tag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post8773951509045558615..comments2023-04-16T18:31:17.279+05:30Comments on संग्रह और संकलन: काल है संक्रांति का- आचार्य संजीव वर्मा सलिलनवगीत की पाठशालाhttp://www.blogger.com/profile/03110874292991767614noreply@blogger.comBlogger33125tag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-4471344060860365132016-08-16T00:44:58.511+05:302016-08-16T00:44:58.511+05:30सामाजिक सरोकारों को लेकर 'सलिल' सदैव सतर्क...सामाजिक सरोकारों को लेकर 'सलिल' सदैव सतर्क रहते हैं। वे व्यवस्था की त्रुटियों, कमियों और कमज़ोरियों को दिखाने में क़तई गुरेज नहीं करतेे। उनकी भूमिका विपक्ष की भूमिका हुआ करती है। अपनी कविता के दायरे में वे ऐसे तिलिस्म की रचना करते हैं, जिससे व्यवस्था के आर-पार जो कुछ हो रहा है, साफ-साफ दिखाई दे। वे कहीं रंग-बदलती राजनीति का तज़किरा उठाते हैं - <br /><br />‘सत्ता पाते / ही रंग बदले / यकीं न करना किंचित् पगले / काम पड़े पीठ कर देता / रंग बदलता है पल-पल में ’।<br /><br /> राजनीति का रंग बदलना कोई नयी बात नहीं, किंतु कुछ ज़्यादा ही बदलना 'सलिल' को नागवार गुजरता है। यदि साधुओं में कोई असाधु कृत्य करता दिखाई देगा, तो 'सलिल' की कविता उसका पीछा करते दिखाई देगी ‘वेश संत का / मन शैतान’। <br /><br /> ‘राम बचाये’ कविता व्यापक संदर्भों में अनेक परिदृश्यों को सामने रखती है। नगर से गाँव तक, सड़क से कूचे तक, समाज के विविध वर्णों, वर्गों और जातियों और जमातों की विसंगतियों को उजागर करती करती उनकी कविता ‘राम बचाये’ पाठकों के हृदय को पूरी तरह मथने में समर्थ है। यह उनके सामर्थ्य की पहचान कराती कविता ही है, जो बहुत बेलाग तरीक़े से, क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये, इसका भेद मिटाकर अपनी अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना की बाढ़ में सबको बहाकर ले जाती है। <br />................................<br />समीक्षक संपर्क- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, ८१० विजय नगर, जबलपुर, चलभाष ९४२५३२५०७२।Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-50844145982681854792016-08-16T00:44:42.888+05:302016-08-16T00:44:42.888+05:30अँधेरों से दोस्ती नहीं की जाती, किन्तु आज का आदमी ...अँधेरों से दोस्ती नहीं की जाती, किन्तु आज का आदमी उसी से बावस्ता है। उजालों की राह उसे रास नहीं आती। तब 'सलिल' की कठिनाई और बढ़ जाती है। वे हज़रत ख़िज्र की भाँति रास्ता दिखाने का यत्न करते तो हैं, किन्तु कोई उधर देखना नहीं चाहता- <br /><br />‘मनुज न किंचित् चेतते / श्वान थके हैं भौंक’। <br /><br /> इतना ही नहीं, आदमी अपने हिसाब से सच-झूठ की व्याख्या करता है और अपनी रची दुनिया में जीना चाहता है - ‘मन ही मन मनमाफ़िक / गढ़ लेते हैं सच की मूरत’। ऐसे आत्मभ्रमित लोगों की जमात है सब तरफ। <br /><br /> 'सलिल' की सूक्ष्मग्राहिका दृष्टि ने ३६० डिग्री की परिधि से भारतीय समाज के स्याह फलक को परखा है, जहाँ नेता हों या अभिनेता, जहाँ अफसर हो या बाबू, पूंजीपति हों या चिकित्सक, व्यापारी हों या दिहाड़ी -- सबके सब असत्य, बेईमानी, प्रमाद और आडंबर की पाठशाला से निकले विद्यार्थी हैं, जिन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ को सहलाने की विद्या आती है। इन्हें न मानव-मूल्यों की परवाह है और न अभिजात जीवन की चाह। ‘दरक न पाएँ दीवारें’, ‘जिम्मेदार नहीं है नेता’, ‘ग्रंथि श्रेष्ठता की’, ‘दिशा न दर्शन’ आदि रचनाएँ इस बात की प्रमाण हैं। <br /><br /> यह ज़रूर है कि सभ्यता और संस्कृति के प्रतिमानों पर आज के व्यक्ति और समाज की दशा भारी अवमूल्यन का बोध कराती है, किन्तु 'सलिल' पूरी तरह निराश नहीं हैं। वे आस्था और सम्भावना के कवि हैं। वे लम्बी, अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी देखने के अभ्यासी हैं। वे जानते हैं कि मुचकुन्द की तरफ शताब्दियों से सोये हुये लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है। 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है। <br /><br /> ‘काल है संक्रान्ति का’ कविता संग्रह ‘जाग उठो, जाग उठो’ के निनाद से प्रमाद में सुप्त लोगों के कर्णकुहरों को मथ देने का सामर्थ्य रखती है। अँधेरा इतना है कि उसे मिटाने के लिए एक सूर्य काफी नहीं है और न सूर्य पर लिखी एक कविता। इसीलिए संजीव 'सलिल' ने अनेक कविताएँ लिखकर बार-बार सूर्य का आह्नान किया है। ‘उठो सूरज’, ‘जगो! सूर्य आता है’, ‘आओ भी सूरज’, ‘उग रहे या ढल रहे’, ‘छुएँ सूरज’ जैसी कविताओं के द्वारा जागरण के मंत्रों से उन्होंने सामाजिक जीवन को निनादित कर दिया है। Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-55149733212738997072016-08-16T00:44:24.033+05:302016-08-16T00:44:24.033+05:30शुक्रवार, 5 अगस्त 2016
समीक्षा
कृति विवेचन-
संजी...शुक्रवार, 5 अगस्त 2016<br />समीक्षा<br />कृति विवेचन- <br />संजीव वर्मा ‘सलिल’ की काव्य रचना और सामाजिक विमर्श<br /> - डॉ. सुरेश कुमार वर्मा <br />*<br /><br /> हिंदी जगत् मे साहित्यकार के रूप में संजीव 'सलिल' की पहचान बन चुकी है। यह उनके बहुआयामी स्तरीय लेखन के कारण संभव हो सका है। उन्होंने न केवल कविता, अपितु गद्य लेखन की राह में भी लम्बा रास्ता पार किया है। इधर साहित्यशास्त्र की पेचीदी गलियों में भी वे प्रवेश कर चुके हैं, जिनमें क़दम डालना जोखिम का काम है। यह कार्य आचार्यत्व की श्रेणी का है और 'सलिल' उससे विभूषित हो चुके हैं। <br /><br /> ‘काल है संक्रान्ति का’ शीर्षक संकलन में उनकी जिन कविताओं का समावेश है, विषय की दृष्टि से उनका रेंज बहुत व्यापक है। उन्हें पढ़ने से ऐसा लगता है, जैसे एक जागरूक पहरुए के रूप में 'सलिल' ने समाज के पूरे ओर-छोर का मूल्यांकन कर डाला है। उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सब व्यक्ति की मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों के साक्ष्य पर लिखा है और जो कुछ कहा है, वह समाज के विघटनकारी घटकों का साक्षात अवलोकन कर कहा है। वे सब आँखिन देखी बातें हैं। इसीलिए उनकी अभिव्यंजाओं में विश्वास की गमक है। और जब कोई रचनाकार विश्वास के साथ कहता है, तो लोगों को सुनना पड़ता है। यही कारण है कि 'सलिल' की रचनाएँ पाठकों की समझ की गहराई तक पहुँचती है और पाठक उन्हें यों ही नहीं ख़ारिज कर सकता। <br /><br /> 'सलिल' संवेदनशील रचनाकार हैं। वे जिस समाज में उठते-बैठते हैं, उसकी समस्त वस्तुस्थितियों से वाक़िफ़ हैं। वहीं से अपनी रचनाओं के लिए सामग्री का संचयन करते हैं। उन्हें शिद्दत से एहसास है कि यहाँ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पूरे कुँए ही में भाँग पड़ी है। जिससे जो अपेक्षा है, वह उससे ठीक विपरीत चल रहा है। आम आदमी बुनियादी जरूरतों से महरूम हो गया है - <br /><br /><br />‘रोजी रोटी रहे खोजते / बीत गया<br /><br />जीवन का घट भरते-भरते/रीत गया।’ <br /> -कविता ‘कब आया, कब गया’ <br /><br /> <br /> ‘मत हिचक’ कविता में देश की सियासती हालात की ख़बर लेते हुये नक्लसवादी हिंसक आंदोलन की विकरालता को दर्शाया गया है -<br />‘काशी, मथुरा, अवध / विवाद मिटेंगे क्या? <br /> नक्सलवादी / तज विद्रोह / हटेंगे क्या?’ <br /><br /> ‘सच की अरथी’ एवं ‘वेश संत का’ रचनाओं में तथाकथित साधुओं एवं महन्तों की दिखावटी धर्मिकता पर तंज कसा गया है। <br /><br /> 'सलिल' की रचनाओं के व्यापक आकलन से यह बात सामने आयी है कि उनकी खोजी और संवेदनशाील दृष्टि की पहुँच से भारतीय समाज और देश का कोई तबका नहीं बचा है और अफसोस कि दुष्यन्त कुमार के ‘इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ’ की तर्ज पर उन्हें भी कमोबेश इसी भयावह परिदृश्य का सामना करना पड़ा। इस विभाषिका को ही 'सलिल' ने कभी सरल और सलीस ढंग से, कभी बिम्ब-प्रतिबिम्ब शैली में और कभी व्यंजना की आड़ी-टेढ़ी प्रणालियों से पाठकों के सामने रखा, किन्तु चाहे जिस रूप में रखा, वह पाठकों तक यथातथ्य सम्प्रेषित हुआ। यह 'सलिल' की कविता की वैशिष्ट्य है, कि जो वे सोचते हैं, वैसा पाठकों को भी सोचने को विवश कर देते हैं। <br />Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-27509223410177306242016-08-16T00:40:06.671+05:302016-08-16T00:40:06.671+05:30सूरज को लक्ष्य बनाकर अनेक मनमोहक रचनाओं का सृजन कि...सूरज को लक्ष्य बनाकर अनेक मनमोहक रचनाओं का सृजन किया गया है। सूरज को अनेक रूपों और विविध छटाओं में प्रस्तुत करने से कवि की कल्पनाशीलता, मौलिकता तथा काव्य प्रवीणता का परिचय होता है। उदाहरणार्थ "उठो सूरज", "जगो सूर्य आता है", "उगना नित", "आओ भी सूरज", "उग रहे या ढल रहे", "सूरज बबुआ", "छुएँ सूरज" आदि में सूरज के बिम्ब को विविध रूपों में दर्शाया गया है। "छोडो हाहाकार मियाँ" जैसी नवीन विधा की रचनाएँ पाठक को बाँधती हैं। संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है कि लोक जीवन से जुडी हुई अनेक रोचक रचनाओं में बुंदेलखण्डी की स्पष्ट छाप होना है। ये रचनाएँ बुंदेलखंड के महान कवि ईसुरी की याद दिलाती और अपना स्वतंत्र प्रभाव छोड़ती हैं।