मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

नवगीत २०१३ - संपादक- डॉ. जगदीश व्योम, पूर्णिमा वर्मन

विश्व वाणी हिंदी के सरस साहित्य कोष की अनुपम निधि नवगीत के विकास हेतु संकल्पित-समर्पित अंतर्जालीय मंच अभिव्यक्ति विश्वम् तथा जाल पत्रिका अनुभूति के अंतर्गत संचालित ‘नवगीत की पाठशाला’ ने नवगीतकारों को अभिव्यक्ति और मार्गदर्शन का अनूठा अवसर दिया है। इस मंच से जुड़े ८५ प्रतिनिधि नवगीतकारों के एक-एक प्रतिनिधि नवगीत का चयन नवगीत आंदोलन हेतु समर्पित डॉ. जगदीश व्योम  तथा पूर्णिमा वर्मन ने किया है।

इन नवगीतकारों में वर्णमाला क्रमानुसार सर्व श्री अजय गुप्त, अजय पाठक, अमित, अर्बुदा ओहरी, अवनीश सिंह चौहान, अशोक अंजुम, अशोक गीते, अश्वघोष, अश्विनी कुमार अलोक, ओम निश्चल, ओमप्रकाश तिवारी, ओमप्रकश सिंह, कमला निखुर्पा, कमलेश कुमार दीवान, कल्पना रामानी, कुमार रविन्द्र, कृष्ण शलभ, कृष्णानंद कृष्ण, कैलाश पचौरी, क्षेत्रपाल शर्मा, गिरिमोहन गुरु, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, गीता पंडित, गौतम राजरिशी, चंद्रेश गुप्त, जयकृष्ण तुषार, जगदीश व्योम, जीवन शुक्ल, त्रिमोहन तरल, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, धर्मेन्द्र कुमार सिंह, नचिकेता, नवीन चतुर्वेदी, नियति वर्मा, निर्मल सिद्धू, निर्मला जोशी, नूतन व्यास, पूर्णिमा बर्मन, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, प्रवीण पंडित, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, भारतेंदु मिश्र, भावना सक्सेना, मनोज कुमार, विजेंद्र एस. विज, महेंद्र भटनागर, महेश सोनी, मानोशी, मीणा अग्रवाल, यतीन्द्रनाथ रही, यश मालवीय, रचना श्रीवास्तव, रजनी भार्गव, रविशंकर मिश्र, राजेंद्र गौतम, राजेंद्र वर्मा, राणा प्रताप सिंह, राधेश्याम बंधु, रामकृष्ण द्विवेदी ‘मधुकर’, राममूर्ति सिंह अधीर, संगीता मनराल, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रवीन्द्र कुमार रवि, रूपचंद शास्त्री ‘मयंक’, विद्यानंदन राजीव, विमल कुमार हेडा, वीनस केसरी, शंभुशरण मंडल, शशि पाधा, शारदा मोंगा, शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, सिवाकांत मिश्र ‘विद्रोही’, शेषधर तिवारी, श्यामबिहारी सक्सेना, श्याम सखा श्याम, श्यामनारायण मिश्र, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, संगीता स्वरुप, संजीव गौतम, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सुभाष राय, सुरेश पंडा, हरिशंकर सक्सेना, हरिहर झा, हरीश निगम हैं।

उक्त सूची से स्पष्ट है कि वरिष्ठ तथा कनिष्ठ, अधिक चर्चित तथा कम चर्चित,  नवगीतकारों का यह  संकलन ३ पीढ़ियों के चिंतन, अभिव्यक्ति, अवदान तथा गत ३ दशकों में नवगीत के कलेवर, भाषिक सामर्थ्य, बिम्ब-प्रतीकों में बदलाव, अलंकार चयन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवगीत के कथ्य में परिवर्तन के अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है। संग्रह का कागज, मुद्रण, बँधाई, आवरण आदि उत्तम है। नवगीतों में रुचि रखनेवाले साहित्यप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होंगे।

शोध छात्रों के लिये इस संकलन में नवगीत की विकास यात्रा तथा परिवर्तन की झलक उपलब्ध है।  नवगीतों का चयन सजगतापूर्वक किया गया है। किसी एक नवगीतकार के सकल सृजन अथवा उसके नवगीत संसार के भाव पक्ष या कला पक्ष को किसी एक नवगीत के अनुसार नहीं आँका जा सकता किन्तु विषय की परिचर्या (ट्रीटमेंट ऑफ़ सब्जेक्ट) की दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है। नवगीत चयन का आधार नवगीत की पाठशाला में प्रस्तुति होने के कारण सहभागियों के श्रेष्ठ नवगीत नहीं आ सके हैं। बेहतर होता यदि सहभागियों को एक प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया जाता और उसे पाठशाला में प्रस्तुत कर सम्मिलित किया जाता।  हर नवगीत  के साथ उसकी विशेषता या खूबी का संकेत नयी कलमों के लिये उपयोगी होता।

