथ्यों के आधार पर न केवल कहते हैं, अब तक बनी धारणाओं और मान्यताओं का परीक्षण कर नवमूल्य स्थापना का पथ भी प्रशस्त करते हैं।

ख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ठीक ही आकलित करते हैं- ‘परम्परावादी गीतकार अपनी निजता में ही डूबा हुआ होता है, वहीं नवगीत का कवि बोध और समग्रता में गीत के संसार को विस्तार देता है। नवगीत भारतीय सन्दर्भ में अपनी जड़ों की तलाश और पहचान है। उसमें परंपरा और वैज्ञानिक आधुनिकता का संपुट उसे समकालीन बनाता है। नवगीत कवि कठमुल्ला नहीं है, और न उसका विश्वास किसी बाड़े-बंदी में है। वह काव्यत्व का पक्षधर है। इसलिए आज के कविता विरोधी समय में, कविता के अस्तित्व की लड़ाई के अग्रिम मोर्चे पर खड़ा दिखता है। समकालीन जीवन में मनुष्य विरोधी स्थितियों के खिलाफ कारगर हस्तक्षेप का नाम है नवगीत।'

नवगीत- एक परिसंवाद में दोहराव के खतरे के प्रति चेतावनी देती पूर्णिमा वर्मन कहती हैं: “हमारा स्नायु तंत्र ही गीतमय है, इसे रसानुभूति के लिये जो लय और ताल चाहिए वह छंद से ही मिलती है। नवगीत में एक ओर उत्सवधर्मिता का विस्तृत संसार है और दूसरी ओर जनमानस की पीड़ा का गहरा संवेदन है।” वीरेंद्र आस्तिक के अनुसार “नवगीत का अति यथार्थवादी, अतिप्रयोगवादी रुझान खोजपूर्ण मौलिकता से कतराता गया है।” विनय भदौरिया के अनुसार- ‘वस्तुतः नवगीत राजनीति और व्यवस्था के समस्त सन्दर्भों को ग्रहण कर नए शिल्प विधान में टटके बिम्बों एवं प्रतीकों को प्रयोगकर सहज भाषा में सम्प्रेषणीयता के साथ अभिव्यक्त कर रहा है।” शैलेन्द्र शर्मा की दृष्टि में-“वर्तमान समय में समाज में घट रही प्रत्येक घटना की अनुगूँज नवगीतों में स्पष्ट दिखाई देती है।” निर्मल शुक्ल के अनुसार “आज का नवगीत समय से सीधा संवाद कर रहा है और साहित्य तथा समाज को महत्वपूर्ण आयाम दे रहा है, पूरी शिद्दत के साथ, पूरे होशोहवास में।”

नए नवगीतकारों के लेखन के प्रति संदेह रखनेवालों को उत्तर देते योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के मत में- “नयी पीढ़ी की गीति रचनाओं के सामयिक बनने में किसी प्रकार की कोई शंका की गुन्जाइश नहीं है।” अवनीश सिंह चौहान छंदानुशासन, लय तथा काव्यत्व के सन्दर्भ में कहते हैं- “गीत सही मायने में गीत तभी कहलायेगा जब उसमें छंदानुशासन, अंतर्वस्तु की एकरूपता, भावप्रवणता, गेयता एवं सहजता के साथ समकालीनता, वैचारिक पुष्टता और यथार्थ को समावेशित किया गया हो। ” शीलेन्द्र सिंह चौहान के अनुसार “नवगीत की सौंदर्य चेतना यथार्थमूलक है।” आनंद कुमार ‘गौरव’ के मत में “नवगीत की प्रासंगिकता ही जन-संवाद्य है।” ओमप्रकाश सिंह अतीत और वर्तमान के मध्य सेतु के रूप में मूल्यांकित करते हैं। मधुकर अष्ठाना अपरिपक्व नवगीत लेखन के प्रति चिंतित हैं- “गुरु-शिष्य परंपरा के भाव में नवगीत के विकास पर भी ग्रहण लग रहा है।” जगदीश व्योम नवगीत और लोकगीत के अंतर्संबंध को स्वीकारते हैं- “नवगीतों में जब लोक तत्वों का अभाव होता है तो उनकी उम्र बहुत कम हो जाती है।” श्याम श्रीवास्तव के मत में “लोकभाषा का माधुर्य, उससे उपजी सम्प्रेषणीयता रचना को पाठक से जोड़ती है।” सत्येन्द्र तिवारी का उत्स भारतीय संस्कृति में पाते हैं।

सारत: नवगीत-एक परिसंवाद, पठनीय ही नहीं मननीय भी है। इसमें उल्लिखित विविध पक्षों से परिचित होकर नवगीतकार बेहतर रचनाकर्म करने में सक्षम हो सकता है। नवगीत को ६ दशक पूर्व के मापदंडों में बाँधने के आग्रही नवगीतकारों को में लोकतत्व, लोकभाषा, लोक शब्दों और लोक में अंतर्व्याप्त छंदों की उपयोगिता का महत्त्व पहचानकर केवल बुद्धिविलासत्मक नवगीतों की रचना से बचना होगा। ऐसे प्रयास आगे भी किये जाएँ तो नवगीत ही नहीं समालोचनात्मक साहित्य भी समृद्ध होगा।
--------------------------------------------------
नवगीत से संबंधित आलेखों का संग्रह- नवगीत : एक परिसंवाद, संपादक- निर्मल शुक्ल, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण-२०१२, मूल्य- २०० रूपये , पृष्ठ- ११२,  परिचय- आचार्य संजीव सलिल।