<br /><br /> कृति के आरम्भ में "स्तवन" पढ़कर महाकवि निराला की लेखनी को जीवंत किया गया है। "स्मरण" रचना अपने ढंग की अलग छाप छोड़ती है। "समर्पण" जैसी रचना यदि संग्रह में नहीं होती तो 'नारी' विशेषकर 'बहिन' के महत्व को कैसे सँवारा जाता? "अर्पित शब्द-हार उनको / जिनसे मुस्काता रक्षाबंधन"।<br /><br /> संग्रह में संग्रहीत रचनाएँ आज के गीत-नवगीत की प्रतिनिधि-क्रन्तिकारी रचनाएँ हैं। इन्हें एक नयी पीढ़ी और युग परिवर्तन के अनुरूप ढाला गया है। इसलिए संग्रह का नाम "काल है संक्रांति का" सर्वथा सार्थक है। वर्तमान जन मानस में पाश्चात्य शहरीकरण के बढ़ते दुष्प्रभाव को देखते हुए लोकजीवन से जुडी अनेक रचनाएँ कवि की भाषाई पैठ का अनुपम उदाहरण हैं। "छोडो हाहाकार मियाँ" रचना की इस दृष्टि से जितनी तारीफ की जाए थोड़ी है।<br /><br /> "कब होंगे आज़ाद" आधुनिक शैली में लिखी गयी अनुपम राष्ट्रीय रचना है। नयी शैली की "खौं-खौं करते बादल बब्बा" जैसी रूपक प्रधान कविता असंग्रह की उपलब्धि है। प्रत्येक रचना के साथ उनके कथ्य को समेटे चित्र महादेवी वर्मा की याद दिलाते हैं जिनकी अधिकांश रचनाएँ चित्रमाला से सज्जित होती थीं। संदेशवाही आवरण के लिए मयंक वर्मा तथा शीर्षक-चित्रों की प्रस्तुति के लिए अनुप्रिया साधुवाद के पात्र हैं। <br /><br /> "काल है संक्रांति का" कृति कई दृष्टियों से पठनीय, मननीय, प्रशंसनीय, संग्रहणीय और स्मरणीय है। यह गीत-नवगीत विधा में मील का पत्थर है। वर्तमान काल में गीत-नवगीत की ऐसी सरस, सारगर्भित अन्य कृति मैंने नहीं पढ़ी। समूची कृति शब्दों को सलीके से उपयोग में लाया गया है। हर रचना की हर एक विशेषता का वर्णन संभव नहीं लगता। कृति को कई भागों में बाँटकर ही उस पर लिखा जा सकता है। कृति की साज-सज्जा मनमोहक, हजारों में एक है। परम प्रिय भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की यह कृति आज के गीत-नवगीत रचना क्षेत्र में नवीन कीर्तिमान गढ़ेगी। से प्रार्थना है कि सलिल जी को परिवर्तनशील युग के अनुरूप सृजन शक्ति देकर नए-नए कीर्तिमान रचवाती रहें। <br />***<br />-कल्पतरु, ५२५/२९३ पुराना महानगर लखनऊ , चलभाष ९४५०४००७९२Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-3430265127007373932016-08-16T00:39:49.156+05:302016-08-16T00:39:49.156+05:30सोमवार, 11 जुलाई 2016
समीक्षा
पुस्तक समीक्षा-
गीत-...सोमवार, 11 जुलाई 2016<br />समीक्षा<br />पुस्तक समीक्षा-<br />गीत-नवगीत की भगीरथी 'काल है संक्रांति का'<br />समीक्षक साधुशरण वर्मा 'सरन', लखनऊ <br />*<br /> अंग्रेजी की निरन्तर बढ़ते वर्चस्व काल में सतत हिंदी साहित्य की अखण्ड साधना में निमग्न, आधुनिक हिंदी भाषा और छंद के विकास तथा लोकप्रियता हेतु समर्पित, कलम के देव, लोकतंत्र का मक़बरा औेर मीत मेरे जैसी चर्चित कृतियों के रचयिता, संपूर्ण भारत में हिंदी की ध्वजा फहराती देखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील, अनेक पुस्तकों, पत्रिकाओं और स्मारिकाओं को अपनी संपादन कला से सँवारने-सुशोभित करनेवाले, हिंदी पिंगल विद्वानों की अग्र पंक्ति में स्थापित, गीत-नवगीत की अजस्र भगीरथी प्रवाहित करनेवाले, कलम के धनी भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हिंदी साहित्य के कोहिनूर हैं। बहुधा जिन सम्मानों<br />तथा पुरस्कारों के पीछे अनेक साहित्यकार दौड़ते हैं, वे आपका पीछा करते हैं। <br /><br /> निस्पृह संत की तरह हिंदी साहित्य के प्रति समर्पित सलिल जी को कौन नहीं जानता? वर्तमान हिंदी साहित्य में आपका योगदान सर्वदा सराहा जायेगा। ऐसे हिंदीसेवी की लेखनी ने गीत-नवगीत की नयी कृति 'काल है संक्रांति का' का रत्नोपहार देकर साहित्य की श्रीवृद्धि की है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि कृति में समर्पण, भूमिका आदि समूची सामग्री नव पद्य में निवेदित है। यह एक नयी परंपरा का सूत्रपात है। कृति का अनूठापन गीत-अगीत का नवगीत में ढल जाना है। कृति की रचनाएँ विविधताओं को समाविष्ट किये हैं, अनेक विषय इनमें निहित हैं। दैनन्दिन जीवन की अनेक छोटी-छोटी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में रचे गए गीतों की मार्मिकता ह्रदय को छू जाती है। उद्धरण देने के सिलसिले में कहना होगा कि पूरी पुस्तक ही उद्धरणीय पंक्तियों से भरी हुई है। "जगो सूर्य आता है" महान आशावादी नवगीत है। १२-१-१०१५ को छिंदवाड़ा में लिखा गया यह गीत दर्शाता है कि यत्र-तत्र भ्रमण के बीच इन नवगीतों की रचना की गयी है। "नए साल को आना है तो आएगा ही" मनमोहक प्रेरणाप्रद गीत है। संकलन में ऐसे गीतों की झड़ी लगी है। <br /><br /> इस संग्रह के नवगीतों में एक तथ्य सर्वथा नवीन मिलता है कि इनमें लोक साहित्य और लोक गीतों का सा आनंद मिलता है। ऐसा कृति पूर्व में मेरे परहने में नहीं आई। कटनी में लिखी गयी रचना ''राम बचाये'' पठनीय है। इसी तरह "हाथों में मोबाइल", "खुशियों की मछली" आदि नवगीत आपकी प्रतिनिधि रचनाएँ कही जा सकती हैं। "तुम बंदूक चलाओ तो" रचना युग निर्माण हेतु आदर्श रचना है। "मिल जाइए" जैसी शास्त्रीय रचना भी ध्यान आकर्षित करती है। कृति में अनेक रचनाएँ शास्त्रीयता का निर्वाह कर रही हैं। "दर्पण का दिल" भी इसी कोटि की रचना है।<br /><br /> संग्रह में ''मैं लडूँगा'' जैसी कई असाधारण रचनाएँ हैं, जिनका कथ्य पाठक शायद पहली बार पढ़ेगा। इनमें यथार्थ के स्वर गूँजते हैं। ''श्वासों में श्वास", "उठो पाखी", "संक्रांति काल है", "आओ भी सूरज" आदि अनेक रचनाओं को उदाहरण के लिए उद्धृत किया जा सकता है।Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-17602114228272952752016-08-16T00:36:20.430+05:302016-08-16T00:36:20.430+05:30"चूड़ी - बिंदी दिला न पाया
..."चूड़ी - बिंदी दिला न पाया<br /> रूठ न मों से प्यारी<br /> अगली बेर पहलऊँ लेऊँ<br /> अब तो दे मुस्का री" - मिली दिहाड़ी चल बाज़ार<br /><br /> अंधविश्वास, ढकोसलों,रूढ़िवादिता जैसे विषयों के विरोध और उन्मूलन हेतु रची गयी रचनाओं से भी समृद्ध है यह संग्रह | ‘अंधश्रद्धा’ एक ऐसा ही नवगीत है जिसमे मनुष्यों को कवि आगाह करता हुआ कहता है –<br /><br /> "आदमी को देवता मत मानिए<br /><br /> आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए"<br /><br /> कवि निकटता से कैंसर जैसे भयंकर रोग से रूबरू हुआ है तथा अपनी निजी जिंदगी में अपनी अर्धांगनी को उस शैतान के जबड़े से छुडा कर लाया है उसकी कलम उस शैतान को ललकारते हुए कहती है -- -<br /><br /> "कैंसर! मत प्रीत पालो<br /> शारदा सुत पराजित होता नहीं है<br /> यह जान लो तुम। <br /> पराजय निश्चित तुम्हारी<br /> मान लो तुम।" <br /><br /> "हाथों में मोबाईल" एक सम सामयिक रचना है जिसमें पश्चिमी सभ्यता में रँगी नव पीढ़ी पर जबरदस्त तंज है|<br /><br /> ‘लोकतंत्र का पंछी’ आज की सियासत पर बेहतर व्यंगात्मक नवगीत है|<br /><br /> ‘जिम्मेदार नहीं है नेता’ प्रस्तुति में आज के स्वार्थी भ्रष्ट नेताओं को अच्छी नसीहत देते हुए कवि कहता है –<br /><br /> "सत्ता पाते ही रंग बदले<br /> यकीं न करना किंचित पगले<br /> काम पड़े पीठ कर देता<br /> रंग बदलता है पल-पल में।"<br /><br /> ‘उड़ चल हंसा’ एक शानदार रचना है जिसमें हंस का बिम्ब प्रयोग करते हुए मानव में होंसला जगाते हुए कवि कहता है –<br /><br /> "उड़ चल हंसा! मत रुकना<br /><br /> यह देश पराया है। "<br /><br /> आज के सामाजिक परिवेश में पग पग पर उलझनों जीवन की समस्याओं से दो चार होता कवि मन आगे आने वाली पीढ़ी को प्रेरित करता हुआ कहता है –‘आज नया इतिहास लिखें हम’ बहुत अच्छे सन्देश को शब्दिक करता शानदार नवगीत है | इस तरह ‘उम्मीदों की फसल’ उगाती हुई आचार्य सलिल जी की ये कृति ‘दरक न पायें दीवारे’ इसका ख़याल और निश्चय करती हुई ‘अपनी मंजिल’ पर आकर पाठकों की साहित्यिक पठन पाठन की क्षुदा को संतुष्ट करती हैं| निःसंदेह यह पुस्तक पाठकों को पसंद आएगी मैं इसी शुभकामना के साथ आचार्य संजीव सलिल जी को हार्दिक बधाई देती हूँ | <br /><br />काल है संक्रांति का<br />गीत-नवगीत संग्रह <br />समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर ४८२००१<br /> २४१११३१, <br />समीक्षक –राजेश कुमारी ‘राज‘ देहरादून <br />***Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-22455848868339149492016-08-16T00:36:01.049+05:302016-08-16T00:36:01.049+05:30कवि ने अपने कुछ नवगीतों में नव वर्ष का खुले हृदय स... कवि ने अपने कुछ नवगीतों में नव वर्ष का खुले हृदय से स्वागत किया है | “मत हिचक” में व्यंगात्मक लहजा अपनाते हुए कवि पूछता है – "नये साल मत हिचक, बता दे क्या होगा ?" अर्थात आज की जो सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ हैं क्या उनमे कोई बदलाव या सुधार होगा? यह बहुत सारगर्भित प्रस्तुति है |<br /><br /> "सुन्दरिये मुंदरिये एक ऐसा गीत है जो बरबस ही आपके मुख पर मुस्कान ले आएगा |कवि ने पंजाब में लोहड़ी पर गाये आने वाले लोकगीत की तर्ज़ पर इसे लिखा है | पाठक को मुग्ध कर देंगी उनकी ये पंक्तियाँ –<br /><br /> "सुन्दरिये मुंदरिये होय!<br /> सब मिल कविता करिए होय!