संग्रह में नवगीतकारों के चित्र, जन्म तिथि, डाक-पते, चलभाष क्रमांक, ई मेल तथा नवगीत संग्रहों के नाम दिये जा सकते तो इसकी उपयोगिता में वृद्धि होती। आदि में नवगीत के उद्भव से अब तक विकास, नवगीत के तत्व पर आलेख नई कलमों के मार्गदर्शनार्थ उपयोगी होते। परिशिष्ट में नवगीत पत्रिकाओं तथा अन्य संकलनों की सूची इसे सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में अधिक उपयोगी बनाती तथापि नवगीत पर केन्द्रित प्रथम प्रयास के नाते ‘नवगीत २०१३’ के संपादक द्वय का श्रम साधुवाद का पात्र है।  नवगीत वर्तमान स्वरुप में भी यह संकलन हर नवगीत प्रेमी के संकलन में होनी चाहिए। नवगीत की पाठशाला का यह सारस्वत अनुष्ठान स्वागतेय तथा अपने उद्देश्य प्राप्ति में पूर्णरूपेण सफल है। नवगीत एक परिसंवाद के पश्चात अभिव्यक्ति विश्वम् की यह बहु उपयोगी प्रस्तुति आगामी प्रकाशन के प्रति न केवल उत्सुकता जगाती है अपितु प्रतीक्षा हेतु प्रेरित भी करती है।
------------------------
गीत- नवगीत संकलन - नवगीत-२०१३, संपादक डॉ. जगदीश व्योम, पूर्णिमा वर्मन, प्रकाशक- एस. कुमार एंड कं. ३६१३ श्याम नगर, दरियागंज, दिल्ली २, प्रथम संस्करण-२०१४, मूल्य- रूपये २४५, पृष्ठ १२ + ११२,  परिचय- संजीव सलिल

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

सदी को सुन रहा हूँ मैं- जयकृष्ण राय तुषार

जयकृष्ण राय तुषार के नवगीत संग्रह "सदी को सुन रहा हूँ मैं" की सहज अभिव्यक्ति और सरल शैली विशेष रसानुभूति का आभास कराती है।  पाठकों से संवाद स्थापित करते हुए गीत तरलता से दिलों में अपनी गेयता की पदचाप छोड़ते हैं।  और जन जन की मुखर वाणी बन नए उपमान प्रस्तुत करते हैं।  अनेक समसामयिक गीत जनमानस की समस्याओं को इंगित करते हुए अपना पाठक के साथ सीधा तादात्मय स्थापित करते हैं। 

आज के बोझिल व्यस्त वातावरण में जब मधुर संवाद धूमिल होने लगे हैं।  अपराधिक गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, लोग दहशत के साये में जीने के लिए बाध्य हैं, संसार गरीबी और बेकारी से त्रस्त है और देश में फैली अराजकता और उथल पुथल हर किसी को व्याकुल कर रही है, गीतकार की संवेदना से निकली वाणी,  संवेदना के धरातल पर पाठक के अंतःस्थल को छूती है।  कवि का हृदय, संगम की पावन भूमि पर पड़ने वाले कदमों को शांति का सन्देश भी देता है और उनके सुख की कामना भी करता है।  संकलन  का प्रथम गीत ओ मेरे दिनमान एक ऐसा ही गीत है।

नए साल में नयी सुबह ले 
ओ मेरे दिनमान निकलना   
संगम पर आने से पहले  
मेलजोल की धारा पढना 
अनगढ़ पत्थर 
छेनी लेकर 
अकबर पन्त निराला गढ़ना 
सबकी किस्मत रहे दही गुड 
नहीं किसी की खोटी लाना 
बस्ती गाँव 
शहर के सारे 
मजलूमों को रोटी लाना 
फिर फिर राहू ग्रहण लायेगा 
साथ लिए किरपान निकलना 

गीतकार ने त्योहारों और ऋतुओं को अपनी कविता का प्रमुख विषय बनाया है। बसंती मौसम का केवल सौंदर्य-वर्णन ही नहीं किया है बल्कि उसके कल्याणकारी स्वरूप से त्रासदी झेल रहे लोगों के जीवन में सुख की याचना भी की है, गीत में मुखरित हुई इन मोहक पंक्तियों को देखिये-

अब की शाखों पर बसंत तुम 
फूल नहीं रोटियाँ लाना 
युगों युगों से प्यासे होठों को 
अपना मकरंद पिलाना  
साँझ ढले स्लम की देहरी पर  
उम्मीदों के दिए जलाना 

माँ का रिश्ता हर रिश्तों से पृथक और अनमोल रिश्ता होता है।  माँ की ममता का आकलन नहीं किया जा सकता है।  माँ खुद के अस्तिव को मिटाकर, बिना स्वार्थ, के सिर्फ स्नेह लुटाना जानती है। यहाँ माँ के पावन रूप को गीतकार ने गंगा नदी की उपमा प्रदान की है।  गंगा नदी और माँ निस्वार्थ बच्चों को अपने अंक में समेट कर रखती है, फिर भी मानव जाति उसकी क़द्र नहीं कर सकी है।  कवि के ह्रदय से निकली हुई इन सटीक  पंक्तियोँ को देखें जिनमें, माँ के प्रति असीम प्रेम भाव उमड़ पड़ा है-

मेरी ही यादों में खोयी
अक्सर तुम पागल होती हो 
माँ तुम गंगाजल होती हो

हम तो नहीं भागीरथ जैसे 
कैसे सर से कर्ज उतारें 
तुम तो खुद ही गंगाजल हो 
तुमको हम किस जल से तारें  

