शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

नदियाँ क्यों चुप हैं - राधेश्याम बंधु

वरिष्ठ जनचेतना के कवि राधेश्याम बंधु के नवगीतों का यह चौथा संग्रह है ’नदियाँ क्यों चुप है ?‘ इसके पहले उनके तीन नवगीत संग्रह ’बरसो रे घन‘ , ’प्यास के हिरन‘ , ’एक गुमसुम धूप‘ और एक खण्डकाव्य ’एक और तथागत‘ भी प्रकाशित और चर्चित हो चुके हैं। ’नदियाँ क्यों चुप हैं?‘ के नवगीत अपनी प्रखर अन्तर्वस्तु और सहज शिल्प के कारण पठनीय भी हैं और एक बड़े पाठक समुदाय तक पहुँचने में सक्षम भी हैं। इसके पहले राधेश्याम बंधु द्वारा सम्पादित ’नवगीत और उसका युगवोध‘ के माध्यम से ’नवगीत‘ को लेकर सघन विचार-मंथन भी हो चुका है और उसकी परम्परा को निराला और नागार्जुन से जोड़ने की बात भी की गयी है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि समय का दंश इन गीतों में प्रकट है। कवि की दृष्टि में आज ’रिश्तों की नदियाँ‘ सूख गयी हैं। महानगरों में अमानवीयकरण ने व्यवहार में एक ठंढेपन को जन्म दिया है। ज्यों-ज्यों नगर महान हो रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं। यह केवल पर्यावरण का संकट नहीं है बल्कि सामाजिक रिश्तों के छीजने का संकट भी है।
राधेश्याम बंधु मानवीय रिश्तों की भाषा में नदियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -
’दादी सी दुबली, गरीब हैं, नदियाँ बहुत उदास,
सबकी प्यास बुझातीं उनकी, कौन बुझाये प्यास ?‘

इसी तरह वे भ्रष्ट व्यवस्था की ओर भी इंगित करते हुए कहते हैं- नहरे तो हैं लेकिन वे फाइलों में ही बहती हैं। अब पानी बोतलों में बिकता है। अब तो प्यासी नदी भी बादलों को टेरती है -
’प्यासी नदी रेत पर तड़पे , अब तो बादल आ।‘
मुंह उचकाये बछिया टेरे , अब तो बादल आ।‘
दादी की गुड़गुड़ी बुलाये ,
अब तो बादल आ।‘

पर्यावरण दिवस पर वृक्षारोपण केवल रस्म नहीं है बल्कि कवि की लोकचेतना की दृष्टि से हार्दिक कामना भी है कि हर आँगन में हरियल पेड़ रोपे जांय, रिश्तों की बगिया मुरझाने न पाये, आँगन की तुलसी एक अम्मा की हर अरदास पहुँचे। साथ ही सफेदपोश बादलों की झूठी हमदर्दी पर भी कवि व्यंग्य करते हुए कहता है -
’बादल भी हो गये सियासी , दर्द नहीं सुनते ,
लगते हैं ये मेघदूत , पर प्यास नहीं हरते,
पानी औ गुड़धानी देंगे ,
फिर - फिर हैं कहते।‘

 यह कैसी बिडम्बना है कि सामाजिक प्रदूषण के प्रभाव से अब बादल भी अछूते नहीं हैं और अब बादल भी तस्कर हो गये हैं। उनसे भी अब प्यास नहीं बुझती। बल्कि उनके शोरगुल से लोगों की नींद ही खराब होती है -
’बदरा सारी रात जगाते,
फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती।‘

 इनके अतिरिक्त ’बरखा की चाँदनी‘ जैसे गीत कवि - दृष्टि के सार्थक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यहाँ भी रिश्ते अर्थवान हैं-
’कभी उतर आँगन में , निशिगंधा चूमती,
कभी खड़ी खिड़की पर, ननदी सी झांकती।
 करती रतजगा कभी, गुमसुम सी रेत पर,
 बरखा की चाँदनी, फिरती मुंडेर पर।‘

 कभी-कभी तनावग्रस्त जिन्दगी की जटिलतायें और बेचैनियाँ इतनी असह्य हो उठती हैं कि चाँदनी भी बेचैन लगने लगती है -
’लेटी है बेचैन चाँदनी, पर आंखों में नींद कहाँ ?
आंखें जब रतजगा करें तो, सपनों की उम्मीद कहाँ ?‘

