मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

कनबतियाँ- महेश अनघ

महेश अनघ हमारे समय के एक महत्वपूर्ण नवगीतकार हैं। झनन झकास के बाद अब कनबतियाँ शीर्षक से उनका दूसरा नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है। महेश जी अपनी माटी के गीतकार हैं उनके इस संग्रह मे भी बुन्देली भाषा की लय और बिम्ब साफ दिखाई देते हैं। महेश जी के नवगीत ग्वालियर और उसके आसपास की माटी की खुशबू लिए हुए हैं। इसका अर्थ यह नही कि वे बुन्देलखंड तक सीमित है बल्कि कवि का अपनी जमीन पर जमे रहकर पूरे परिवेश को सम्बोधित करना बडी बात होती है। अपने पहले गीत मे महेश जी कहते हैं- समाधान तो नही
मगर जीने की कोशिश है
हरी भरी उम्मीदें हैं
लय भी है-बन्दिश है
खारे जल से मै खुशियो के
पाँव पखारा करता हूँ।

खारे जल से खुशियों के पाँव पखारने का अर्थ है आँसुओ से खुशियों का स्वागत करना या दुख में सुख के पल जी लेना। ऐसा तब होता है जब मनुष्य को बहुत बडे श्रम के बाद किसी सुखद क्षण की प्राप्ति या उसकी प्रतीक्षा होती है। इस तरह कवि और आगे अपने कविताई के प्रयोजन को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। साधना के बिना सुन्दर गीत नही बनते। गोदोहन का विरल चित्र देखिए इसे-भारतीय आंचलिक सांस्कृतिक पहचान और सन्दर्य-छवि के रूप मे देखिए-
नन्हे की किलकारी सुनकर/
गैया रम्भाई
चारो थन पी लें/
दोपाए चौपाए
भाई भौजी दूध नहाई
अम्मा मुस्काई
किस्से चले कवित्त चले
चुटकुले चले।

हमारा लोक अभी बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि हमारे बडे बुजुर्गो के मुहावरो मे सुना जाता रहा है। दूधों नहाना सांस्कृतिक रूप से समृद्धि का प्रतीक है। महेश अनघ के गीतों की यही खूबी मन को सहज रूपसे आकर्षित करती है। महेश के गीतों में ध्वन्यालंकार की बडी मोहक शब्द योजना रहती है-मानो शब्द बजते हैं। छन्द एकदम सधा होता है। गेयता की दृष्टि से भी कोई कमी नही होती लेकिन अक्सर महेश जी के गीतो मे समानार्थी शब्दों का ध्वन्यात्मकता के लिए प्रयोग भी मिलता है। उदाहरणार्थ-खनन-खनन, चिहुँक-चिहुँक, ठुमक-ठुमक, फुदक-फुदक, जगमग-जगमग, सोंधी-सोंथी आदि। अब देखिए महेश जी कहते हैं-
बारहमास रजो गुण है
हम हर मौसम में फलते हैं
दाने का न्योता देने
फूलो की तरह निकलते हैं
माटी सूरज हवा नमी है
साहब जी आना पकी फसल जैसा
पकने का मन हो।

महेश अनघ के इन गीतों में जो गीत बिम्ब उभरते हैं वे उनके अपने निजी परिवेश के हैं, जिनका चयन बहुत ईमानदारी से किया गया है। जहाँ कहीं महेश जी अपने मूल सांस्कृतिक बिम्ब को पकड़ते हैं वहाँ वो मार्मिक हो जाते हैं-
नैना मूँदो नेह उघारौ
महके मान तुम्हारो
रण से जो मोती लाये हो
हमरे आँचल डारौ
जो जीतीं नीरा जागीरें
रस- चौरस पर हारौ।
सब दरबार उठी राजा जी
अब रनिवास पधारो।

तो ये हैं असली बुन्देली संस्कृति की गीत पंक्तियाँ। इसी प्रकार गीतो से सार्थक होता है इस संकलन का शीर्षक-कनबतियाँ-अर्थात कान मे कही सुनी जाने वाली बातें। इन कनबतियों मे प्यार है-शिकायत है-चुहल है –उत्सवधर्मिता है-सत्ता की आलोचना है-माने वह सब कुछ है जो एक श्रेष्ठ नवगीत संकलन से आपेक्षित है। कनबतिया का अर्थ कुछ कुछ गजल जैसा (कान मे की जानेवाली गुफ्तगू) यानी एकांत में निवेदन की जाने वाली बात होता है। बतिया है तो संवादधर्मिता स्वयमेव आ गयी है। बहरहाल इस संकलन मे कवि के १०१ गीत, नवगीत संग्रहीत हैं। एक और कनबतिया में दरबार का रूप देखें यहाँ मंत्री राजा के ऊपर बैठे हैं सामंत हैं हाकिम हैं सब अपने मन के मालिक हैं बिल्कुल अन्धेरनगरी के चौपटराजा की तरह जहाँ गरीब के छप्पर या छत की मरम्मत की अर्जी पर सुनवाई करने वाला कोई नही है-
एक छोर सामंत विराजे/
एक छोर पर हाकिम थे
एक छोर पर चारण चाकर
बगरूर मे रिमझिम थे
चौथा खम्भा बजा रहा था
जैजैवंती धुन।
..........
चर्चा मे शामिल थे दादुर
मसला टाँग खिचाई था
जिसकी चली दलील अंत में
वह जोरू का भाई था
फटी छान की अर्जी लेकर
ठाडे रहे अपुन।

श्रमजीवी महिला घूरनी, रमकलिया जैसे पात्र और तमाम ऐसे घर-खेत-ओसारे-खलिहान-गाँव के गीतचित्र महेश अनघ के इस दूसरे गीत संग्रह मे बखूबी देखने को मिलते हैं।
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गीत- नवगीत संग्रह - कनबतियाँ, रचनाकार- महेश अनघ, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण- २०११, मूल्य- रूपये १६०/-, पृष्ठ- --, समीक्षा लेखक- भारतेन्दु मिश्र।

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