थककर बैठी हुई 
उम्र की इस ढलान पर 
कभी बहा करती थी
यह  गंगा उफान पर

प्रेम एक शास्वत काव्यात्मक अनुभूति है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है, इसमें कोमल अनुभूतियों के पनपने के लिए उपजाऊ भूमि आसानी से तैयार नहीं होती है।  विरोधी, चुभन भरी हवा अपना रंग जमाने के लिए लालायित रहती है।  इस संग्रह में प्रेम की लोकरंजक  अनुभूति  को नवगीत में सुन्दरता और कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।  बेटी, प्रेयसी, पत्नी रोजमर्रा के कार्यो में उलझी नारी के विविध रूपों, उनकी पीड़ा, समर्पण, सौन्दर्य  का गीतकार ने कलात्मक वर्णन किया है।  प्रेम के ये  बसंती रंग, जीवन की  परंपरा को आलोकित कर उसे जीवन के धरातल से जोड़तें हैं।   भिन्न भिन्न भावों की पृथक पृथक अभिव्यति की  बानगी देखें जो नयी ताजगी का अहसास कराते हुए सीधे दिल में उतरती है। 

साँझ चूल्हे के धुएँ में 
लग रहा चेहरा  तुम्हारा 
ज्यों घिरा हो बादलों में 
एक टुकड़ा चाँद प्यारा
रोटियों के शिल्प में है 
हीर राँझा की कहानी 
शाम हो या दोपहर हो 
हँसी, पीढ़ा और पानी 
याद रहता है तुम्हें सब 
कि कहाँ किसने पुकारा 

रंग- गुलालों वाला मौसम 
कोई मेरा गाल छू गया 
खुली चोंच से जैसे कोई
पंछी मीठा ताल छू गया 
जाने क्या हो गया चैत में 
लगी देह परछाई बोने 
पीले हाथ लजाती आँखें 
भरे दही-गुड, पत्तल-दोने 

सागर खोया था लहरों में 
एक अपरिचित पाल छू गया 

प्रेम गीत है, चिडिया है और सुगंध भी है, जयशंकर तुषार के नवगीतों में प्रेम के ये सहज बिम्बात्मक स्वर प्रकृति को अपने में समेटे हुए पाठक के मन को गुदगुदाते हैं। 

अक्षरों में खिले फूलों सी 
रोज साँसों में महकती है 
ख्वाब में आकर मुंडेरों पर 
एक चिड़िया सी चहकती है 

फिर गुलाबी धूप तीखे 
मोड़ पर मिलने लगी है 
यह  जरा सी बात पूरे 
शहर को खलने लगी है 
रेशमी जुड़े बिखरकर 
गाल पर सोने लगे हैं  
गुनगुने जल एडियों को 
रगड़कर धोने लगे हैं 

बिना माचिस के प्रणय की 
आग फिर जलने लगी है 
सुबह उठकर हलद चन्दन 
देह पर मलने लगी है 

तुषार जी के गीतों में राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करते हुए यथार्थ में पाँव भी जले हैं।  इन गीतों की अभिव्यक्ति, लय, गेयता और शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है।  तुषार जी के लंबे गीत (जो कम से कम ४ अंतरे के हैं) भी अपनी बात ठीक से प्रेषित करते दिखाई देते हैं।  वे लम्बे होते हुए भी नीरस और उबाऊ होने से बचे रहे हैं।  राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों के कठिन समय में गीतकार की कलम पलायनवादी, निराशावादी बनकर नहीं चली है अपितु विसंगतियों की परतें खोल रहीं है 
१ 
चुप्पी ओढ़ परिंदे सोये 
सारा जंगल राख हुआ 
वन-राजों का जुर्म हमेशा ही
जंगल में माफ़ हुआ 
२ 
तानाशाही झुक जाती जब 
जनता आगे आती है 
हथकड़ियों जेलों से कोई
क्रांति कहाँ रुक जाती है 
कहाँ अहिंसा से लड़ने की 
हिम्मत है तलवारों में 
३ 
रातें होतीं कोसोवी सी
दिन लगते हैं वियतनाम से 
सर लगता है अब प्रणाम से 
हवा बह रही अंगारे सी 
दैत्य सरीखे हँसते टापू
नंगी पीठ गठरियाँ उन पर 
नोनिहाल हो रहे कबाड़ी 
आप चलाते गाँव-गाँव में 
उम्मीदों की आँगनबाड़ी 
४ 
सोई है यह राज्यव्यवस्था 
मुँह पर पानी डालो 
खून हमारा बर्फ हो रहा 
कोई इसे उबालो 
५ 
कालिख पुते हुए हाथों में 
दिए दिवाली के 
कापालिक की कैद सभी 
मंतर खुशहाली के 
फूलों की घाटी में मौसम की 
हथेलियाँ रँगी खून से 