 इसी तरह ’यादों की निशिगंधा‘ गीत की ये पंक्तियाँ रिश्तों की असंगतियों को आत्मीयता की लय से सुलझा लेने का सुझाव कुछ इस प्रकार देती हुई प्रतीत होती हैं -
’चाहो तो बांहों को, हथकड़ी बना लेना,
मौन के कपोलों पर, सन्धिपत्र लिख देना।
 महुआ - तन छेड़-छेड़, इठलाती चाँदनी,
 पिछवाड़े बेला संग, बतियाती चाँदनी।‘

इसी संग्रह के एक गीत ’चाँदनी को धूप मैं कैसे कहूं ?‘ मे राधेश्याम बंधु रागात्मक संवेदना की तीव्रता को प्रकट करने के लिए कुछ विरोधाभाषी शब्दों का सहारा लेते हैं और इस प्रकार वाक्य के कुछ टुकड़े भाषा का संगीत रचते हुए प्रतीत होते हैं-
’तुम मिले तो गंध की चर्चा हुई,
प्यार के सौगंध की चर्चा हुई,
चाँदनी जो नहीं मेरी हो सकी,
रूप के अनुबंध की चर्चा हुई।‘

कभी-कभी असंगति में संगति की तलाश भी जिन्दगी के कुछ नये आयाम खोलती है। ऐसे में किसी का मौन भी जब मादक लगने लगे तो उसका बोलना कितना आकर्षक होगा ? फिर उसके चित्र की मोहकता, पत्र की रोचकता भी जीवन को अर्थवान बनाने में कितनी सहायक हो सकती है? इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि का प्रकृति- राग कितना अर्थपूर्ण है-
’कभी पलाशों के उत्सव में, कोकिल बन गाते,
कभी जुही, गुलनार, केतकी, के संग इठलाते।‘

राधेश्याम बंधु द्वारा निर्मित फिल्म ’रिश्ते‘ में उनका एक गीत ’कभी हंसाते कभी रूलाते‘ टाइटिल सांग के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ भी यथार्थ के साथ सघन लयात्मकता विद्यमान है-
’सम्बोधन बेकार हो गये,
बेमानी सब प्यार हो गये,
माली ही जब बगिया लूटे,
रिश्ते सब व्यापार हो गये।‘

यह आज के आधुनिकतावादी और उपभोक्तावादी समाज की कैसी विडम्बना है कि जहाँ व्यक्ति की हर चीज बिकाऊ है। ऐसे में कवि संकल्प करता है कि चाहे जो भी हो, ’हम कलम बिकने न देंगे‘ और शायद सच्चे कवि की यही पहचान भी है। राधेश्याम बंधु की काव्ययात्रा में कई नये प्रस्थान आते हैं। पर मूल संवेदना गीत-संवेदना ही है। उनके गीतों में कहीं महाभारत का प्रसंग है तो कहीं निठारी-काण्ड के प्रति आक्रोश भी है। यूरिया - बोफोर्स के घुटालों के प्रसंग कविता को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। वहीं बुध्द, गांधी, नानक के संदर्भ धर्म निरपेक्ष संवेदना का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इसी भारत की आजादी और उसकी अस्मिता का सवाल भी है। इसलिए कवि कहता है-
’चाहे सब दुनिया बिक जाये,
हम तक़दीर नहीं बेचेंगे,
जब तक तन में लहू शेष है,
हम कश्मीर नहीं बेचेंगे।‘

ये पंक्तियाँ हमारे इस विश्वास को मजबूत बनाती हैं कि यदि देश है तो हम है और यदि हम हैं तो देश है। मैं आशा करता हूं कि राधेश्याम बंधु का यह ’नदियाँ क्यों चुप हैं ?‘ नवगीत संग्रह, नवगीत को व्यक्ति प्रदान करेगा और पाठकों से संवाद बनाने में भी सफल होगा।
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नवगीत संग्रह- नदियाँ क्यों चुप हैं, रचनाकार- राधेश्याम बन्धु, प्रकाशक- कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ , मूल्य-रू. १५०/-, पृष्ठ-११२, समीक्षा लेखक- डॉ. परमानंद श्रीवास्तव।

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