<br /> कौन किसी का प्यारा होय|<br /> स्वार्थ सभी का न्यारा होय|"<br /><br /> समसामयिक विषयों पर भी कवि की कलम जागरूक रहती है – "ओबामा आते देस में करो पहुनाई"| आना और जाना प्रकृति का नियम है और शाश्वत सत्य भी जिसे हृदय से सब स्वीकारते हैं वृक्ष पर फूल - पत्ते आयेंगे, पतझड़ में जायेंगे ही सब इस तथ्य को स्वीकार करते हुए मानसिक रूप से तैयार रहते हैं किन्तु जहाँ बेटी के घर छोड़कर जाने की बात आती है तो कवि की कलम भी द्रवित हो उठती है हृदय को छू गया ये नवगीत –<br /><br /> “अब जाने की बारी”-- --<br /><br /> देखे बिटिया सपने, घर आँगन छूट रहा<br /> है कौन कहाँ अपने, ये संशय है भारी<br /> सपनो की होली में, रंग अनूठे ही<br /> साँसों की होली ने,कब यहाँ करी यारी<br /> अब जाने की बारी"<br /><br /> ‘खासों में ख़ास’ रचना में कवि ने व्यंगात्मक शैली में पैसों के गुरूर पर जो आघात किया है देखते ही बनता है |<br /><br /> "वह खासो में ख़ास है<br /> रुपया जिसके पास है<br /> सब दुनिया में कर अँधियारा<br /> वह खरीद लेता उजियारा"<br /><br /> ‘तुम बन्दूक चलाओ तो’ आतंकवाद जैसे सामयिक मुद्दे पर कवि की कलम तीक्ष्ण हो उठती है जिसके पीछे एक लेखक, एक कवि की हुंकार है वो ललकारता हुआ कहता है –<br /><br /> "तुम बन्दूक चलाओ तो<br /> हम मिलकर कलम चलाएंगे<br /> तुम जब आग लगाओगे<br /> हम हँस के फूल खिलाएंगे"<br /><br /> एक मजदूर जो सुबह से शाम तक परिश्रम करता है अपना पसीना बहता तो दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ कर पाता है| ‘मिली दिहाड़ी’ एक दिल छू लेने वाली रचना है जो पाठकों को झकझोर देती है |<br />Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-21534916067397809572016-08-16T00:35:05.223+05:302016-08-16T00:35:05.223+05:30रविवार, 26 जून 2016
समीक्षा
पुस्तक चर्चा-
स्तुत्य,...रविवार, 26 जून 2016<br />समीक्षा<br />पुस्तक चर्चा-<br />स्तुत्य, सम्यक, सरस,सुगन्धित पुष्प वल्लरी है ‘काल है संक्रांति का’<br />राजेश कुमारी ‘राज‘<br />*<br /> हमारे वेद शास्त्रों में कहा गया है “छन्दः पादौ वेदस्य” अर्थात छंद वेद के पाँव हैं | यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविताओं की कसौटी छंद है| कवि के मन के भाव यदि छंदों का कलेवर पा जाएँ तो पाठक के लिए हृदय ग्राही और स्तुत्य हो जाते हैं | आज ऐसी ही स्तुत्य सुगन्धित सरस पुष्पों की वल्लरी “काल है संक्रांति का” गीत नवगीत संग्रह मेरे हाथों में है | जिसके रचयिता आचार्य संजीव सलिल जी हैं|<br /><br /> आचार्य सलिल जी हिंदी साहित्य के जाने माने ऐसे हस्ताक्षर हैं जो छंदों के पुरोधा हैं छंद विधान की गहराई से जानकारी रखते हैं| जो दत्त चित्त होकर रचनाशीलता में निमग्न नित नूतन बिम्ब विधान नवप्रयोग चिन्तन के नए धरातल खोजती हुई काव्य सलिला, गीतों की मन्दाकिनी बहाते हुए सृजनशील रहते हैं| आपका सद्य प्रकाशित काव्य संकलन ‘काल है संक्रांति का इसी की बानगी है|<br /><br /> <br /> कुछ दिनों पूर्व भोपाल के ओबीओ साहित्यिक आयोजन में सलिल जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था आपके कृतित्व से तो पहले ही परिचय हो चुका था जिससे मैं बहुत प्रभावित थी भोपाल में मिलने के बाद उनके हँसमुख सरल सहृदय व्यक्तित्व से भी परिचय हुआ | वहाँ मंच पर आपकी कृति काल है संक्रांति का” पर बोलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। "काल है संक्रांति का” ६५ गीत - नवगीतों का एक सुन्दर संग्रह है| समग्रता में देखें तो ये गीत - नवगीत एक बड़े कैनवस पर वैयक्तिक जीवन के आभ्यांतरिक और चयनित पक्षों को उभारते हैं, रचनाकार के आशय और अभिप्राय के बीच मुखर होकर शब्द अर्थ छवियों को विस्तार देते हैं जिनके मर्म पाठक को सोचने पर मजबूर कर देते हैं। <br /><br /> सलिल जी ने वंदन, स्तवन, स्मरण से लेकर ‘दरक न पायें दीवारें’ तक यद्यपि पाठक को बाँध कर रखा है तथापि उनका कवि अपनी रचनाओं का श्रेय खुद नहीं लेना चाहता -- - "नहीं मैंने रचे हैं ये गीत अपने /क्या बताऊँ कब लिखाए और किसने?"<br /><br /> पुस्तक के शीर्षक को सार्थक करती प्रस्तुति ‘संक्रांति काल है" की निम्न पंक्तियाँ दिल छू जाती हैं -<br /><br /> "सूरज को ढाँपे बादल<br /><br /> सीमा पर सैनिक घायल"<br /><br /> पुस्तक में नौ - दस नवगीत सूरज की गरिमा को शाब्दिक करते हैं कवि सूरज को कहीं नायक की तरह, कहीं मित्रवत संबोधित करते हुए कहता है –<br /><br /> "आओ भी सूरज !<br /><br /> छट गए हैं फूट के बादल<br /><br /> पतंगे एकता की मिल उड़ाओ<br /><br /> गाओ भी सूरज" (आओ भी सूरज से) Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-56085484008135109782016-08-16T00:31:07.396+05:302016-08-16T00:31:07.396+05:30कवि केवल नवगीत में ही माहिर नही है अपितुं छांदिक ग...कवि केवल नवगीत में ही माहिर नही है अपितुं छांदिक गीतों पर भी उसकी पूरी पकड़ है। उनका हरिगीतिका छंद देखे-<br />पहले गुना, तब ही चुना। <br />जिसको तजा वह था घुना।<br />सपना वही सबने बुना<br />जिसके लिए सिर था धुना। (पहले गुना -पृष्ठ-61)<br />अब बुंदेली में वीर छंद (आल्ह छंद) देखें-<br />एक सिंग खों घेर भलई लें, सौ वानर-सियार हुसियार<br />गधा ओढ़ ले खाल सेर की, देख सेर पोंके हर बार<br />ढेंंचू - ढेंचू रेंक भाग रओ, करो सेर नें पल मा वार<br />पोल खुल गयी, हवा निकल गयी, जान बखस दो, करें पुकार।<br />भारत वारे बड़ें लड़ैया, बिनसें हारे पाक सियार। (भारतवारे बड़े लड़ैया -पृष्ठ-67)<br />इस सुन्दर दोहागीत को पढ़कर तो मन नाचने लगता है-<br />सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक।<br />बगुला भगतों ने लिखीं, ध्यान कथाएँ खूब<br />मछली चोंचों में फँसी, खुद पानी में डूब।। <br />जाँच कर रहे केकड़े, रोक सके तो रोक।<br />सच की अरथी उठाकर, झूठ मनाता शोक। ( सच की अरथी -पृष्ठ-55)<br />कवि ने दोहे व सोरठे का सम्मिलित प्रयोग करके शा नदार गीत की रचना की है। इस गीत में दोहे के एक दल को प्रारम्भ में तथा दूसरे दल को अंत में रखकर बीच में एक पूरा सोरठा समा दिया है।<br />दर्पण का दिल देखता, कहिए जग में कौन?<br />आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता<br />करता नहीं खयाल, नयन कौन सा फड़कता?<br />सबकी नजर उतारता, लेकर राई- नौन।। (दर्पण का दिल -पृष्ठ-57)<br />अब वर्णिक छंद में सुप्रतिष्ठा जातीय के अन्तर्गत नायक छंद देखें-<br />उगना नित, हँस सूरज<br />धरती पर रखना पग, जलना नित, बुझना मत,<br />तजना मत, अपना मग, छिपना मत, छलना मत<br />चलना नित,उठ सूरज। उगना नित, हँस सूरज। (उगना नित-पृष्ठ-28)<br />कवि का यह नवगीत-गीत संकलन निःसन्देह पठनीय है जो नए-नए बिम्ब और प्रतीक लेकर आया है। बुन्देली और सामान्य हिन्दी में रचे गए इन गीतों में न केवल ताजगी है अपितु नयापन भी है। हिन्दी, उर्दू, बुन्देली, अंग्रेजी व देशज शब्दों का प्रयोग करते हुए इसे आमजन के लिए पठनीय बनाने का प्रयास किया गया है। हिन्दीभाषा को विश्व पटल पर लाने की आकांक्षा समेटे यह ग्रंथ हिन्दी व बुन्देली पाठकों के बीच लोकप्रिय होगा, ऐसी मेरी आशा है।<br />दिनांक-5 मई 2016<br />अभिषेक १, उदयन १, सेक़्टर १<br />एकता विहार लखनऊDivya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-90486963530469003192016-08-16T00:30:49.782+05:302016-08-16T00:30:49.782+05:30कवि धन की महिमा एवं उसके दुष्प्रभाव प्रभाव को बतात...कवि धन की महिमा एवं उसके दुष्प्रभाव प्रभाव को बताते हुए कहता है कि-<br />सब दुनिया में कर अँधियारा, वह खरीद लेता उजियारा।<br />मेरी-तेरी खाट खड़ी हो, पर उसकी होती पौ-बारा।।<br />असहनीय संत्रास है, वह मालिक जग दास है।<br />वह खासों में खास है, रुपया जिसके पास है।। (खासों में खास- पृष्ठ-68)<br />लेटा हूँ, मखमल की गादी पर, लेकिन नींद नहीं आती<br />इस करवट में पड़े दिखाई, कमसिन बर्तनवाली बाई।<br />देह साँवरी, नयन कटीले, अभी न हो पाई कुड़माई।<br />मलते-मलते बर्तन, खनके चूड़ी जाने क्या गाती है? <br />मुझ जैसे लक्ष्मी पुत्र को बना भिखारी वह जाती है। ( लेटा हूँ-पृष्ठ-83)<br />यह मत समझिये कि कवि केवल सामाजिक समस्याओ अथवा राजनीतिक या चारित्रिक गिरावट की ही बात कर सकता है , वह प्रेम भी उसी अंदाज में करता है-<br />अधर पर धर अधर, छिप, नवगीत का मुखड़ा कहा।<br />मन लय गुनगुनाता खुश हुआ। ( अधर पर- पृष्ठ-85)<br />परमार्थ, परहित और सामाजिक चिन्तन भी इनकी कलम की स्याही से उजागर होते है-<br />अहर्निश चुप लहर सा बहता रहे।<br />दे सके औरों को कुछ, ले कुछ नहीं।<br />सिखाती है यही भू माता मही। (अहर्निश चुप लहर सा-पृष्ठ-90)<br />क्यों आये है? क्या करना है? ज्ञात न,पर चर्चा करना है।<br />शिकवे-गिले, शिकायत हावी, यह अतीत था, यह ही भावी<br />हर जन ताला, कहीं न चाबी।<br />मर्यादाओं का उल्लंघन। दिशा न दर्शन, दीन प्रदर्शन। (दिशा न दर्शन- पृष्ठ-105)<br />कवि अंधश्रद्धा के बिल्कुल खिलाफ है तो भाग्य-कर्म में विश्वास भी रखता है-<br />आदमी को देवता मन मानिये, आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए।<br />साफ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो, गैर को निज मसीहा मत मानिए।