इस संग्रह के गीतो की भाषा मुहावरेदार हिंदी है।  बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अतिरिक्त आंचलिक शब्दों का प्रयोग पाठक को उसकी माटी से जोड़ता है।  दैनिक जीवन के प्रचलित कई शब्दों से गीत पाठक के आसपास ही घूमते मालूम होते हैं।  मकई पान, रोटी, किरपान, बौर आम, सरसों, गेहूँ, रथ, पल्लू, केसर, परदे, संवस्तर, मादल ,गंगाजल, लॉन कुर्सी, पुलोवर, शावर, डाकिया, रिसालों, चूड़ियाँ, मजदूर, गाझ, चिंगारी, तितली, हरियाली, गुलदस्ता, स्लम, दिया, तिथियाँ, गिरगिट, तालमखाना, पोखर, जूडे, चाय, दर्पण, अजनबी, मेंहंदी, निठल्ले, मोरपंख, स्कूल, कलम, गुस्ताख, कॉफ़ी, दालान, यज्ञ, अर्ध्य, भगवान् , कमीना, सफीना, वालमार्ट, जोंक, तिजोरी, मंहगी गैस, डीजल, टिफिन, कांजीवरम सिल्क, ब्रत ,आरती, पूजा, निर्जला, गोदरेज, टू जी, थ्री जी, दलाल, टोल टैक्स, लाल किला, शापिंग माल, नाख़ून, कैनवास, रिबन, रंगोली, राजमिस्त्री, अनशन, टापू, चाकू, गुर्दा, धमनी, कठपुतली, दफ्तर, कंकड़, यजमान, गारंटी, खनखनाती, फोन टॉस, पंडे, वेद, तुलसी ,सागरमाथा, गेंदा, गुडहल, लैम्पपोस्ट, न्याय सदन, दियासलाई, कालिख, बेताल, लैपटॉप, केलेंडर इत्यादि शब्दों का सहजता से उपयोग हुआ है।  यह शब्द कहीं भी जबरन ठूँसे हुए प्रतीत नहीं हुए हैं, न ही इन शब्दों से गीत की गेयता, शिल्प और लय पर कोई प्रभाव पड़ा है।  
   
युग्म शब्दों का भी नवगीत में बेहद सहजता से सुन्दर प्रयोग हुआ है । दही-गुड, मघई-पान, छेनी-पत्थर, हल्दी-उबटन, नीले-पीले, फूल- टहनियाँ, सुग्गा-दाना, कुशल-क्षेम, लय-गति, वंशी-मादल, घूसर मिटटी, लू-लपट, रिश्ते-नाते, घुटन-बेबसी, हँसते-गाते, बाप-मतारी, बीबी-बच्चे, गंध-कस्तूरी,  पल-छिन, खून-पसीना, भौंरे- फूल, काशी-मदीना, सिताब-दियारा, राग-दरबारी,  साँझ-चूल्हा, हीर-राँझा, राजा-रानी, आँधी-पानी, कूड़ा-कचरा, कोर्ट-कचहरी, सत्य-अहिंसा, दाना-पानी, मुखिया-परधानो, चिरई-चुनमुन, अपने-अपने, जंतर-मंतर,  भाग्य-विधाता, ओझा-सोखा, घर-आँगन, ढोल-मँजीरे, आँख-मिचोनी , पूजित पूजित, आन-बान, साँझ-सुबहो, दफ्तर-थकान, घर-गिरस्ती ,सौ-सौ, पूजा-हवन, कण कण, सँवरा-निखरा, चंपा-चंपा, चम्पई-उँगलियों, धुआँ- धुंध, चिहुंक-चिहुंक, यमुना-गंगा, जन-गन मन, दूध-मलाई, पान-सुपारी, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, चढ़ते-उतरते, साधू-सन्यासी, पल-भर, पक्ष-विपक्ष, सत्य-अहिंसा, लूट-डकैती, दया-धर्म, भूख-बेगारी, जाती-धरम कौवे-चील, हार-जीत, अनेक शब्द सामान्य परिवेश के आसपास घूमते हुए पाठक की बोली का अहसास कराते हैं।  सामान्य जन के आसपास घूमते हुए गीतों में बोल चाल के शब्दों का भरपूर प्रयोग हुआ है।  कुछ कुछ शब्दों  के बिम्ब बहुत सुन्दर प्रतीत हुए हैं । 
  
तुषार जी का यह संकलन एक बार पढ़कर रख देने वाला नहीं है अपितु गीतों की ताजगी का अहसास पाठक को बारम्बार महसूस होता है।  जहाँ गीतों में कसावट और गेयता पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है। वहीं सहज रसानुभूति इन्हें स्मृतियों में सहेजती है।  इन्हें पढना सुखद अनुभूति है।  ताजगी से भरपूर इस संकलन हेतु तुषार जी को  हार्दिक बधाई।
--------------------------------------------------------------------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - सदी को सुन रहा हूँ मैं, रचनाकार- जयकृष्ण राय तुषार, प्रकाशक- साहित्य भण्डार ५० , चाहचन्द , इलाहबाद - २०११०३२, प्रथम संस्करण-२०१४, मूल्य- रूपये ५०, पृष्ठ १२६, ISBN- ९७८-८१-७७७९-३४३-७, परिचय- शशि पुरवार

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

एक गुमसुम धूप- राधेश्याम बंधु

नवगीत को ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचाकर समाज कल्याण का औजार बनाने के पक्षधर हस्ताक्षरों में से एक राधेश्याम बंधु की यह कृति सिर्फ पढ़ने नहीं, पढ़कर सोचने और सोचकर करनेवालों के लिये बहुत काम की है-

बाबा की, अनपढ़ बखरी में
शब्दों का सूरज ला देंगे

जो अभी तक मौन थे 
वे शब्द बोलेंगे 

जीवन केवल 
गीत नहीं है 
गीता की है प्रत्याशा 

चाहे थके पर्वतारोही 
धूप शिखर पर चढ़ती रहती

इन नवाशा से भरपूर नवगीतों से मुर्दों में भी प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते बंधु जी के लिये लेखन शगल नहीं धर्म है। वे कहते हैं- ‘जो काम कबीर अपनी धारदार और मार्मिक छान्दस कविताओं से कर सके, वह जनजागरण का काम गद्य कवि कभी नहीं कर सकते...जागे और रोवे की त्रासदी सिर्फ कबीर की नहीं है बल्कि हर युग में हर संवेदनशील ईमानदार कवि की रही है। गीत सदैव जनजीवन और जनमानस को यदि आल्हादित करने का सशक्त माध्यम रहा है तो तो वह जन जागरण के लिए आम आदमी को आंदोलित करनेवाला भी रहा है।’