<br />नीति- मर्यादा, सुपावनधर्म है, आदमी का भाग्य, लिखता कर्म है।<br />शर्म आये, कुछ न ऐसा कीजिए, जागरण ही जिन्दगी का मर्म है।।<br />देवप्रिय निष्पाप है। अंधश्रद्धा पाप है। (अंधश्रद्धा -पृष्ठ-89)<br />कवि ने एक तरफ बुन्देली के लोकप्रिय कवि ईसुरी के चौकड़िया फागों की तर्ज पर बुंदेली भाषा में ही नया प्रयोग किया है तो दूसरी ओर पंजाब के दुल्ला भाटी के लोहड़ी पर्व पर गाए जाने वाले लोकगीतों की तर्ज पर कविता को नए आयाम देने का प्रयास किया है-<br />मिलती काय नें ऊँची वारी, कुरसी हम खों गुइयाँ।<br />अपनी दस पीढ़ी खें लाने, हमें जोड़ रख जानें<br />बना लई सोने की लंका, ठेंगे पे राम-रमैया। (मिलती काय नें-पृष्ठ-52)<br />सुंदरिये मुंदरिये, होय! सब मिल कविता करिए होय।<br />कौन किसी का प्यारा होय, स्वार्थ सभी का न्यारा होय। (सुंदरिये मुंदरिये होय -पृष्ठ-49)<br />सोहर गीत किसी जमाने की विशेष पहचान होती थी। लेकिन इस लुप्त प्राय विधा पर भी कवि ने अपनी कलम चलाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वे पद्य में किसी भी विधा पर रचना कर सकते है।<br />बुंदेली में लिखे इस सोहरगीत की बानगी देखें-<br />ओबामा आते देश में, करो पहुनाई।<br />चोला बदल कें आई किरनिया, सुसमा के संगे करें कर जुराई।<br />ओबामा आये देश में, करो पहुनाई। (ओबामा आते -पृष्ठ-53)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-22327810868953686912016-08-16T00:30:26.813+05:302016-08-16T00:30:26.813+05:30नीति- नियम बस्ते में रख, मनमाफ़िक हर रीत हो।
राज मु...नीति- नियम बस्ते में रख, मनमाफ़िक हर रीत हो।<br />राज मुखौटे चहिए छपने। पल में बदल गए है नपने।<br />कल के गैर आज है अपने।। (कल के गैर-पृष्ठ-116)<br />सही, गलत हो गया अचंभा, कल की देवी अब है रंभा।<br />शीर्षासन कर रही सियासत, खड़ा करे पानी पर खम्भा।(कल का अपना -पृष्ठ-117)<br />लिये शपथ सब संविधान की, देश देवता है सबका<br />देश - हितों से करो न सौदा, तुम्हें वास्ता है रब का<br />सत्ता, नेता, दल, पद, झपटो, करो न सौदा जनहित का<br />भार करों का इतना ही हो, दरक न पाएँ दीवारें। (दरक न पाएँ दीवारें -पृष्ठ-128)<br />कवि जितना दुखी दूषित राजनीति से है उतना ही सतर्क आतंकवाद से भी है। लेकिन आतंकवाद से वह भयभीत नहीं बल्कि उसका सामना करने को तत्पर भी है।<br />पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें।<br />धिक्-धिक् तुमने भू की कोख़ लजाई है, पैगम्बर, मजहब, रब की रुस्वाई है<br />राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर, तुमको जनने वाली माँ पछताई है<br />मानव होकर दानव से भी बदतर तुम, क्यों भाया है, बोलो! हाहाकार तुम्हें?<br />पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें। (पेशावर के नर पिशाच-पृष्ठ-71)<br />तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे।<br />तुम्हें न भायी कभी किताब, हम पढ़-लिखकर बने नवाब<br />दंगे कर फैला आतंक, रौंदों जनगण को निश्शंक<br />तुम मातम फैलाओगे, हम फिर नव खुशियाँ लायेंगे<br />तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे। (तुम बंदूक चलाओ तो-पृष्ठ-72)<br />लाख दागों गोलियाँ, सर छेद दो, मैं नहीं बस्ता तजूँगा।<br />गया विद्यालय, न, वापिस लौट पाया<br />तुम गये हो जीत, यह किंचित न सोचो<br />भोर होते ही उठाकर, फिर नये बस्ते हजारों<br />मैं बढूँगा, मैं लडूँगा। मैं लडूँगा। (मैं लडूँगा- पृष्ठ-74)<br />कवि का ध्यान गरीबी और दिहाड़ी मजदूरी पर जिन्दा रहने वालों की ओर भी गया है।<br />रावण रखकर रूप राम का, करे सिया से नैन-मटक्का<br />मक्का जानें खों जुम्मन ने बेच दई बीजन की मक्का<br />हक्का-बक्का खाला बेबस, बिटिया बार-गर्ल बन सिसके<br />एड्स बाँट दूँ हर ग्राहक को, भट्टी अंतर्मन में दहके<br />ज्वार बाजरे की मजबूरी, भाटा-ज्वार दे गए सूली। गटक न पाए। भटक न जाए। (हाथों में मोबाइल-पृष्ठ-97)<br />मिली दिहाड़ी चल बाजार।<br />चावल-दाल किलो भर ले-ले, दस रुपये की भाजी <br />घासलेट का तेल लिटर भर, धनिया मिर्ची ताजी....।<br />खाली जेब पसीना चूता अब मत रुक रे मन बेजार। <br />मिली दिहाड़ी चल बाजार। (मिली दिहाड़ी-पृष्ठ-81)<br />केवल दूषित राजनीति टूटते सम्बंध और नैतिकता में ह्रास की ही बात कवि नहीं करता अपितु आजकल के नकली साधुओं को भी अपनी लेखनी की चपेट में ले रहा है।<br />खुद को बतलाते अवतारी, मन भाती है दौलत नारी<br />अनुशासन कानून न मानें, कामचोर वाग्मी हैं भारी। <br />पोल खोल दो मन से ठान, वेश संत का, मन शैतान। (वेश संत का-पृष्ठ-88)<br />रचनाकार मूलतः अभियंता है और उसे कनिष्ठ अभियंताओं के दर्द का अहसास है अतः उनके दर्द को भी उसने अपनी कलम से निःसृत किया है।<br />अगल जनम उपयंत्री न कीजो।<br />तेरा हर अफसर स्नातक, तुझ पर डिप्लोमा का पातक<br />वह डिग्री के साथ रहेगा तुझ पर हरदम वार करेगा<br />तुझे भेज साइट पर, सोये, तू उन्नति के अवसर खोये<br />तू है नींव, कलश है अफसर, इसीलिए वह पाता अवसर।<br />कर्मयोग तेरी किस्मत में, भोग-रोग उनकी किस्मत में।<br />कह न किसी से कभी पसीजो, श्रम-सीकर में खुशरह भीजो। (अगले जनम-पृष्ठ-79-80)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-14050733845765244242016-08-16T00:29:26.094+05:302016-08-16T00:29:26.094+05:30नीति- नियम बस्ते में रख, मनमाफ़िक हर रीत हो।
राज मु...नीति- नियम बस्ते में रख, मनमाफ़िक हर रीत हो।<br />राज मुखौटे चहिए छपने। पल में बदल गए है नपने।<br />कल के गैर आज है अपने।। (कल के गैर-पृष्ठ-116)<br />सही, गलत हो गया अचंभा, कल की देवी अब है रंभा।<br />शीर्षासन कर रही सियासत, खड़ा करे पानी पर खम्भा।(कल का अपना -पृष्ठ-117)<br />लिये शपथ सब संविधान की, देश देवता है सबका<br />देश - हितों से करो न सौदा, तुम्हें वास्ता है रब का<br />सत्ता, नेता, दल, पद, झपटो, करो न सौदा जनहित का<br />भार करों का इतना ही हो, दरक न पाएँ दीवारें। (दरक न पाएँ दीवारें -पृष्ठ-128)<br />कवि जितना दुखी दूषित राजनीति से है उतना ही सतर्क आतंकवाद से भी है। लेकिन आतंकवाद से वह भयभीत नहीं बल्कि उसका सामना करने को तत्पर भी है।<br />पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें।<br />धिक्-धिक् तुमने भू की कोख़ लजाई है, पैगम्बर, मजहब, रब की रुस्वाई है<br />राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर, तुमको जनने वाली माँ पछताई है<br />मानव होकर दानव से भी बदतर तुम, क्यों भाया है, बोलो! हाहाकार तुम्हें?<br />पेशावर के नर पिशाच! धिक्कार तुम्हें। (पेशावर के नर पिशाच-पृष्ठ-71)<br />तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे।<br />तुम्हें न भायी कभी किताब, हम पढ़-लिखकर बने नवाब<br />दंगे कर फैला आतंक, रौंदों जनगण को निश्शंक<br />तुम मातम फैलाओगे, हम फिर नव खुशियाँ लायेंगे<br />तुम बंदूक चलाओ तो, हम मिलकर कलम चलायेंगे। (तुम बंदूक चलाओ तो-पृष्ठ-72)<br />लाख दागों गोलियाँ, सर छेद दो, मैं नहीं बस्ता तजूँगा।<br />गया विद्यालय, न, वापिस लौट पाया<br />तुम गये हो जीत, यह किंचित न सोचो<br />भोर होते ही उठाकर, फिर नये बस्ते हजारों<br />मैं बढूँगा, मैं लडूँगा। मैं लडूँगा। (मैं लडूँगा- पृष्ठ-74)<br />कवि का ध्यान गरीबी और दिहाड़ी मजदूरी पर जिन्दा रहने वालों की ओर भी गया है।<br />रावण रखकर रूप राम का, करे सिया से नैन-मटक्का<br />मक्का जानें खों जुम्मन ने बेच दई बीजन की मक्का<br />हक्का-बक्का खाला बेबस, बिटिया बार-गर्ल बन सिसके<br />एड्स बाँट दूँ हर ग्राहक को, भट्टी अंतर्मन में दहके<br />ज्वार बाजरे की मजबूरी, भाटा-ज्वार दे गए सूली। गटक न पाए। भटक न जाए। (हाथों में मोबाइल-पृष्ठ-97)<br />मिली दिहाड़ी चल बाजार।<br />चावल-दाल किलो भर ले-ले, दस रुपये की भाजी <br />घासलेट का तेल लिटर भर, धनिया मिर्ची ताजी....।<br />खाली जेब पसीना चूता अब मत रुक रे मन बेजार। <br />मिली दिहाड़ी चल बाजार। (मिली दिहाड़ी-पृष्ठ-81)<br />केवल दूषित राजनीति टूटते सम्बंध और नैतिकता में ह्रास की ही बात कवि नहीं करता अपितु आजकल के नकली साधुओं को भी अपनी लेखनी की चपेट में ले रहा है।<br />खुद को बतलाते अवतारी, मन भाती है दौलत नारी<br />अनुशासन कानून न मानें, कामचोर वाग्मी हैं भारी। <br />पोल खोल दो मन से ठान, वेश संत का, मन शैतान। (वेश संत का-पृष्ठ-88)<br />रचनाकार मूलतः अभियंता है और उसे कनिष्ठ अभियंताओं के दर्द का अहसास है अतः उनके दर्द को भी उसने अपनी कलम से निःसृत किया है।<br />अगल जनम उपयंत्री न कीजो।<br />तेरा हर अफसर स्नातक, तुझ पर डिप्लोमा का पातक<br />वह डिग्री के साथ रहेगा तुझ पर हरदम वार करेगा<br />तुझे भेज साइट पर, सोये, तू उन्नति के अवसर खोये<br />तू है नींव, कलश है अफसर, इसीलिए वह पाता अवसर।<br />कर्मयोग तेरी किस्मत में, भोग-रोग उनकी किस्मत में।<br />कह न किसी से कभी पसीजो, श्रम-सीकर में खुशरह भीजो। (अगले जनम-पृष्ठ-79-80)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-24956273089981813772016-08-16T00:29:03.914+05:302016-08-16T00:29:03.914+05:30धर्म भाव कर्तव्य कभी बन पायेगा?