कोलाहल हो 
या सन्नाटा 
कविता सदा सृजन करती है 

यह कहनेवाला गीतकार शब्द की शक्ति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है-

जो अभी 
तक मौन थे 
वे शब्द बोलेंगे 

नवगीत के बदलते कलेवर पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करनेवालों को उनका उत्तर है- 

शब्दों का  
कद नाप रहे जो
वक्ता ही बौने होते हैं। 

शहर का नकली परिवेश उन्हें नहीं सुहाता- 

शहरी शाहों 
से ऊबे तो 
गीतों के गाँव चले आये

किन्तु विडम्बना यह कि गाँव भी अब गाँव से न रहे- 

गाँवों की 
चौपालों में भी 
होरीवाला गाँव कहाँ?

वातावरण बदल गया है- 

पल-पल 
सपनों को महकाती 
फूलों की सेज कसौली है 

कवि चेतावनी देता है- 

हरियाली मत 
हरो गंध की 
कविता रुक जाएगी।  

कवि को भरोसा है कल पर- 

अभी परिंदों 
में धड़कन है 
पेड़ हरे हैं जिंदा धरती 
मत उदास 
हो छाले लखकर 
ओ  माझी! नदिया कब थकती?

 डॉ. गंगाप्रसाद विमल ठीक ही आकलन करते हैं-
"राधेश्याम बंधु ऐसे जागरूक कवि हैं जो अपने साहित्यिक सृजन द्वारा बराबर उस अँधेरे से लड़ते रहे हैं जो कवित्वहीन कूड़े को बढ़ाने में निरत रहा है।" 

नवगीतों में छ्न्दमुक्ति के नाम पर छंदहीनता का जयघोष कर कहन को तराशने का श्रम करने से बचने की प्रवृत्तिवाले कलमकारों के लिये बंधु जी के छांदस अनुशासन से चुस्त-दुरुस्त नवगीत एक चुनौती की तरह हैं। बंधु जी के सृजन-कौशल का उदहारण है नवगीत-‘वेश बदल आतंक आ रहा'।  सभी स्थाई तथा पहला व तीसरा अंतरा संस्कारी तथा आदित्य छंदों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं जबकि दूसरा अंतरा संस्कारी छंद में है। 

जो रहबर
खुद ही सवाल हैं
वे क्या उत्तर देंगे?
पल-पल चुभन बढ़ानेवाले
कैसे पीर हरेंगे?

गलियों में पसरा सन्नाटा
दहशत है स्वच्छंद
सरेशाम ही हो जाते हैं
दरवाजे अब बंद

वेश बदल
आतंक आ रहा
कैसे गाँव जियेंगे?

बस्ती में कुहराम मचा है
चमरौटी की लुटी चाँदनी
मुखिया के बेटे ने लूटी
अम्मा की मुँहलगी रौशनी

जब प्रधान
ही बने लुटेरे
वे क्या न्याय करेंगे?

जब डिग्री ने लाखों देकर
नहीं नौकरी पायी
छोटू कैसे कर्ज़ भरेगा
सोच रही है माई?

जब थाने  
ही खुद दलाल हैं
वे क्या रपट लिखेंगे?

'यह कैसी सिरफिरी हवाएँ' शीर्षक नवगीत के स्थाई व अंतरे संस्कारी तथा मानव छंदों की पंक्तियों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं, ‘उनकी खातिर कौन लड़े?’ नवगीत में संस्कारी तथा दैशिक छन्दों का क्रमिक प्रयोग कर रचे गये स्थायी और अंतरे हैं-

उनकी खातिर
कौन लड़े जो
खुद से डरे-डरे?
बचपन को
बँधुआ कर डाला
कर्जा कौन भरे?

जिनका दिन गुजरे भट्टी में
झुग्गी में रातें
कचरा से पलनेवालों की
कौन सुने बातें?

बिन ब्याही
माँ, बहन बन गयी
किस पर दोष धरे?

परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार: ‘राधेश्याम बंधु प्रगीतात्मक संवेदना के प्रगतिशील कवि हैं, जो संघर्ष का आख्यान भी लिखते हैं और राग का वृत्तान्त भी बनाते हैं।  एक अर्थ में राधेश्याम बंधु ऐसे मानववादी कवि हैं कि उन्होंने अभी तक छंद का अनुशासन नहीं छोड़ा है।’ 
  

इस संग्रह के नवगीत सामयिकता, सनातनता, सार्थकता, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, सहजता तथा सटीकता के सप्त सोपानों पर खरे हैं। बंधु जी दैनंदिन उपयोग में आने वाले आम शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे अपना वैशिष्ट्य या विद्वता प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ अथवा न्यूनज्ञात उर्दू या ग्राम्य शब्दों को खोजकर नहीं ठूँसते, उनका हर नवगीत पढ़ते ही मन को छूता है, आम पाठक को भी न तो शब्दकोष देखना होता है, न किसी से अर्थ पूछना होता है। ‘एक गुमसुम धूप’ का कवि युगीन विसंगतियों, और विद्रूपताओं जनित विडंबनाओं से शब्द-शस्त्र साधकर निरंतर संघर्षरत है। उसकी अभिव्यक्ति जमीन से जुड़े सामान्य जन के मन की बात कहती है, इसलिए ये नवगीत समय की साक्षी देते हैं।
--------------------------------------------------------------------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - एक गुमसुम धूप, रचनाकार- राधेश्याम बंधु, प्रकाशक- कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, प्रथम संस्करण-२००८, मूल्य- रूपये १५०, पृष्ठ ९६, समीक्षक- संजीव सलिल

रविवार, 12 अप्रैल 2015

वक्त आदमखोर- मधुकर अष्ठाना


विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है- ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।

नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहज ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रभ, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया। भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-काल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’

मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है।

तन है वीरान खँडहर 
मन ही इस्पात का नगर 
मजबूरी आम हो गयी 
जिंदगी हराम हो गयी
कदम-कदम क्रासों का सिलसिला 
चूर-चूर मंसूबों का किला
प्यासे दिन हैं भूखी रातें 
उम्र कटी फर्जी मुस्काते
टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये 
संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये 
जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं 
कदम-कदम पर काँटे बोये हैं
प्याली में सुबह ढली
थाली में दोपहर 
बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर 
जीवन यों तो ठहर गया है 
एक और दिन गुजर गया है
तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ 
भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ 

आदि पंक्तियाँ पाठक को आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं।

निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी 
तिरस्कार गढ़ गया अघोरी
जंगली विधान की बपौती 
परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये 
भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम 
फंदों में झूलें अविराम 
चेहरों को बाँचते खड़े 
दर्पण खुद टूटने लगे 

आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें  शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम... 

मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोंछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है। 

मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, मुहावरों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुँच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता अन्य नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं। 

मधुकर जी गजल (मुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजल में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है। 

मधुकर जी के कहन की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें- 

पत्थर पर खींचते लकीरें 
बीत रहे दिन धीरे-धीरे 

चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें 
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें 

आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें 
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें 
अधरों पर अनगूँजी पीरें 

बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी 
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी 
स्याह हैं चमकती तस्वीरें 

एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं- 
‘इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें 
लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) 

किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह पाठक को बाँधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करती यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
--------------------------------------------------------------------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - वक्त आदमखोर, रचनाकार- मधुकर अष्ठाना, प्रकाशक- अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-१९९८, मूल्य- रूपये १५०, पृष्ठ-१२६, समीक्षक- संजीव सलिल

रविवार, 5 अप्रैल 2015

चोंच में आकाश- पूर्णिमा वर्मन

‘चोंच में आकाश’ शीर्षक पढ़ते ही मन में एक बिम्ब उभरने लगता है और अनायास ही शिवमंगल सिंह सुमन की पंक्तियाँ याद आने लगती हैं- ‘ऐसे थे अरमान कि/ उड़ते नील गगन की सीमा पाने/ लाल किरण सी चोंच खोल/ चुगते तारक अनार के दाने....’ जिसके पंख होते हैं, उसके सपने भी बड़े होते हैं। अपनी नन्हीं-सी चोंच में समूचा आकाश भरकर उड़ने की तमन्ना निश्चय ही घोर नैराश्य में भी आशा का संचार कर देती है। कविता का उद्देश्य भी यही है कि निराशा के अंधकार में आशा का दीप जला देना।

पूर्णिमा वर्मन में गजब का उत्साह है, जिस प्रकार एक नन्हा-सा पक्षी अपनी चोंच में समूचा आकाश भरकर उड़ने की परिकल्पना करता है उसी प्रकार पूर्णिमा वर्मन भी अपने सीमित संसाधनों किन्तु अदम्य उत्साह से हिन्दी भाषा और साहित्य को सम्पूर्ण विश्व में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने का पूरे मनोयोग से प्रयास कर रही हैं। यह सच है कि जो लोग वास्तव मे कुछ करना चाहते हैं वे आलोचनाओं की परवाह नहीं करते, कार्य की सफलता के मार्ग में आने वाली बाधाओं की चिन्ता नहीं करते बस कार्य शुरू कर देते हैं और जिस कार्य के पीछे निहित उद्देश्य लोक मंगलकारी होता है उस कारवाँ में लोग अपने आप आते रहते हैं, जुड़ते रहते हैं। नवगीत की पाठशाला के माध्यम से हाशिये पर पहुँच चुके नवगीत को पूरी दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचा देने का भारी भरकम संकल्प सच में एक नन्हीं चिड़िया के द्वारा अपनी नन्हीं सी चोंच में विस्तृत आकाश को लेकर उड़ने की ही जीवंत परिकल्पना है। ‘चोंच में आकाश’ संकलन पूर्णिमा जी के नवगीत की परिकल्पना पथ का शुरूआती पड़ाव है।

जीवन की आपाधापी में व्यक्ति इतना व्यस्त हो जाता है कि वह कब, कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है इसका भी होश उसे नहीं रहता। घर, परिवार और दुनियादारी की औपचारिक भाग-दौड़ में मशीन बनकर व्यक्ति अपने को खपाता रहता है और इन सब में इतना खो जाता है कि वह अपने मन से कभी साक्षात्कार नहीं करता, मन की बात नहीं सुनता, इस कमी को जब एक रचनाकार महसूस करता है तो उसकी आत्मस्वीकृति इन शब्दों में गीत बनकर फूट पड़ती है-