मानवता की मानव जय ...धर्म भाव कर्तव्य कभी बन पायेगा?<br />मानवता की मानव जय गुँजायेगा?<br />मंगल छू, भू के मंगल का क्या होगा?<br />नये साल मत हिचक, बता दे क्या होगा? (सिर्फ सच -पृष्ठ-46)<br />'कथन' कविता में कवि छंदयुक्त कविता का खुला समर्थन करते हुए नजर आ रहे हैं। वे कहते हैं कि-<br />ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी?<br />विरामों से पंक्तियाँ नव बना, मत कह<br />छंदहीना नयी कविता है सिरजनी।<br />मौन तजकर मनीषा,कह बात अपनी। (कथन -पृष्ठ-14)<br />कवि सामाजिक समस्याओं के प्रति भी जागरूक है और विभिन्न समस्याओं समस्याओं को तेजधार के साथ घिसा भी है-जल प्रदूषण के प्रति सचेत करते हुए कवि समाज से पूछता है-<br />कर पूजा पाखण्ड हम, कचरा देते डाल।<br />मैली होकर माँ नदी, कैसे हो खुशहाल?(सच की अरथी-पृष्ठ-56)<br />सामाजिक व पारिवारिक सम्बंधों में तेजी से हो रहे ह्रास को कवि बहुत मार्मिक अंदाज में कहता है कि -<br />जो रहे अपने, सिमटते जा रहे हैं।<br />आस के पग, चुप उखड़ते जा रहे हैं।। (कथन -पृष्ठ-13)<br />वृद्धाश्रम- बालाश्रम और अनाथालय कुछ तो कहते हैं<br />महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ, आँसू क्यों बहते रहते हैं? (राम बचाये -पृष्ठ-94)<br />दुनिया रिश्ते भूल गयी सब, है खुद-गर्जी। रब की मर्जी (रब की मर्जी -पृष्ठ-109)<br />रचनाकार एक तरफ तो नये साल से कह रहा है कि सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।(सिर्फ सच-पृष्ठ-44)<br />किन्तु स्वयं ही दूसरी ओर वह यह भी कहकर नये साल को चिन्ता में डाल देता है कि- सत्य कब रहता यथावत, नित बदलता, सृजन की भी बदलती नित रही नपनी। (कथन-पृष्ठ-13)<br />कवि वर्तमान दूषित राजनीतिक माहौल, गिरती लोकतांत्रिक परम्पराओं और आए दिन संविधान के उल्लंघन के प्रति काफी आक्रोषित नजर आता है।<br />प्रतिनिधि होकर जन से दूर, आँखें रहते भी, हो सूर।<br />संसद हो, चौपालों पर, राजनीति तज दे तंदूर।।<br />अब भ्रांति टाल दो, जगो, उठो।<br />संक्रांति काल है, जगो, उठो। (संक्राति काल है-पृष्ठ-20)<br />श्वेत वसन नेता से, लेकिन मन काला।<br />अंधे न्यायालय ने, सच झुठला डाला।<br />निरपराध फँस जाता, अपराधी झूठा बच जाता है।<br />खुशि यों की मछली को चिंता का बगुला खा जाता है। (खुषियों की मछली- पृष्ठ-99)<br />नेता पहले डाले दाना, फिर लेते पर नोंच<br />अफसर रिश्वत गोली मारें, करें न किंचित सोच<br />व्यापारी दे नशा ,रहा डँस। लोकतंत्र का पंछी बेबस। (लोकतंत्र का पंछी -पृष्ठ-100)<br />सत्ता पाते ही रंग बदले, यकीं न करना, किंचित पगले! <br />काम पड़े पीठ कर देता।<br />रंग बदलता है पल-पल में, पारंगत है बेहद छल में<br />केवल अपनी नैया खेता। जिम्मेदार नहीं है नेता।। (जिम्मेदार नहीं है नेता- पृष्ठ-111)<br />नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र<br />धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र<br />आँख दिखाते सभी पड़ौसी, देख हमारी फूट<br />अपने ही हाथों अपना घर करते हम बर्बाद।<br />कब होगे आजाद? कहो हम, कब होंगे आजाद? (कब होगे आजाद-पृष्ठ-113)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-37970315436448206882016-08-16T00:28:28.335+05:302016-08-16T00:28:28.335+05:30समालोचना-
काल है संक्रांति का पठनीय नवगीत-गीत संग्...समालोचना-<br />काल है संक्रांति का पठनीय नवगीत-गीत संग्रह <br />अमर नाथ<br />[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१] <br />***<br />65 गीत- नवगीतों का गुलदस्ता 'काल है संक्रान्ति का', लेकर आए हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल, जबलपुर से, खासतौर से हिन्दी और बुन्देली प्रेमियों के लिए। नए अंदाज और नए कलेवर में लिखी इन रचनाओं में राजनीतिक, सामाजिक व चारित्रिक प्रदूषण को अत्यन्त सशक्त शैली में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। भूख, गरीबी, धन, धर्म, बन्दूक का आतंक, तथाकथित लोकतंत्र व स्वतंत्रता, सामाजिक रिश्तों का निरन्तर अवमूल्यन आदि विषयों पर कवि ने अपनी बेबाक कलम चलाई है। हिन्दी का लगभग प्रत्येक साहित्यकार अपने ज्ञान, मान की वृद्धि की कामना करते हुए मातु शारदे की अर्चना करने के बाद ही अपनी लेखनी को प्रवाहित करता है लेकिन सलिल जी ने न केवल मातु शारदे की अर्चना की अपितु भगवान चित्रगुप्त और अपने पूर्वजों की भी अर्चना करके नई परम्परा कायम की है। उन्होनें इन तीनों अर्चनाओं में व्यक्तिगत स्वयं के लिए कुछ न चाहकर सर्वसमाज की बेहतरी की कामना है। भगवान चित्रगुप्त से उनकी विनती है कि-<br />गैर न कोई, सब अपने है, काया में है आत्म सभी हम।<br />जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित, छाया-माया, सुख-दुःख हो सम।।(शरणागत हम -पृष्ठ-06)<br />इसी प्रकार मातृ शारदे से वे हिन्दी भाषा के उत्थान की याचना कर रहे हैं-<br />हिन्दी हो भावी जगवाणी, जय-जय वीणापाणी ।।(स्तवन-पृष्ठ-08)<br />पुरखों को स्मरण कर उन्हें प्रणाम करते हुए भी कवि याचना करता है-<br />भू हो हिन्दी-धाम। आओ! करें प्रणाम।<br />सुमिर लें पुरखों को हम, आओ! करें प्रणाम।।(स्मरण -पृष्ठ-10)<br />इन तीनों आराध्यों को स्मरण, नमन कर, भगिनी-प्रेम के प्रतीक रक्षाबन्धन पर्व के महत्व को दर्शाते हुए<br />सामाजिक रिश्तों में भगिनी को याद करते उन्हें अपने शब्दसुमन समर्पित करते है-<br />अर्पित शब्दहार उनको, जिनसे मुस्काता रक्षाबंधन।<br />जो रोली अक्षत टीकाकर, आशा का मधुबन महकाती।। (समर्पण-पृष्ठ-12)<br />समर्पण कविता में रक्षाबंधन के महत्च को समझाते हुए कवि कहता है कि-<br />तिलक कहे सम्मान न कम हो, रक्षासूत्र कहे मत भय कर<br />श्रीफल कहे-कड़ा ऊपर से, बन लेकिन अंतर से सुखकर<br />कडुवाहट बाधा-संकट की, दे मिष्ठान्न दूर हँस करती<br />सदा शीश पर छाँव घनी हो, दे रूमाल भाव मन भरती।। (समर्पण-पृष्ठ-12)<br />कवि ने जब अपनी बहिन को याद किया है तो अपनी माँ को भी नहीं भूला। कवि बाल-शिकायत करते हुए काम तमाम कविता में माँ से पूछता है-<br />आने दो उनको, कहकर तुम नित्य फोड़ती अणुबम<br />झेल रहे आतंकवाद यह हम हँस, पर निकले दम।<br />मुझ सी थी तब क्या-क्या तुमने किया न अब बतलाओ?<br />नाना-नानी ने बतलाया मुझको सच, क्या थीं तुम?<br />पोल खोलकर नहीं बढ़ाना मुझको घर का ताप।<br />मम्मी, मैया, माँ, महतारी, करूँ आपका जाप। (पृष्ठ-120)<br />अच्छाई, शुभलक्षणों व जीवन्तता के वाहक सूर्य को विभिन्न रूपों में याद करते हुए, उससे फरियाद करते हुए कवि ने उस पर नौ कवितायें रच डाली। काल है संक्रान्ति का जो इस पुस्तक का शीर्षक भी है केवल सूर्य के उत्तरायण से दक्षिणायन अथवा दक्षिणायन से उत्तरायण परिक्रमापथ के संक्रमण का जिक्र नहीं अपितु सामाजिक संक्रान्ति को उजागर करती है-<br />स्वभाशा को भूल, इंग्लिश से लड़ाती लाड़<br />टाल दो दिग्भ्रान्ति को, तुम मत रुको सूरज।<br />प्राच्य पर पाश्चात्य का अब चढ़ गया है रंग <br />कौन किसको सम्हाले, पी रखी मद की भंग।<br />शराफत को शरारत नित कर रही है तंग<br />मनुज-करनी देखकर है खुद नियति भी दंग।<br />तिमिर को लड़, जीतना, तुम मत चुको सूरज।<br />काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज।। (पृष्ठ-16-17)<br />सूरज को सम्बोधित अन्य रचनायें- संक्रांति काल है, उठो सूरज, जगो! सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज है।<br />इसी प्रकार नववर्ष पर भी कवि ने छह बार कलम चलाई है उसके विभिन्न रूपों, बिम्बों को व्याख्यायित करते हुए। हे साल नये, कब आया कब गया, झाँक रही है, सिर्फ सच, मत हिचक, आयेगा ही। <br />कवि ने नये साल से हर-बार कुछ नई चाहतें प्रकट की है।<br />हे साल नये! मेहनत के रच दे गान नए....। (हे साल नये-पृष्ठ-24)<br />रोजी रोटी रहे खोजते, बीत गया, जीवन का घट भरते भरते रीत गया<br />रो-रो थक, फिर हँसा साल यह, कब आया कब गया, साल यह? (कब आया कब गया-पृष्ठ-39)<br />टाँक रही है अपने सपने, नये वर्ष में, धूप सुबह की।<br />झाँक रही है खोल झरोखा, नये वर्ष में, धूप सुबह की।। (झाँक रही है -पृष्ठ-42)<br />जयी हों विश्वास-आस, हँस बरस।<br />सिर्फ सच का साथ देना, नव बरस।। (सिर्फ सच -पृष्ठ-44)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-66236149406480113242016-08-16T00:11:06.712+05:302016-08-16T00:11:06.712+05:30देखा जा रहा है कि नवगीत का जो साँचा आज ये 60-65 वर...देखा जा रहा है कि नवगीत का जो साँचा आज ये 60-65 वर्ष पूर्व तैयार किया गया था, कुछ नवगीतकार उसी से चिपक कर रह गये हैं। आज भी वे सीमित शब्द, लय और बिम्बात्मक सम्पदा के आधार पर केवल पुनरावृत्ति कर रहे हैं। सलिल जी जैसे नवगीतकार ही हैं, जो लीक से हटने का साहस जुटा पा रहे हैं, जो छंद को भी साध रहे हैं और बोध को भी। सलिल जी के इन नवगीतों में परम्परागत मात्रिक और वर्णिक छंदों का अभिनव प्रयोग देखा गया है। विशेषकर दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्हा और सवैया का । इनमें लोक से जुड़ी भाषा है, धुन है, प्रतीक हैं। इनमें चूल्हा-सिगड़ी है, बाटी-भरता-चटनी है, लैया-गजक है, तिल-गुड़ वाले लडुआ हैं, सास-बहू, ननदी-भौनाई के नजदीकी रिश्ते हैं, चीटी-धप्प, लँगड़ी, कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम हैं, रमतूला , मेला, नौटंकी, कठपुतली हैं। ‘सुन्दरिये मुंदरिये, होय’, राय अब्दुला खान भट्टी उर्फ दुल्ला भट्टी की याद में गाये जाने वाला लोहड़ी गीत है, ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित -<br />‘मिलती काय ने ऊँचीवारी, कुर्सी हमखों गुंइया है’।<br />सलिल जी के इन गीतों / नवगीतों को लय-ताल में गाया जा सकता है, ज्यादातर तीन से चार बंद के नवगीत हैं। अतः, पढ़ने-सुनने में बोरियत या ऊब नहीं होती। इनमें फैलाव था विस्तार के स्थान पर कसावट है, संक्षिप्तता है। भाषा सहज है, सर्वग्राही है। कई बार सूत्रों जैसी भाषा आनंदित कर देती है। जैसे कि, भवानी प्रसाद तिवारी का एक सुप्रसिद्ध गीत है- ‘‘मनुष्य उठ! मनुष्य को भुजा पसार भेंट ले।’’ अथवा इसी भावभूमि कर चन्द्रसेन विराट का गीत है - ‘‘मिल तो मत मन मारे मिल, खुल कर बाँह पसारे मिल’’ सलिल जी ने भावों के प्रकटीकरण में ‘भुजा-भेंट’ का प्रशस्त - प्रयोग किया है।<br />सलिल द्वारा सूरज के लिए ‘सूरज बबुआ’ का जो सद्य संबोधन दिया है वह आने वाले समय में ‘‘चन्दा मामा’’ जैसी राह पकडे़गा। मिथकों के सहारे जब सलिल के सधे हुए नवगीत आगे बढ़ते हैं तो उनकी बनक उनकी रंगत और उनकी चाल देखते ही बनती है -<br />अब नहीं है वह समय जब<br />मधुर फल तुममें दिखा था।<br />फाँद अम्बर पकड़ तुमको<br />लपककर मुँह में रखा था।<br />छा गया दस दिशा तिमिर तब<br />चक्र जीवन का रुका था।<br />देख आता वज्र, बालक<br />विहँसकर नीचे झुका था।<br />हनु हुआ घायल मगर<br />वरदान तुमने दिये सूरज।<br />और एक बात, सलिल जी नवगीत कवि के साथ-साथ प्रकाशक की भूमिका में भी जागरूक दिखाई दिये, बधाई। संग्रह का आवरण एवं आंतरिक सज्जा उत्कृष्ट है। यदि वे चाहते तो कृति में नवगीतों, पुनर्नवगीतों; जिनमें नवगीतों की परम्परा से इतर प्रयोग हैं और गीतों को पृथक-प्रखंडित करने एवं पाँच गीतों, नवगीतों, वंदन, स्तवन, स्मरण, समर्पण और कथन की सुदीर्घ काव्यमय आत्म कथ्य को सीमित करने का संपादकीय जोखिम अवश्य उठा सकते थे। सलिल जी ने अपने सामाजिक स्तर, आंचलिक भाषा, उपयुक्त मिथक, मुहावरों और अहानो (लोकोक्तियों) के माध्यम से व्यक्तिगत विशिष्टाओं का परिचय देते हुए हमें अपने परिवेश से सहज साक्षात्कार कराया है, इसके लिये वे साधुवाद के पात्र हैं।<br />‘उम्मीदों की फसल उगाते’ और ‘उजियारे की पौ-बारा’ करते ये नवगीत नया इतिहास लिखने की कुब्बत रखते हैं। ये तो शुरूआत है, अभी उनके और-और स्तरीय नवगीत संग्रह आयेंगे, यही शुभेच्छा है।<br />201, शास्त्री नगर गढ़ा, जबलपुर-3 म.प्र., मोबाईल 9300104296<br />email - pawarss2506@gmail.com<br />***Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-44114088266601669872016-08-16T00:10:46.860+05:302016-08-16T00:10:46.860+05:30चाँवल-दाल किलो भर ले ले
दस रुपये की भाजी।
घासलेट क...चाँवल-दाल किलो भर ले ले<br />दस रुपये की भाजी।<br />घासलेट का तेल लिटर भर<br />धनिया-मिर्ची ताजी।<br />तेल पाव भर फल्ली का<br />सिंदूर एक पुड़िया दे-<br />दे अमरुद पाँच का, बेटी की<br />न सहूँ नाराजी।<br />खाली जेब पसीना चूता,<br />अब मत रुक रे मन बेजार ।<br />मिली दिहाड़ी, चल बाजार ।।<br />नवगीतों ने गीत को परम्परावादी रोमानी वातावरण से निकालकर समष्टिवादी यथार्थ और लोक चेतना का आधार प्रदान करके उसका संरक्षण किया है। सलिल जी के ताजे नवगीतों में प्रकृति अपने समग्र वैभव और सम्पन्न स्वरूप में मौजूद है। दक्षिणायन की हाड़ कँपाती हवाएँ हैं तो खग्रास का सूर्यग्रहण भी है । सूर्योदय पर चिड़िया का झूमकर गाया हुआ प्रभाती गान है तो राई-नोन से नजर उतारती कोयलिया है -<br />ऊषा किरण रतनार सोहती ।<br />वसुधा नभ का हृदय मोहती ।<br />कलरव करती मुनमुन चिड़िया<br />पुरवैया की बाट जोहती ।।<br />गुनो सूर्य लाता है<br />सेकर अच्छे दिन ।।<br />सलिल जी ने नवगीतों में सामाजिक-राजनैतिक विकृतियों एवं सांस्कृतिक पराभवों की काट में पैनी व्यंजक शैली अपनाते हुए अपनी लेखनी को थोड़ा टेढ़ा किया है । ‘शीर्षासन करती सियासत’, ‘नाग-साँप फिर साथ हुए’, ‘राजनीति तज दे तन्दूर’, ‘गरीबी हटाओ की जुमलेबाजी’, ‘अच्छे दिन जैसे लोक लुभावन नारे धारा तीन सौ सत्तर, काशी-मथुरा-अवध जैसे सभी विषय इन नवगीतो में रूपायित हुए हैं -<br />मंजिल पाने साथ चले थे<br />लिये हाथ में हाथ चले थे<br />दो मन थे, मत तीन हुए फिर<br />ऊग न पाये, सूर्य ढले थे<br />जनगण पूछे<br />कहेंः 'खैर है'<br />अथवा<br />हम में हर एक तीसमारखाँ <br />कोई नहीं किसी से कम।<br />हम आपस में उलझ-उलझ कर<br />दिखा रहे हैं अपनी दम।<br />देख छिपकली डर जाते पर<br />कहते डरा न सकता यम।<br />आँख के अंधे, देख न देखें<br />दरक रही है दीवारें।Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-20116738161996363342016-08-16T00:09:46.860+05:302016-08-16T00:09:46.860+05:30पुस्तक समीक्षा-
काल है संक्राति का
- सुरेन्द्र सि...पुस्तक समीक्षा- <br />काल है संक्राति का<br />- सुरेन्द्र सिंह पॅवार<br />[कृति- काल है संक्राति का, ISBN 817761000-7, गीत-नवगीत संग्रह, कृतिकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, 204 अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001, मूल्य - 200/-]<br />*<br />‘काल है संक्रांति का’ 'सलिल' जी की दूसरी पारी का प्रथम गीत-नवगीत संग्रह है। ‘सलिल’ जी की शब्द और छन्द के प्रति अटूट निष्ठा है। हिन्दी पञ्चांग और अंग्रेजी कलेण्डर में मकर संक्रांति एक ऐसा पर्व है जो प्रतिवर्ष चौदह जनवरी को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। इसी दिन से शिशिर ऋतु का एवं उत्तरायण का प्रारंभ माना गया है। इसी के आसपास, गुजरात में पतंगोत्सव, पंजाब में लोहड़ी, तामिलनाडु में पोंगल, केरल में अयप्पा दर्शन, पूर्वी भारत में बिहू आदि पर्वों की वृहद श्रृंखला है जो ऋतु परिवर्तन को लोक पर्व के रूप में मनाकर आनंदित होती है। भारत के क्षेत्र में पवित्र नदियों एवं सरोवरों के तट पर स्नान दान और मेलों की परम्परा है।<br />संग्रह के ज्यादातर नवगीत 29 दिसम्बर 2014 से 22 जनवरी 2015 के मध्य रचे गये हैं। यह वह संक्रांति काल है, जब दिल्ली में ‘आप’ को अल्पमत और केजरीवाल द्वारा सरकार न चलाने का जोखिम भरा निर्णय, मध्यप्रदेश सहित कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में भाजपा को प्रचंड बहुमत तथा केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी जी की धमाकेदार पेशवाई से तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य बदला-बदला सा था। ऐसे में कलम के सिपाही ‘सलिल’ कैसे शांत रहते? उन्हें विषयों का टोटा नहीं था, बस कवि-कल्पना दौड़ाई और मुखड़ों-अंतरों की तुकें मिलने लगी। सलिल जी ने गीत नर्मदा के अमृतस्य जल को प्रत्यावर्तित कर नवगीतरूपी क्षिप्रा में प्रवाहमान, किया, जिसमें अवगाहन कर हम जैसे रसिक श्रोता / पाठक देर तक और दूर तक गोते लगा सकते हैं । कहते है, नवगीत गीत का सहोदर है, जो अपनी शैली आप रचकर काव्य को उद्भाषित करता है । सलिल - संग्रह के सभी गीत नवगीत नहीं हैं परन्तु जो नवगीत हैं वे तो गीत हैं ही ।<br />डॉ. नामवरसिंह के अनुसार ‘‘नवगीत अपने नये रूप’ और ‘नयी वस्तु’ के कारण प्रासंगिक हो सका हैं ।’’ क्या है नवगीत का ‘नया रूप’’ एवं ‘नयी वस्तु’? बकौल सलिल - <br />नव्यता संप्रेषणों में जान भरती, <br />गेयता संवेदनों का गान करती।<br />कथ्य होता, तथ्य का आधार खाँटा,<br />सधी गति-यति अंतरों का मान करती।<br />अंतरों के बाद, मुखड़ा आ विहँसता,<br />मिलन की मधु बंसरी, है चाह संजनी।<br />सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती,<br />मर्म बेधकता न हो तो रार ठनती।<br />लाक्षणिता भाव, रस, रूपक सलोने,<br />बिम्ब टटकापन मिलें, बारात सजती।<br />नाचता नवगीत के संग, लोक का मन<br />ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी।।<br />वैसे गीत में आने वाले इस बदलाव की नव्यता की सूचना सर्वप्रथम महाकवि निराला ने ‘‘नवगति नवलय, ताल छन्द नव’’ कहकर बहुत पहले दे दी थी । वास्तव में, नवगीत आम-आदमी के जीवन में आये उतार-चढ़ाव, संघर्ष-उत्पीड़न, दुख-तकलीफ-घुटन, बेकारी, गरीबी और बेचारगी की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है ।<br />सलिल जी के प्रतिनिधि नवगीतों के केन्द्र में वह आदमी है, जो श्रमजीवी है, जो खेतों से लेकर फैक्ट्रियों तक खून-सीना बहाता हुआ मेहनत करता है, फिर भी उसकी अंतहीन जिंदगी समस्याओं से घिरी हुई हैं, उसे प्रतिदिन दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है । ‘मिली दिहाड़ी’ नवगीत में कवि ने अपनी कलम से एक ऐसा ही दृश्य उकेरा है -<br />Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-16112796109037895932016-08-16T00:08:49.292+05:302016-08-16T00:08:49.292+05:30इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कव...इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—<br />आज नया इतिहास लिखें हम।<br />अब तक जो बीता, सो बीता<br />अब न आस-घट होगा रीता<br />अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,<br />अब न कभी लांछित हो सीता<br />भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब<br />हया, लाज, परिहास लिखें हम।<br />आज नया इतिहास लिखें हम।।<br />रहें न हमको कलश साध्य अब<br />कर न सकेगी नियति बाध्य अब<br />स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब<br />कोशिश होगी महज माध्य अब<br />श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब<br />शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)<br />रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।<br />गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।<br />वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।<br />- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)<br />*<br />[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]<br />*****Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-32862983989927857282016-08-16T00:08:30.747+05:302016-08-16T00:08:30.747+05:30अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