मौसम आये मौसम बीते
हम नहिं चेते
अपने छूटे देश बिराना
सपने रीते
सपनों की आवाजों में
रेलों और जहाजों में
जाने कैसी दौड़ थी जिसने
अपना मन ही नहीं सुना ... पृ॰३६

ताड़ के पेड़ों को यूँ तो हम सभी लगभग प्रतिदिन ही देखते रहते हैं परन्तु जब व्यक्ति के अन्दर का नवगीतकार उन्हें देखता है तो बात ही कुछ और होती है। ताड़ का पेड़ उसे मानव शरीर लगता है और उसके पत्तों के नीचे का डंठल मनुष्य के हाथ जैसे लगते हैं उसके ऊपर हथेली की तरह उँगलियाँ जिसे वह ऊपर उठाये हुये है ऐसा लगता है मानों कोई जटा-जूट योगी गहन तपस्या में लीन हों। ताड़ों का ऐसा अभिनव मानवीकरण पाठक को प्रभावित तो करता ही है साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि कवयित्री अपने वतन से सुदूर रहकर रेगिस्तान के ताड़ों के सौन्दर्य में भी भारतीयता की झलक देख लेती है। लय और प्रवाह ऐसा कि पढ़ते समय अपने आप कण्ठ गुनगुनाने लगता है-

हाथ ऊपर को उठाये
माँगते सौगात
निश्चल
ताड़ों की क्या बात
गहन ध्यान में लीन
हवा में
धीरे-धीरे हिलते
लंबे-लंबे रेशे बिलकुल
जटा जूट से खिलते
निपट पुराना वल्कल पहने
संत पुरातन कोई न गहने
नभ तक ऊपर उठे हुए हैं
धरती के अभिजात..... पृ॰-३७

दैनिक जीवन की आम बातों को गीत के कथ्य में प्रस्तुत करना नवगीत की अपनी विषेषता है, गीत में सामान्य से लगने वाले इन विषयों को समाहित करना निश्चय ही एक बड़ी चुनौती रही है, न जाने कितने छन्द और गीत के कवि इस चुनौती के समक्ष अपनी हार मानकर ही गीत को अलविदा कह गद्य कविता की ओर पलायन कर गये परन्तु जिनके पास अपना अनुभव है, जिनका अपनी भाषा पर अधिकार है और जिनके मन की भूमि टटके विचारों के लिए उपजाऊ है वे जनजीवन की सामान्य बातों को नवगीतों के रूप में बेहद सलीके के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।

पूर्णिमा वर्मन हिन्दी भाषा और साहित्य को दुनिया के सामने उसका सम्मान दिलाने की ही वकालत नहीं करती हैं वे चाहती हैं कि हिन्दी पढ़ने वालों को कभी बेकारी का दंश न झेलना पड़े, हिन्दी को उसका सम्मान मिले, यह किन्हीं दस-बीस व्यक्तियों की इच्छा नहीं है यह तो जन गण मन की अभिलाषा है, और जन गण के मन की अभिलाषा का सम्मान तो होना ही चाहिए। अपने नवगीतों के माध्यम से वे ऐसा अलख जगाती रही हैं। उनके इस नवगीत को नुक्कड़ नाटक के रूप में भी बहुत प्रभावशाली ढँग से प्रस्तुत किया जा सकता है-

जन गण मन की अभिलाषा है
कोटि प्रयत्नों की आशा है
शिक्षा और
धनार्जन में भी
इसका हो आधार
हिन्दी पढ़ने लिखने वाला
कभी न हो बेकार ... पृ॰-५

जीवन की आपाधापी में व्यक्ति बहुत कुछ खो देता है और फिर उस खाये हुये के लिये जीवन के बहुमूल्य पल खो जाने की पीड़ा में रोते-कराहते बिता देता है, सोचने की बात है कि जो हमसे बिछुड़ गया या हमारी धन दौलत चली गई तो फिर उसके लिए रोते रहने से वह वापस तो आ नहीं जायेगी उलटे हम जो कुछ कर सकते थे उससे भी वंचित रह गये इसलिए ‘बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि ले’ इसी से जीवन में सेख और सन्तोष मिलेगा, यह मूलमंत्र को दैनिक जीवन का मंत्र बना लेना ही व्यावहारिकता का परिचायक है। पूर्णिमा जी ने इस बहुत उपयोगी तथ्य को नवगीत में बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। हमारा देश कभी सोने की चिड़िया था, अब अगर वह सोने की चिड़िया उड़ गई तो उड़ गई, उसके उड़ जाने के दुख को सहेज कर रखने और दिन-रात दुखी होने से वह लौटकर तो आ नहीं जायेगी हाँ यदि नया संकल्प लेकर फिर कोशिश करें तो हम कल (मशीनों) के युग में फिर से एक नया भारत बना सकते हैं। नवगीत के माध्यम से नई सोच का यह पैगाम देना रचनाकार के अभिनव चिंतन का परिचायक है। तिरंगा शीर्षक गीत में-

कितना पाया और क्या खोया
इस गणित में कैसा जाना
स्वर्ण-चिड़िया उड़ गयी तो
कैसा उसका दुख मनाना
ताल दो मिलकर
कि कलयुग में
नया भारत बनाना
सिर उठाना
गर्व से जय हिन्द गाना ...पृ॰-५३

अवसरवाद की प्रवृत्ति आज इस कदर समूचे समाज में परिव्याप्त है कि अपने स्वार्थ के लिए व्यक्ति सब कुछ करने को तैयार रहता है, हर तरह का ढोंग वह कर सकता है दूसरी तरफ राजनीति की वास्तविकता से सभी परिचित हैं ही ऐसे में अपने लिए स्थान बना पाना बहुत कठिन हो गया है, इस स्थिति को कुहनियों ओर घुटनों के प्रतीकों से जितनी सहजता से प्रस्तुत कर दिया गया है वह किसी अनुभवी कवि की कलम से ही सम्भव है, एक चित्र सा बनकर उभर आता है जनसामान्य के दैनिक संघर्ष का-

सत्य अहिंसा दया धर्म
अवसरवादों ने लूटे
सरकारी दावे औ‘वादे
सारे निकले झूठे
भीड़ बहुत थी
अवसर कम थे
जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
घुटने बोल गए ...पृ॰-६०

हमारे समाज में नारी कम संघर्ष नहीं करती है, वह दिन-रात मेहनत करती है परन्तु समाज ने रूढ़ियों की जो भारी-भरकम जंजीर उसके पैरों में डाल रखी है, वह उसका खुलकर विरोध भी नहीं कर पा रही है, नारी की इस पीड़ा को कवयित्री महसूस कर रही है, जिस तरह से इतने जटिल विषय को इतनी सहजता से कह दिया है, इन पंक्तियों की व्यंजना को यहाँ महसूस किया जा सकता है, खास बात यह है कि नारी की दशा पर यहाँ न तो आक्रोश है, न गाली की भाषा है पर व्यंजना की मार ऐसी जोरदार है कि पंक्तियों को कई-कई बार पढ़ने का मन होता है और हर बार मन की संवेदना आहत होती है-

यह सड़क दिन रात चलती
पर वहीं है
इस सड़क के पैर
में जंजीर सदियों से पड़ी है
रूढ़ियों पर सर पटकती
खानदानी नार है ... पृ॰-६१

समाज में एक तरफ नारी उत्पीड़न का सामाजिक रोग सदियों से चला आ रहा है जिससे हर संवेदनशील आहत है वहीं दूसरी ओर मीडिया के द्वारा अपना दायित्व निर्वहन न करना, दूरदर्शन पर भारतीय संस्कृति की धज्जियाँ उड़ा कर रख देने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण और आम आदमी को गरीबी में जीने के लिए अभिशप्त होना, यह सब वर्तमान समय की बड़ी चिन्ता है-

बिके मीडिया के महामहिम
टीवी पर हावी है पश्चिम
जश्न हो रहा है सातों दिन
चमक-दमक में भूले रहकर
आम जनों के कटें न दुर्दिन ...पृ॰-६५

पूर्णिमा वर्मन के नवगीतों में विविधता देखने को मिलती है, उन्होंने वर्तमान समय की ज्वलंत समस्याओं को अपने नवगीतों का विषय बनाया है, वे भारत से दूर रहकर भी यहाँ की परम्पराओं, संस्कृति, रीति रिवाज और पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों से अपने को पूरी तरह से जोड़े हुये हैं। एक पिता अपनी सन्तान की छोटी-छोटी बातों का पूरा ध्यान रखता है। इस गीत को पढ़कर हर किसी को अपने पिता की याद आ ही जायेगी-

हाथ पकड़ कर
भरी सड़क को पार कराते
उठा तर्जनी
दूर कहीं गंतव्य दिखाते
थक जाने पर गोद उठाते ... पृ॰-७०

कविता का उद्देश्य है कि वह सकारात्मक सोच को बढ़ावा दे, बाधाएँ तो आती ही रहती हैं जो बाधाओं को, व्यथाओं को पार नहीं कर पाता है उन्हीं में उलझा रह जाता है वह जीवन में सफल भी नहीं हो पाता है इसलिए उदासी को छोड़कर पथ में निरन्तर बढ़े चलना ही सफलता का मूलमंत्र है। गीत की यह पंक्तियाँ किसी भी उदासमना को उदासी से उभारने तथा उदासी की हलचल को छोड़कर मंजिल की दिशा में उड़ चलने की अदम्य प्रेरणा दे सकती हैं-
एक पाखी
पंख में उल्लास लेकर
उड़ रहा है
जो व्यथा को
पार कर पाया नहीं
वह कथा में
सार भर पाया नहीं
छोड़ हलचल
बस उड़ा चल
क्यों उदासी की
डगर में मुड़ रहा है ...पृ॰-१०३

पूर्णिमा वर्मन का यह नवगीत संग्रह ‘कला कला के लिए’ के निकट न होकर ‘कला जीवन के लिए’ के निकट है। जीवन में आने वाली व्यावहारिक समस्याओं को नवगीतों का विषय बनाया गया है। लय और प्रवाह की डोर में बँधे इन नवगीतों की एक विशेषता यह भी है कि इनमें से अनेक नवगीतों को संगीत के साथ गाया जा सकता है और कई नवगीतों का मंचन भी किया जा सकता है। जो लोग पूर्णिमा वर्मन से नहीं मिले हैं वे ‘चोंच में आकाश’ के नवगीतों को पढ़कर उनसे मिलने का अहसास कर सकेंगे।
----------------------------------------------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - चोंच में आकाश, रचनाकार- पूर्णिमा वर्मन, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, मुट्ठीगंज, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२०१४ , मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ-११२ , समीक्षक- डॉ. जगदीश व्योम