रा...अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,<br />राम बचाये!<br />वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!<br />महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?<br />राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे<br />सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,<br />राम बचाये!<br />अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!<br />पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।<br />सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?<br />बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,<br />राम बचाये! (पृ.९४)<br />इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—<br />ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।<br />श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें<br />कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें<br />आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।<br />....<br />श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला<br />अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला<br />निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)<br />गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—<br />लोकतंत्र का पंछी बेबस!<br />नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच<br />अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच<br />व्यापारी दे नाश रहा डँस!<br />.......<br />राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच<br />जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच<br />एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)<br />प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—<br />खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।<br />आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा<br />ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे<br />पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!<br />धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती<br />ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम<br />पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!<br />सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा<br />कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही<br />हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-62614101229413477362016-08-16T00:08:14.145+05:302016-08-16T00:08:14.145+05:30छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे...छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—<br />करना सदा, वह जो सही।<br />........<br />हर शूल ले, हँस फूल दे<br />यदि भूल हो, मत तूल दे<br />नद-कूल को पग-धूल दे<br />कस चूल दे, मत मूल दे<br />रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)<br />सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—<br />बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।<br />हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये<br />अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये<br />आँसू, सिसकी, चीखें, नारे<br />आश्वासन कथरी लाशों पर<br />सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)<br />देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—<br />मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।<br />चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी<br />घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी<br />तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-<br />दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी<br />ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)<br />आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-46384369035603421372016-08-16T00:07:37.888+05:302016-08-16T00:07:37.888+05:30परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षो...परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—<br />नये साल को/आना है तो आएगा ही।<br />करो नमस्ते या मुँह फेरो।<br />सुख में भूलो, दुख में टेरो।<br />अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।<br />एक-दूसरे को ही मारो।<br />या फिर, गले लगा मुस्काओ।<br />दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।<br />चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।<br />या कोसो जिस-तिस को ससुरो!<br />अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)<br />विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—<br />सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!<br />सब मिल कविता करिये होय!<br />कौन किसी का प्यारा होय!<br />स्वार्थ सभी का न्यारा होय!<br />जनता का रखवाला होय!<br />नेता तभी दुलारा होय!<br />झूठी लड़ै लड़ाई होय!<br />भीतर करें मिताई होय!<br />.....<br />हिंदी मैया निरभै होय!<br />भारत माता की जै होय! (पृ.४९)<br />उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—<br />मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!<br />हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी<br />जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी<br />मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!<br />......<br />कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?<br />अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।<br />बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)<br />इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—<br />जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!<br />सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।<br />......<br />गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।<br />जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।<br />जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)<br />गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—<br />दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?<br />आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।<br />करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!<br />सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-45194632500237134732016-08-16T00:07:21.752+05:302016-08-16T00:07:21.752+05:30समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
...समीक्षा<br />यह ‘काल है संक्रांति का’<br />- राजेंद्र वर्मा<br />गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।<br />‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।<br />शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—<br />काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!<br />दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़<br />जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़<br />प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़<br />स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़<br />टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!<br />.......<br />प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग<br />कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग<br />शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग<br />मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग<br />तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)<br />एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-<br />प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर<br />संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर<br />अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!<br />अथवा,<br />सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल<br />नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल<br />झट छिपा माल दो / जगो, उठो!<br />गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--<br />नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में<br />हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में<br />मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)<br />शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—<br />सूरज बबुआ! / चल स्कूल।<br />धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।<br />बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।<br />धूप बुआ ने लपक चुपाया<br />पछुआ लायी बस्ता-फूल।<br />......<br />चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।<br />‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।<br />संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ<br />खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-4852915091606155752016-08-16T00:06:01.094+05:302016-08-16T00:06:01.094+05:30पुस्तक समीक्षा-
संक्रांति-काल की सार्थक रचनाशीलता ...पुस्तक समीक्षा-<br />संक्रांति-काल की सार्थक रचनाशीलता <br />कवि चंद्रसेन विराट<br />* <br />आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' वह चमकदार हस्ताक्षर हैं जो साहित्य की कविता विधा में तो चर्चित हैं ही किन्तु उससे कहीं अधिक वह सोशल मीडिया के फेसबुक आदि माध्यमों पर बहुचर्चित, बहुपठित और बहुप्रशंसित है। वे जाने-माने पिंगलशास्त्री भी हैं। और तो और उन्होंने उर्दू के पिंगलशास्त्र 'उरूज़' को भी साध लिया है। काव्य - शास्त्र में निपुण होने के अतिरिक्त वे पेशे से सिविल इंजिनियर रहे हैं। मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। यही नहीं वे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधिवक्ता भी रहे हैं। इसके पूर्व उनके चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। यह पाँचवी कृति 'काल है संक्रांति का' गीत-नवगीत संग्रह है। 'दिव्य नर्मदा' सहित अन्य अनेक पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के अतिरिक्त उनके खाते में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन अंकित है।<br />गत तीन दशकों से वे हिंदी के जाने-माने प्रचलित और अल्प प्रचलित पुराने छन्दों की खोज कर उन्हें एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिंदी में उनके आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यही उनके सारस्वत कार्य का वैशिष्ट्य है जो उन्हें लगातार चर्चित रखता आया है। फेसबुक तथा अंतरजाल के अन्य कई वेब - स्थलों पर छन्द और भाषा-शिक्षण की उनकी पाठशाला / कार्यशाला में कई - कई नव उभरती प्रतिभाओं ने अपनी जमीन तलाशी है।<br />१२७ पृष्ठीय इस गीत - नवगीत संग्रह में उन्होंने अपनी ६५ गीति रचनाएँ सम्मिलित की हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संग्रह में किसी की भूमिका नहीं है। और तो और स्वयं कवि की ओर से भी कुछ नहीं लिखा गया है। पाठक अनुक्रम देखकर सीधे कवि की रचनाओं से साक्षात्कार करता है। यह कृतियों के प्रकाशन की जानी-मानी रूढ़ियों को तोड़ने का स्वस्थ्य उपक्रम है और स्वागत योग्य भी है।<br />गीत तदनंतर नवगीत की संज्ञा बहुचर्चित रही है और आज भी इस पर बहस जारी है। गीत - कविता के क्षेत्र में दो धड़े हैं जो गीत - नवगीत को लेकर बँटे हुए हैं। कुछ लेखनियों द्वारा नवगीत की जोर - शोर से वकालत की जाती रही है जबकि एक बहुत बड़ा तबका ' नव' विशेषण को लगाना अनावश्यक मानता रहा है। वे 'गीत' संज्ञा को ही परिपूर्ण मानते रहे हैं एवं समयानुसार नवलेखन को स्वीकारते रहे हैं। इसी तर्क के आधार पर वे 'नव' का विशेषण अनावश्यक मानते हैं। इस स्थिति में जो असमंजस है उसे कवि अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर अवधारणा का परिचय देता रहा है। चूँकि सलिल जी ने इसे नवगीत संग्रह भी कहा है तो यह समुचित होता कि वे नवगीत संबंधी अपनी अवधारणा पर भी प्रकाश डालते। संग्रह में उनके अनुसार कौन सी रचना गीत है और कौन सी नवगीत है, यह पहचान नहीं हो पाती। वे केवल 'नवगीत' ही लिखते तो यह दुविधा नहीं रहती, जो हो।<br />विशेष रूप से उल्लेख्य है कि उन्होंने किसी - किसी रचना के अंत में प्रयुक्त छन्द का नाम दिया है, यथा पृष्ठ २९, ५६, ६३, ६५, ६७ आदि। गीत रचना को हर बार नएपन से मण्डित करने की कोशिश कवि ने की है जिसमें 'छन्द' का नयापन एवं 'कहन' का नयापन स्पष्ट दिखाई देता है। सूरज उनका प्रिय प्रतीक रहा है और कई गीत सूरज को लेकर रचे गए हैं। 'काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज', 'उठो सूरज! गीत गाकर , हम करें स्वागत तुम्हारा', 'जगो सूर्य आता है लेकर अच्छे दिन', 'उगना नित, हँस सूरज!', 'आओ भी सूरज!, छँट गए हैं फूट के बादल', 'उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज', सूरज बबुआ चल स्कूल', 'चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज' आदि।<br />कविताई की नवता के साथ रचे गए ये गीत - नवगीत कवि - कथन की नवता की कोशिश के कारणकहीं - कहीं अत्यधिक यत्नज होने से सहजता को क्षति पहुँची है। इसके बावजूद छन्द की बद्धता, उसका निर्वाह एवं कथ्य में नवता के कारण इन गीत रचनाओं का स्वागत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।<br />१-६-२०१६ <br />***<br />समीक्षक संपर्क- १२१ बैकुंठधाम कॉलोनी, आनंद बाजार के पीछे, इंदौर ४५२०१८, चलभाष ०९३२९८९५५४०Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-85897476630565013622016-08-16T00:04:54.207+05:302016-08-16T00:04:54.207+05:30उनके नवीन गीत-सृजन समसामयिक चेतना की अनुभूति एवं अ...उनके नवीन गीत-सृजन समसामयिक चेतना की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति से संपन्न हैं किंतु वे प्रारम्भ में पुरखों को स्मरण करते हुए कहते है। यथा:<br />सुमिर लें पुरखों को हम<br />आओ ! करें प्रणाम।<br />काया-माया-छायाधारी<br />जिन्हें जपें विधि-हरि-त्रिपुरारी<br />सुर, नर, वानर, नाग, द्रविण, मय<br />राजा-प्रजा, पुरुष-शिशु-नारी<br />मूर्त-अमूर्त, अजन्मा-जन्मा<br />मति दो करें सुनाम।<br />आओ! करें प्रणाम।<br />पुस्तक शीर्षक को सार्थकता प्रदान करते हुये ‘संक्रांति काल है’ रचना में जनमानस को कवि झकझोरते हुये जगा रहा है। यथा:<br />संक्रांति काल है<br />जगो, उठो<br />प्रतिनिधि होकर जन से दूर<br />आॅैखें रहते भी हो सूर<br />संसद हो चैपालों पर<br />राजनीति तज दे तंदूर।<br />अब भ्रांति टाल दो<br />जगो, उठो।<br />उक्त भावों को शब्द देते हुये कवि ने सूरज के माध्यम से कई रचनाएँ दी हैं जैसे - उठो सूरज, हे साल नये, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज आदि - यथा:<br />आओ भी सूरज।<br />छट गये हैं फूट के बादल<br />पतंगें एकता की मिल उड़ाओ।<br />गाओ भी सूरज।<br />$ः$ः$ः$ः$ः<br />उग रहे या ढल रहे तुम<br />क्रान्त प्रतिपल रहे तुम ।<br />उगना नित<br />हँस सूरज।<br />धरती पर रखना पग<br />जलना नित, बुझना मत।<br />उनके गीत जीवन में आये उतार-चढ़ाव, भटकाव-ठहराव, देश और समाज के बदलते रंगों के विस्तृत व विश्वसनीय भावों को उकेरते हुये परिलक्षित होते हैं। इस बात की पुष्टि के लिये पुस्तक में संग्रहीत उनके गीतों के कुछ मुखड़े दे रहा हूँ। यथा:<br />तुम बंदूक चलाओ तो<br />हम मिलकर<br />क़लम चलायेंगे।<br />$ः$ः$ः$ः<br />अधर पर धर अधर छिप<br />नवगीत का मुखड़ा कहा।<br />$ः$ः$ः$ः<br />कल के गैर<br />आज हैं अपने।<br />$ः$ः$ः$ः<br />कल का अपना<br />आज गैर है।<br />$ः$ः$ः$<br />काम तमाम, तमाम का<br />करतीं निश-दिन आप।<br />मम्मी, मैया, माॅै, महतारी<br />करुॅै आपका जाप।<br />अंत में इतना ही कह सकता हूॅै कि आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदर्शवादी संचेतना के कवि हैं लेकिन यथार्थ की अभिव्यक्ति करने में भी संकोच नहीं करते। अपने गीतों में उन्होंने भारतीय परिवेश की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि विसंगतियों को सटीक रूप में चित्रित किया है। निस्संदेह, उनका काव्य-कौशल सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। उनके गीतों में उनका समग्र व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। निश्चित ही उनका प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ साहित्य संसार में सराहा जायेगा। मैं उन्हें कोटिशः बधाई एवं शुभकामनाएँ देता हूॅै और ईश्वर से प्रार्थना करता हूॅै कि वे निरंतर स्वस्थ व सानंद रहते हुए चिरायु हों और माँ सरस्वती की ऐसे ही समर्पित भाव से सेवा करते रहें।<br />*****<br />काल है संक्रांति का, नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', पृष्ठ १२८, रचनाएँ ६५, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपर बैंक २००/-, डाक व्यय निशुल्क, संपर्क समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४ <br />*****<br />संपर्क - ज़फ़र मंज़िल’, 11/116, ग्वालटोली, कानपुर-208001, चलभाष 9450938629Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6787499593321862745.post-9992385520988701402016-08-16T00:04:33.725+05:302016-08-16T00:04:33.725+05:30पुस्तक समीक्षा -
नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है...पुस्तक समीक्षा -<br />नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' <br />डाॅ. अंसार क़म्बरी<br />*<br /><br />आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का गीत-नवगीत संग्रह ‘‘काल है संक्रांति का’’ प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। गीत हिन्दी काव्य की प्रभावी एवं सशक्त विधा है । इस विधा में कवि अपनी उत्कृष्ट अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति व्दारा काव्य का ऐसा उदात्त रूप प्रस्तुत करता है जिसके अंतर्गत तत्कालीन, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों को साकार करते हुये मानव-मनोवृृत्तियों की अनेक प्रतिमायें (बिम्ब)चित्रित करता है। आत्मनिरीक्षण और शुक्ताचरण की प्रेरणा देते हुये कविवर आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा नवगीत को नए आयाम दिए हैं।<br />इधर समकालीन कवियों ने भी विचार बोझिल गद्य-कविता की शुष्कता से मुक्ति के लिये गीत एवं नवगीत मात्रिक छंद को अपनाना श्रेष्ठकर समझा है, जैसा कि सलिल जी ने प्रस्तुत संग्रह में बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनकी भाषा भाव-सम्प्रेषण में कहीं अटकती नहीं है। उन्होंने आम बोलचाल के शब्दों को धड़ल्ले से प्रयोग करते हुये आंचलिक भाषा का भी समावेश किया है जो उनके गीतों का प्राण है। उनके गीत नवीन विषयों को स्वयम् में समाहित करने के उपरान्त अपनी अनुशासनबध्दता यथा- आत्माभिव्यंजकता, भाव-प्रवणता, लयात्मकता, गेयता, मधुरता एवं सम्प्रेषणीयता आदि प्रमुख तत्वों से सम्पूरित हैं अर्थात उन्होंने हिन्दी-गीत की निरंतर प्रगतिशील बहुभावीय परम्परा एवं नवीनतम विचारों के साथ गतिमान होने के बावजूद गीति-काव्य की सर्वांगीणता को पूर्णरुपेण समन्वित किया है।<br />'काल है संक्रान्ति का' में नवगीतकार ने प्रत्येक गीत को एक शीर्षक दिया है जो कथ्य तक पहुँचने में सहायक होता है। आचार्य जी, चित्रगुप्त प्रभु एवं वीणापाणि के चरणों में बैठकर रचनाधर्मिता, जीवंतता तथा युगापेक्षी सारस्वत साधनारत समर्थ प्रतीक रस सिध्द कवि हैं। वंदन करते हुये वो अपनी लेखनी से विनती करते हैं:<br />शरणागत हम<br />चित्रगुप्त प्रभु !<br />हाथ पसारे आये।<br />अनहद, अक्षय, अजर, अमर हे !<br />अमित, अभय, अविजित, अविनाशी<br />निराकार-साकार तुम्हीं हो<br />निर्गुण-सगुण देव आकाशी।<br />पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो<br />तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।<br />तिमिर मिटाने<br />अरुणागत हम<br />व्दार तिहारे आये।<br />$ः$ः$ः<br />माॅै वीणापाणि को - स्तवन<br />सरस्वती शारद ब्रम्हाणी।<br />जय-जय वीणापाणी।।<br />अमल-धवन शुचि, विमल सनातन मैया।<br />बुध्दि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैंया।<br />तिमिरहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा,<br />नाद-ताल, गति-यति खेलें तब कैंया।<br />अनहद सुनवा दो कल्याणी।<br />जय-जय वीणापाणी।।Divya Narmadahttps://www.blogger.com/profile/13664031006179956497noreply@blogger.com